-डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
वृद्धाश्रम के दरवाजे से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलटकर खोजी आंखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, 'क्या हुआ?'
उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, 'अंदर कुछ भूल गया…।'
पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, 'अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फर्ज तो अदा कर ही दिया है, चलो…' कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़कर उसे कार की तरफ खींचा।
'ओह!' पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, 'जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूं, उससे जल्दी मिल जाएगा।'
वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे।
पिता ने उसे पलभर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, 'बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया… जानवर है ना!'
डबडबाई आंखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, 'जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है… वे उनके पास भागते हुए पहुंच ही जाते हैं…।'