कहानी : जन्म और मृत्यु से परे मैं कौन हूं

कल कक्षा ग्यारहवीं में मैं स्वामी रामतीर्थ की कविता 'waves on the sleepless sea' पढ़ा रहा था। इस कविता में प्रकृति स्वयं अपने बारे में कथ्य कहती है कि वो कौन है। प्रसंग के अनुरूप छात्रों को मैं प्रकृति के बारे में विस्तार से बता रहा था उसी समय एक जिज्ञासु छात्र ने प्रश्न किया।
 
'सर ये प्रकृति क्या है?' मैंने उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए उत्तर दिया, 'इस सृष्टि में जो जड़ और चेतन है, वही प्रकृति है।'अब इसी उत्तर में से दूसरा प्रश्न छात्रों के मन में कौंधा और एक छात्र खड़ा हो गया, 'सर ये जड़ और चेतन क्या होता है? और सर हम लोग जड़ हैं या चेतन?' 
 
'जिसमें चेतना की ऊर्जा होती है, जो महसूस कर सकता है और किया जा सकता है वह चेतन है और जो स्थिर हो जिसमें चेतन न हो वह जड़ कहलाता है। जैसे तुम सभी चेतन हो और जो पीछे की बेंच पर सिर झुकाकर सो रहे हैं, वो सब जड़ हैं।' मैंने पीछे की बेंच के छात्रों की ओर इशारा किया, जो बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे।मेरे इस उदाहरण ने सारी कक्षा को ठहाकों से भर दिया और जो पीछे बैठे छात्र ऊंघ रहे थे वो सजग हो गए।
 
 
प्रकृति से चर्चा शुरू होकर मानव और मनोविज्ञान पर चर्चा केंद्रित हो गई। उसी समय एक दार्शनिक छात्र ने प्रश्न कर दिया, 'सर, हम लोग कौन हैं?'उसके इस प्रश्न पर पूरी कक्षा हंसने लगी। मैंने उसकी जिज्ञासा को मनोवैज्ञानिक ढंग से शांत किया। मैंने मानव की उत्पति से लेकर आज तक के विकास क्रम को सिलसिलेवार उन्हें समझाया। सभी छात्र बड़ी उत्सुकता से मेरे व्याख्यान को सुन रहे थे। कालखंड समाप्त हुआ और सभी छात्र मुझे बहुत संतुष्ट लगे किंतु न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं उस छात्र के प्रश्न का सही उत्तर नहीं दे पाया हूं।विद्यालय के बाद घर पहुंचा लेकिन वह प्रश्न मेरे मन-मस्तिष्क में उलझनें बढ़ा रहा था, बार-बार कौंध रहा था कि 'मैं कौन हूं?' 
 
शाम के भ्रमण के समय भी वही प्रश्न कौंधता रहा लेकिन कहीं से भी उत्तर नहीं मिला। रात को लैपटॉप खोलकर बैठा तो पाया कि इस विषय पर इंटरनेट अपार-असंख्य मीमांसाएं पड़ी हुई हैं। सबके अपने-अपने विश्लेषण हैं। प्रश्न सुलझने की जगह उलझता जा रहा था। मैंने लेपटॉप बंद किया और बाजू में अखंड नींद में सोती अपनी पत्नी का शांत चेहरा देखा, जो शायद मुझसे कह रहा था जितना जानने की कोशिश करोगे उतने ही उलझते जाओगे।
मैं चुपचाप आंखें बंद करके लेट गया किंतु वह प्रश्न मेरे मस्तिष्क में बिंध गया था, जो मुझे छोड़ने के नाम ही नहीं ले रहा था। 

सोचते-सोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।स्वप्न शुरू हो चुका था। मैं एक विशाल पर्वत के ऊपर स्थित मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था। चारों ओर सुन्दर वन आच्छादित थे। ठंडी, मधुर व सुगंधित वायु बह रही थी। असंख्य सीढ़ियां चढ़ने के बाद मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचा तो देखा विशाल और भव्य लकड़ी का दरवाजा था। मुख्य दरवाजे को पार कर मंदिर प्रांगण में दाखिल हुआ तो देखा एक बहुत सुन्दर तालाब था जिसमें चारों और विभिन्न प्रकार की पुष्प वाटिकाएं असंख्य पुष्पों से सुशोभित थीं।
 
 
प्रांगण में बहुत विशालकाय घंटे लटक रहे थे। प्रांगण को पार करता हुआ मैं गर्भगृह की ओर बढ़ रहा था। मंदिर में चारों और बहुत सुन्दर मूर्तियां पत्थर पर उत्कीर्ण थीं। गर्भगृह के सामने पहुंचकर मैं स्तब्ध रह गया। मां भद्रकाली की बहुत ही अवर्चनीय सुन्दर प्रतिमा मुझ से साक्षात थी। मैं उस मूर्ति को देखकर समाधिस्थ हो गया।
 
कुछ समय पश्चात मैं उस गर्भगृह की परिक्रमा करके मुड़ा तो देखा कि तालाब के किनारे एक पर्णकुटी बनी हुई थी। अनायास ही मेरे कदम उस सुन्दर पर्णकुटी की ओर मुड़ गए। मैं उस पर्णकुटी के दरवाजे पर पहुंचा ही था कि एक ब्रह्मनाद-सी आवाज से वह वातावरण गुंजायमान हो गया, 'आओ विराट, आने में बहुत देर लगाई?'
 
 
उस आवाज के आदेश पर मैं यंत्रवत उस पर्णकुटी में प्रवेश कर गया। मैंने देखा कि उस पर्णकुटी के दक्षिणी हिस्से में एक सुन्दर स्वर्ण चौकी पर एक मृगछाल बिछी है जिस पर एक गौरवर्ण करीब 90 वर्ष की आयु का एक भव्य व्यक्तित्व विराजमान है। मस्तिष्क और दाढ़ी के केश चांदी जैसे धवल चमक रहे थे। आंखें हल्की लालिमा लिए हुई थी। मैंने यंत्रवत उस दिव्य व्यक्तित्व के चरणों में साष्टांग दंडवत किया। 'उठो विराट, बहुत समय के पश्चात मेरा ध्यान किया तुमने?', मैं अचकचा गया। मुझे लगा कि मेरा नाम तो सुशील है, ये मुझे विराट क्यों बुला रहे हैं?'तुम्हारे शरीर का नाम बदला है, मेरे और तुम्हारे संबंधों का नहीं।' जैसे उन्होंने मेरे मन का प्रश्न पढ़ लिया हो। मैं समझ गया कि ये कोई महान संत हैं जिनका मेरे किसी न किसी जन्म से रिश्ता है। 'स्थान ग्रहण करो', एक भव्य आवाज गूंजी। 'आपके श्रीचरणों में मेरा सादर अभिवादन', मैं उनकी पादुकाओं के समक्ष बैठ गया।

 
'कोई प्रश्न तुम्हें मुझ तक खींच लाया है।' मुझे लगा ये मेरे रोम-रोम से परिचित हैं।'जी गुरुवर।' मैंने संपूर्ण समर्पण से कहा।'तो प्रश्न करो।' गुरुदेव ने गहन गंभीर आदेश दिया।'गुरुदेव मैं कौन हूं?', मैंने उस प्रश्न को इतने जल्दी गुरुवर की ओर उछाला, जैसे वो बहुत बड़ा बोझ हो।एक अजीब-सा अट्टहास उस भव्य व्यक्तित्व ने किया फिर वो मुस्कुराए, 'ये प्रश्न हर उस व्यक्ति को व्यथित करता है, जो इसे जानने का प्रयास करता है।''गुरुवर, मैं बहुत व्यथित हूं। जितना जानने की कोशिश कर रहा हूं उतना उलझता जा रहा हूं। उत्तर की जगह और कई प्रश्न खड़े हो गए हैं।' मैंने बहुत कातर स्वर में कहा।'इस प्रश्न के दो भाग हैं। विराट पहला हिस्सा है मैं और दूसरा हिस्सा है कौन हूं। तुम्हें पहले इस 'मैं' को समझना पड़ेगा तब तुम 'कौन हूं' तक पहुंचोगे।

गुरुजी ने बड़े वात्सल्य से मुझे समझाया।'तुम्हें पता है ये 'मैं' क्या है और 'कौन हूं?' क्या है? उन दिव्य महाशय ने मुझ पर दृष्टिपात करते हुए कहा।उनके इस अचानक प्रश्न ने मुझे अचकचा दिया, 'जी नहीं', मेरे मुंह से निकला।'क्या ये शरीर जो मेरे सामने है तुम हो या ये जो नाम कभी विराट, कभी सुशील, ये तुम हो।' उन्होंने प्रश्न को और अधिक विस्तारित किया।'जी ये शरीर नाम, जाति, गुण, संस्कार, कार्यव्यवहार, प्रकृति आदि मिलकर कर 'मैं' बनता है। मैंने अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया।'नहीं', एक भव्य आवाज गूंजी जिसने मुझे अंदर तक कंपा दिया।
 
'शरीर+इन्द्रिय+प्राण+मन+चित्त+बुद्धि के साथ 'स्व' (आत्मा) 'मैं' कहलाता है और इन सब से रहित 'स्व' (आत्मा) ही 'कौन हूं?' का उत्तर है।' गुरुदेव के उत्तरों से मेरे मन पर पड़े अज्ञान के बादल धीरे-धीरे छंट रहे थे। इन सबसे हटकर जो चेतन है वही 'स्व' या हमारा असली स्वरूप है।'किंतु उस चेतना 'स्व' का स्वभाव क्या है?' मैंने उत्सुकतापूर्वक प्रश्न किया।'सत्य, आनंद, ऊर्जा और अस्तित्व उस चेतना का वास्तविक स्वभाव है।' गुरुवर ने बहुत गंभीरता से उत्तर दिया।'ऋषिवर, हमें इस 'स्व' का ज्ञान कैसे होगा?' मैंने अपने अंदर उबलते प्रश्न को उनके सामने उड़ेल दिया।
 
 
'हमारे अंदर का 'मैं' जो इस संसार को अपने में समाहित किए हुए है, जब वह 'मैं' तिरोहित होगा तब हमें अपने वास्तविक स्वरूप 'स्व' का ज्ञान होता है। आचार्य ने बहुत सरलीकृत करके मुझे संतृप्त किया। लेकिन मेरी प्रज्ञा निरंतर प्यास दर्शा रही थी।'परम गुरुवर, हमारे अंदर का 'मैं' और उसमें व्याप्त संसार कैसे तिरोहित होगा?' मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा।'जैसे रेगिस्तान में मृग-मरीचिका होती है हम उसे पाने के लिए दौड़ते जाते हैं और वह हमसे दूर भागती जाती है, जैसे रस्सी को सर्प समझकर उसका डर मन में भर जाता है, वैसे ही इस मिथ्या संसार को सही मानकर ये 'मैं' उसमें रम जाता है। जब तक ये गलत विश्वास हमारे 'स्व' से नहीं हटेंगे, तब तक ये संसार में लिप्त 'मैं' बना रहेगा और 'कौन हूं?' का उत्तर कभी नहीं मिलेगा।'

 
थोड़ी देर उन्होंने आंखें बंद की व ध्यानस्थ अवस्था में उन्होंने फिर बोलना शुरू किया। 'जब हमारा मन जो 'मैं' का मुख्य घटक है सारी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं और इन्द्रियों का संचालक है, शून्य नहीं होगा तब तक यह स्थूल जगत हमारे अस्तित्व से ओझल नहीं होगा और तब तक हमारे वास्तविक रूप 'स्व' का ज्ञान असंभव है।'मैं यंत्रवत उनके इस आख्यान को मंत्रमुग्ध सुन रहा था। इस मन को लेकर मेरे मन में बहुत प्रश्न थे। मैंने उन आचार्य से प्रश्न किया', प्रभु ये मन क्या है? और इसकी प्रकृति क्या है?'

 
आचार्य ने मुस्कुराते हुए कहा, 'बहुत सारे प्रश्न लाए हो विराट! क्या पता तुम्हें संतुष्ट कर पाऊंगा या नहीं? यह मन हमारे 'स्व' में स्थित होता है। इसका मुख्य कार्य विचारों को उत्पन्न करना होता है और उन विचारों को क्रियान्वित कराना ही इसका स्वभाव होता है। चित्त, बुद्धि और मस्तिष्क इसके मुख्य घटक हैं। ये सारे मिलकर हमारे 'स्व' (आत्म) को आच्छादित कर उसके मूल स्वरूप को परिवर्तित कर देते हैं। यही मन की प्रकृति या स्वभाव है।' मैं मंत्रमुग्ध होकर इन गूढ़ रहस्यों से परिचित होता जा रहा था। 

 
मैंने मन को और विस्तार से जानने के लिए प्रश्न किया, 'आचार्य इस मन को शून्य कैसे करते हैं?' 'जब हम अपने स्व को ढूंढते हुए प्रश्न करते हैं कि 'मैं कौन हूं?' उस समय मन से जगत के विचार तिरोहित होने लगते हैं और जब बार-बार यह प्रश्न अपने स्व से किया जाता है तो बाकी के सभी विचार मन से निकल जाते हैं और हमारा मन सिर्फ एक विचार पर केंद्रित हो जाता है कि 'वह कौन है?'। धीरे-धीरे इसी बिंदु से मन तिरोहित होकर स्व के ऊपर से अपना आवरण छोड़ देता है और इस प्रश्न 'मैं कौन हूं' के उत्तर के रूप में प्रकाशित हो जाता है।'

 
गुरुवर की इस व्याख्या ने मेरे मन के सभी प्रश्नों का उत्तर दे दिया था फिर भी मैंने अपना अंतिम प्रश्न उनसे किया, 'प्रभु ये ज्ञान या समदृष्टि क्या है?' 'जब 'मैं' 'स्व' में विलीन हो जाता है तो सारी इच्छाओं का अंत हो जाता है और यही समदृष्टि या ज्ञान कहलाता है', आचार्यवर ने मुस्कुराते हुए मेरी सारी शंकाओं का निराकरण कर दिया।मैं यंत्रवत उनके चरणों में साष्टांग दंडवत करने के लिए लेट गया। उसी समय उन्होंने मेरे मस्तिष्क के बीचोबीच अंगूठा रखा। 
 
एक बिजली का झटका लगा और मेरा पूरा शरीर हवा में झूल गया। मैंने घबराकर उन महान आचार्य की ओर देखा। उनके चेहरे पर वात्सलयमयी मुस्कराहट थी। वे बोले, 'जाओ विराट और अपने प्रारब्ध को जीओ और जिस हेतु तुम्हें शरीर मिला है उन कर्तव्यों का पालन करो।'मैं देख रहा था कि मेरा शरीर हवा में उड़ता हुआ उस पर्वत शिखर से नीचे की ओर आ रहा था फिर एक धड़ाम की आवाज से मैं नीचे जमीन पर गिरा व हड़बड़ाकर जैसे ही आंखें खोलीं तो देखा बिस्तर के पास की छोटी टेबल के ऊपर रखा गिलास नीचे गिरा था। मेरा पूरा शरीर पसीने से लथपथ था। सुबह के चार बज रहे थे।
 
 
मेरी पत्नी भी उस गिलास के गिरने की आवाज से अचकचाकर उठ बैठी व मुझे उसी हालत में देखकर बोली, 'अरे क्या हुआ! कोई बुरा स्वप्न देखा क्या?''कुछ नहीं, तुम सो जाओ', मैंने अपने आपको संभालते हुए कहा। उस समय मैं अपने उस स्वप्न के बारे में सोच रहा था और तय नहीं कर पा रहा था कि ये स्वप्न था या सच्चाई?उन महान आचार्य के एक-एक शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे। एक बड़ा प्रश्न मेरे जेहन में घूम रहा था कि वो मुझे विराट क्यों कह रहे थे?
 
उस दिन विद्यालय पहुंचकर मैं उस कक्ष जिसमें आचार्य रजनीश बैठकर बचपन में पढ़ते थे अपने कालखंड में पहुंचा और छात्रों के उस प्रश्न 'सर हम कौन हैं?' का उत्तर उन्हें समझा रहा था। मैं उनको मन, चित्त, बुद्धि, प्रज्ञा आदि कठिन विषयों को सरलीकृत करके समझा रहा था।अचानक सामने की दीवार पर ओशो की एक बहुत बड़ी तस्वीर जिसमें वो अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए थे, पर मेरी नजर अटक गई जिस लिखा हुआ था, 'मैं जो न कभी जन्मा था, न जिसकी कभी मौत हुई।'

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