लेखक पात्र के पीछे चलता है : विनोद कुमार शुक्ल

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* आपके लिए सुख का क्या अर्थ है?
मेरे लिए सुख का अर्थ, किसी दूसरे को मेरे कारण मिला हुआ सुख है।

*आपके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति क्या है और अपना सबसे बड़ा दुर्गुण आप किसे समझते हैं?
मेरे व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति शायद यही है, कि मैं इसे जान नहीं पाया। सबसे बड़ा दुर्गुण तो बिल्कुल बता नहीं पाऊँगा। मुझमें अनेक दुर्गुण हैं, उसमें से कोई किसी से छोटा नहीं है।

*वे कौन से क्षण होते हैं जब आप अपने आपको उन्मुक्त और प्रसन्न महसूस करते हैं?
अकेले हँसना मुझे पागलपन लगता है, जो देखेगा वह ऐसा ही सोचेगा लेकिन अकेले रो लेना मुझे ठीक लगता है, कि कोई देख तो नहीं रहा है पर अभी मुझे ऐसा लगने लगा है कि यह समूह में बैठकर रोने का समय है। अपने जैसों के साथ मिल-बैठकर रो भी लेना चाहिए। जब कोई दूसरा साथ में हो और साथ में होने के कारण उन्मुक्त और प्रसन्न होता है। उसी क्षण मैं अपने आपको उन्मुक्त और प्रसन्न महसूस करता हूँ।

*जीवन और समाज को अधिक बेहतर बनाया जा सके इसके लिए आप क्या सोचते हैं? क्या आपके पास इसके लिए कुछ सुझाव हैं?
जीवन को ईमानदार और कामकाजी मेहनत का होना चाहिए। अपनी जरूरत को इस तरह कम करे कि वातावरण से बाजार को कम किया जा सके, साथ ही साथ बाजार की सोच को भी। प्रकृति को जस का तस छोड़ देना चाहिए। प्रकृति को नष्ट करने का समय तत्काल समाप्त होना चाहिए और उसे जितना प्राकृतिक बनाया जा सके, बनाया जाना चाहिए। विकास की जो अवधारणा है, उसमें मनुष्य की प्रजाति का नष्ट होना अंतिम परिणाम है। एक पत्थर का टुकड़ा भी नष्ट न हो। घास का तिनका भी। हरी घास की पत्ती भी। इसी से मनुष्य का जीवन और समाज बेहतर होगा।

*'नौकर की कमीज' आपका पहला उपन्यास है। यह किस दौरान लिखा और वह कब प्रकाशित हुआ?
'नौकर की कमीज' उपन्यास मैंने मुक्तिबोध फेलोशिप में 1976 में लिखा था। यदि यह फेलोशिप मुझे नहीं मिलती तो मैं उपन्यासकार कभी नहीं हो पाता। इस उपन्यास का अनुवाद भारत की कुछ भाषाओं में हुआ है। अंग्रेजी और फ्रेंच में भी हुआ है। नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया के साथ करीब 12-15 साल पहले भारत की सभी भाषाओं में अनुवाद का अनुबंध हुआ है लेकिन 'नौकर की कमीज' के इन अनुवाद की कार्यवाही बहुत धीमी रही। संभवतः उनके द्वारा चार-पाँच भाषाओं में ही अनुवाद हुए हैं। इसका मराठी में भी अलग से अनुवाद हुआ है। बंगला, पंजाबी, गुजराती में भी संभवतः।

*आपने कभी अपने उपन्यास के पात्रों से बातें भी की है या अपने आप से बात की है? सामान्यतः उपन्यास के पात्रों का चरित्र वैसा ही रहता है जैसा आप सोचते हैं या कभी-कभी बदल भी जाता है?
मेरे उपन्यास के पात्र गढ़े हुए होते हैं, जो जाने-पहचाने पात्रों के समीप होते हैं। एक स्थिति तक पात्र लेखक की इच्छा से चलता है,जब तक अपने पात्रों के साथ पूरी तरह परिचित नहीं हो जाता। जब लेखक का पात्र के साथ परिचय हो जाता है, तब पात्र लेखक से स्वतंत्र हो जाता है। इस स्वतंत्रता के बाद पात्र जो पहले लेखक के पीछे चलता रहा, बाद में पात्र के पीछे चलता है। कई बार लेखक पात्र के पीछे इतने दबे पाँव चलता है कि पात्र को पता ही नहीं चलता कि लेखक उसके पीछे है। इतनी स्वतंत्रता पात्र को होती है।

* 'नौकर की कमीज" उपन्यास पढ़ते हुए लगता है, 'कमीज' उस कू्र व्यवस्था की प्रतीक है जिसमें बेगारी प्रथा चरम पर है। संवेदनशील अफसरशाही के शिकंजे में संतू बाबू जैसे हजारों लोग मजबूरी में कुढ़ते रहते हैं।
'नौकर की कमीज' में संतू बाबू को साहब के द्वारा 'कमीज' जो एक निर्धारित नौकर के नाप-जोख से नौकरों के लिए अपेक्षित पहनावा था। संभवतः जो नौकरशाही की संतुष्टि के जादू की तरह था। उपन्यास में यह केंद्रीय स्थिति है, जिसे अंत में संतू बाबू द्वारा खुद तथा बड़े बाबू जो नौकरशाही के पहरेदार की तरह लगते थे, 'कमीज' को तार-तार कर उनके द्वारा नाटकीय तौर पर जला दिया है, जिसका ताना-बाना उपन्यास 'नौकर की कमीज' में बिखरा हुआ है।

*आपको अपने तीनों उपन्यासों 'नौकर की कमीज', 'दीवार में एक खिड़की रहती थी', 'खिलेगा तो देखेंगे' में कौन सा उपन्यास अधिक प्रिय है और क्यों?
तीनों उपन्यासों में 'खिलेगा तो देखेंगे' उपन्यास को अपने सबसे अधिक समीप पाता हूँ। तीनों उपन्यास को एक ही उपन्यास माना जाना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है। 'दीवार में एक खिड़की रहती थी', इसको पहला हिस्सा मानना चाहिए और इसी कड़ी का दूसरा हिस्सा 'नौकर की कमीज' को मान लें, और तीसरा 'खिलेगा तो देखेंगे'।

'खिलेगा तो देखेंगे' उपन्यास को सुधीश पचौरी ने उत्तर आधुनिक उपन्यास के रूप में आलोचना की पहल की। इस कारण से वह अधिकांश आलोचकों की दृष्टि से बाहर हो गया लेकिन ऐसा मेरा मानना नहीं है। मेरा तो हमेशा यही मानना रहता है कि किसी की दृष्टि में आना और नहीं आना यह संयोग अधिक है। आलोचना के रास्ते में ज्यादातर रचनाएँ किनारे के पेड़ की तरह नहीं होतीं।

रचनाएँ रोड़े की तरह होती हैं लेकिन मुश्किल यह है कि आलोचना के बनाए रास्ते पर पाठक नहीं चलते, लेखक तो चलता है लेकिन जाने-पहचाने रास्ते पर खड़ा हुआ पत्थर जाना-पहचाना रोड़ा ही होता है, इसलिए लेखक को चोट नहीं लगनी चाहिए। और लेखक को तो बिल्कुल ही नहीं। मैं आलोचना में पड़े हुए अपने रोड़े को अपने हाथों से उठाकर किनारे रख देता हूँ, ताकि आँख मूँदकर चलने वालों को भी ठोकर न लगे पर अपने लेखन के लिए मैंने अपनी आँखें कभी बंद नहीं की है।

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