प्रेम कविता : एक दोपहर झिलमिलाती हुई...

तमाम उदास और थकी हुई
व्यस्त दोपहरियों के बीच भी 
अक्सर टंकी रहती है 
स्मृतियों की चुनर में 
कोई एक दोपहर 
झिलमिलाती हुई...  
और उसी के बीच 
कोई एक चंचल शाम भी मुस्कुराती हुई.... 
 
गुलाबी, हल्की नीली या सुनहरी केसरिया 
ताजा‍तरीन और सौंधी सी महक वाली 
 
ना जाने कितने रंग बोलते हुए 
शब्द गाते हुए, 
आंखें भीगा सा मन समझाती हुई 
और मन आंखों को सहलाता हुआ... 

कोई हाथ बस चेहरे तक आकर रूका हुआ 
कोई नजर अनदेखा करते हुए भी देखती हुई... 

थरथराते होंठों पर कांपती हुई 
कोई एक अधूरी सी कविता 
उसी एक दोपहरी के नाम 
जो टंकी है स्मृतियों की चुनर पर
बरसों से .. . 
 
और बरस हैं कि 
चुनरी से झरते ही नहीं 
मोह धागे में बंधे 
इन बरसों के लिए भी बहुत कुछ लिखना है... 
लेकिन फिर कभी...  

वेबदुनिया पर पढ़ें