हिन्दी कहानी : गुलाबी शॉल...

मां की तबियत अचानक से खराब हो गई। खबर सुनकर पतिदेव के ऑफिस में कॉल कर, टिकिट बुक करने को कहा। कन्फर्म टिकिट नहीं मिल रही, जब मिल जाएगी चली जाना, उन्होंने समझाना चाहा। किन्तु मैं नहीं मानी। मुझे तो बस आज ही जाना है, कहकर फोन रख...आनन फानन में कुछ सामान बटोर, सूटकेस तैयार किया। 
जाड़े के दिन थे, सो एक ओवर कोट पहन, उसके ऊपर अपनी पसंदीदा 'गुलाबी शॉल' डाल ली।
शाम 5 बजे ट्रेन थी। स्टेशन पहुंची तो ट्रेन आ चुकी थी...। भागती हुई जो डिब्बा सामने दिखा, उसमें चढ़ गई। किस्मत से ट्रेन में एक खाली सीट भी दिख गई...। सोचा इसी में बैठ जाऊं, जब कोई आएगा, तब देखूंगी,क्या करना है।
 
खिड़की के बाहर अचानक प्लेटफार्म पर एक छोटे बच्चे को देखा, जो मैले-कुचैले फटे कपड़ों में ठंड में ठिठुर रहा था।
ट्रेन खड़ी थी। मन किया, अपनी शॉल उसे ओढ़ा दूं...। फिर लगा, ट्रेन न चल पड़े...। सामने सीट पर बैठे पैसेन्ज़र से पूछा, तो बताया कि - "अभी तो टाइम है,10 मिनिट बाद ही ट्रेन चलना शुरू होगी। आज बिफोर आ गई है"। ओह, अच्छा!! कहकर फिर खिड़की से उस बच्चे को देखा।
 
अपनी गुलाबी शॉल कंधे से उतारी, हाथ में ली। अचानक से याद आया, अरे!! यह तो वही शॉल है जो हनीमून पर शिमला की मॉल रोड से पतिदेव ने खरीदा था और कैसे स्नेह से कांधे पर ओढ़ा दिया था...।मधुर स्मृति में खोकर उस शॉल को, बच्चे को ओढ़ाने का इरादा बदल दिया...। बच्चे पर तरस भी बहुत आ रहा था...। लेकिन खुद को समझाती रही...।कितने लोग आ जा रहे है, कोई न कोई सुध ले ही लेगा और उसकी मां भी तो होगी। यहीं-कहीं भीख वीक मांग रही होगी। वही आकर संभाल लेगी!!
तभी ट्रेन चल पड़ी। नजरें खिड़की के बाहर उस बच्चे को देखती रही...।ट्रेन ने स्पीड पकड़ी तो वो बच्चा भी आंखों से ओझल होता चला गया।
अगले दिन सुबह मां के पास पहुंचकर उनकी सेवा सुश्रुसा में जुट गई। गाहे-बगाहे वो प्लेटफॉर्म वाला बच्चा याद आ जाता...। जब भी गुलाबी शॉल को देखती ओढ़ने का मन न करता...मन में 'आत्मग्लानि' सी होने लगती। "कैसे इतनी स्वार्थी बन गई ??"
 
एक शॉल न दे सकी उस गरीब को...।ऐसे तो जाने कितने तीज-त्यौहार, जप-तप, पूजा-पाठ करती हूं। खूब दया भाव भी रखती हूं। फिर भी कितना मोह कर बैठी इस शॉल से?? सुधीर तो मुझे सुंदर से सुंदर और भी शॉल दिला सकते हैं...मैं भी न सच मेंबहुत छोटे दिल की निकली...।
 
अक्सर घूम फिर कर वह बच्चा स्मरण हो आता... सोच-विचार कर निश्चय किया कि -"चाहे जो हो, वापसी में स्टेशन पर रुककर पक्का उस बच्चे को शॉल दे ही दूंगी"। शायद !!तब जाकर ही कलेजे में ठंडक मिलेगी...। आखिर! वह दिन भी आ गया, जब वापिस नागपुर स्टेशन पहुंची। शॉल को ऊपर ही निकाल कर रख लिया। पतिदेव स्टेशन लेने आए थे...उन्हें बताया, तो वे भी मेरे साथ बच्चे को ढूंढने लगे। बच्चा कहीं दिखाई न दिया...। कुछेक स्टॉल वालों से पूछा तो वे हैरत में देखते,फिर मना कर देते...। पतिदेव ने झिड़की दी," तुम भी न, थकी हारी आई हो, इतना बड़ा स्टेशन है, जाने कहां होगा वह...?"
 
अभी घर चलो, फिर शॉल देने आ जाएंगे। मैंने तो जैसे संकल्प कर रखा था, किसी भी हाल में आज ही शॉल देना है। पतिदेव की सारी कोशिशें नाकाम।
थक हार कर सामान 'क्लॉक रूम' में रखा। सारे प्लेटफार्म में ढूंढते रहे, पर वो बच्चा कहीं न मिला और न ही किसी से उसकी कोई जानकारी मिली। थक हारकर उदास मन से अन्ततः सामान उठाकर घर आ गए...।
 
समय बीतता गया। जब कभी भी हमारा स्टेशन जाना होता, आंखे उस बच्चे को ही खोजती। पर वो दोबारा कभी न दिखा। लगभग एक साल बाद हमारा ट्रांसफर हो गया। नागपूर से बनारस शिफ्ट होना पड़ा। हर साल 'जाड़ा' आता सारे वुलन के कपड़े 'धूप' दिखाती, अपनी उस "गुलाबी शॉल" को देख मन दुःख सा जाता...।उसे छूती तो, जो कोमल अहसास पहले हुआ करता, अब न होता। हां!!मन में 'टीस' जरूर उठती...उस शॉल को इतने सालों में फिर कभी ओढ़ ही न पाई। कई बार निकाला भी, पर मन ही न किया। वापस तह करके अलमारी में रख देती, वहीं पड़ी रहती...।
 
बनारस में हम अस्सी घाट पर शाम को अक्सर ही जाया करते...। सीढ़ियों में बैठ, गंगा के पानी को घंटो निहारने में बड़ा सुकून मिलता। एक दिन एक पागल-सी औरत को, कटे-फटे चीथड़ों में लिपटी, ठंड की सिरहन से ठिठुरते देखा। पतिदेव से कहा-- "सुनो न, मैं घर जाकर आती हूं, आप इस पगली को देखते रहना, कहीं चली न जाएं" "क्यों क्या हुआ? "बस घर जाकर आती हूं...।" 
 
"तुम भी न शशि, जाने क्या सनक सवार हो जाती है"...।"हद करती हो यार!!घूमने आर्ई हो तो बैठो न शांति से...।" पतिदेव ने झिड़की दी।
"प्लीज-प्लीज हाथ जोड़कर विनती करती हूं...बस यूं गई और यूं आई...। मान भी जाओ न", कहकर, जल्दी से ऑटो की ओर भागी, ऑटो में बैठ...ऑटो वाले को पहले ही हिदायत दी "भईया घर जाकर तुंरत ही वापस घाट आना है, सो घर के बाहर इंतजार करना "! मैं जल्द ही आ जाउंगी...।
 
घर के सामने ऑटो रुकवाकर, कहीं भाग न जाए डर से, बिना पैसे दिए, तेज कदमों से घर जाकर सीधे आलमारी से "गुलाबी शॉल" निकाली और जल्दी से ऑटो में बैठ गई...। मन ही मन भगवान को मनाती रही बस वो 'पगलिया' मिल जाए...निकल न जाए कहीं...!! इनका क्या भरोसा, रोके न रोके...! झुंझला जो रहे थे....हे गंगा मैया !! पगलिया मिल जाए तो एक सौ एक दीपक छोडूंगी आज ही..सच्ची में...।
 
घाट पहुंची, तो देखा !! पतिदेव उस पगलिया से थोड़े दूर पर ही बैठे थे...। वो पगलिया मजे से कचौरी खा रही थी...। पास गई और झट से पूरी शॉल को खोलकर उसे ओढ़ा दिया...वो तो बेसुध सी कचौरी खाने में मगन थी...।
मैं बड़ी तसल्ली के साथ, जैसे जंग जीत ली हो,पतिदेव के पास पहुंची... वो देखकर मुस्कुराते हुए बोले- "देखो !रोक रखा था न, तुम्हारी उस 'अमानत' को"...।
"कचौरी भी लाकर दी, ताकि रुकी रहे।" मेरी आंखों में आंसू आ गए...। दुलार करते हुए उन्होंने कंधे को पकड़ मुझे संभालते हुए कहा - "चलो गंगा जी में पृच्छालन कर लें "। गंगा जी के करीब ले गए.... मन शांत सा हो गया। अपूर्व आनंद की अनुभूति हुई...। लगा जैसे वर्षों से सीने पर रखा बोझ हट गया...किसी ऋण से मुक्त हो गई...।
 
"कुछ कहोगी नहीं...??" "इतनी ख़ामोश क्यों हो गई"?? पतिदेव की बात सुन, धीरे से कहा- "सुनो न, एक सौ एक दीपक प्रज्जलवित कर गंगा में प्रहावित करना है "।
 
"एक सौ एक"?? आश्चर्य से पतिदेव बोले, हां पूरे "एक सौ एक" ...आज ही...अभी..। पतिदेव ने जैसे भेद समझ लिया हो, ...हंसकर कहा- "मेरी पगलिया"...।

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