हि‍न्दी कहानी : बन्दी...

अंडमान में 'सेल्यूलर जेल' का कोना कोना घूमकर और 'लाईट एंड साउंड शो' में जेल में बंदी रहे, देश के वीरों के संघर्षों व बलिदानों की गाथा, खूंखार जेलर डेविड बेरी द्वारा किए गए अमानवीय बर्ताव, ढाए गए जुल्मों की दास्तां सुन, मन विषाद से भर गया, आंखें डबडबा गई.. मन भारी हो, द्रवित होने लगा। कितना दुरूह था जेल का जीवन ...उफ !!! कितनी कुर्बानियों और न जाने कितनी कीमतें चुकाकर, किन शर्तों पर, हमें आजादी मिली...।

 
सैल्यूलर जेल में पूरा दिन ही निकल गया था...रात तक। मन और शरीर दोनों ही थक कर चूर चूर हो गए...।
होटल पहुंचने पर खाने का मन न किया। ...ऐसे ही निढाल शरीर बेड पर लुढ़क गया...।
देर रात मुझे लगा, मेरे कदम सेल्यूलर जेल की ओर तेजी से बढ़ रहे है...घनघोर अंधेरा....अमावस की रात हो जैसे...। मेरे बढ़ते कदम सीधे कोठरी (बैरक) नंबर 26 के सामने रुक जाते हैं....घुप्प अंधेरे में, सलाखों के पीछे...। एक सख्त-सी आवाज सुनाई देती है...।
"आ गई तुम....."
मैं डर सी जाती हूं...."क ...कोउ कौन??"
"मैं हूं....'बंदी'..."
"मुझे दिखाई नहीं दे रहे..."
"क्या करोगी, मुझे देखकर?"
"मुझसे बातें करो बस..."
"बोलो.... क्या कहना चाहते हो??"
"क्या तुम, पता कर सकोगी, मेरे अतीत के बारे में"
"कौन हूं, कहां से लाया गया हूं यहां...?"
"मतलब ? तुम्हें नहीं पता? तुम कौन हो?"
"हां! नहीं पता, तभी तो तुमसे कह रहा हूं...।"
"मैंने जिस दिन आंखें खोली,..होश आया, तो बस इस काल कोठरी में खुद को कैद पाया...।"
सलाखों के आगे सलाखें...। 
पांच कदम पीछे और पांच कदम आगे, पांच कदम दाएं और पांच कदम बाएं..., इतना ही विस्तार है इस बंदीगृह का..।
सामने वाली कोठरी की सलाखों के पीछे भी घोर सन्नाटा...।
 
एक प्रहरी, आता है, अंधेरे में ही मुझे अपने साथ ले जाता है।
शौच, स्नान इत्यादि करवाकर वापस इस कोठरी में डाल देता है...।फिर आता है, दोनों जून का खाना,पानी डालकर फिर चल देता है...।
कई बार उस से बात करना चाहा, पर जाने क्यों, वो मेरी किसी भी बात का जवाब नहीं देता, चुपचाप चला जाता है...।
 
कभी-कभी सूरज की किरणों की हल्की-सी चमक सामने वाली सलाखों पर दिख जाती है...। वह न जाने क्यों, पर बड़ा सुकून देती है...।
हर निश्चित अंतराल पर, घंटे की ध्वनि से समय का अनुमान करता हूं...। कई दिनों तक भीषण गर्मी से यह कोठरी भट्ठे की तरह जलती है, तो कई-कई दिनों तक, सर्द हुआ करती है...। कभी-कभी दीवारों में पानी रिसता है...फिर लंबे समय तक सीलन की बदबू जीना दूभर कर देती है...।
 
पैरों की बेड़ियों की जकड़न...कस-कसाहट कभी-कभी बहुत पीड़ा देती है, तो कभी...वो ही पैरों को सहलाती है। शरीर की ऊबड़-खाबड़ धारियां, घाव के निशान, सहलाता हूं...खरोंचता हूं, रक्त के रिसाव को घूरता हूं, पर इनकी व्यथा को नहीं जान पाता...। दिमाग पर बहुत जोर डालता हूं... इंद्रियां बेजान-सी, साथ नहीं देती...। तीव्र पीड़ा के आलावा कुछ नहीं पाता...।
 
कभी-कभी, धुंधली-सी परछाईयां बनती-मिटती हैं जेहन में, पर कोई भी अपना पूरा आकार नहीं बना पाती...। लगता है सब विस्मृत हो गया...हर कोशिश नाकाम-सी लगती....कोई भी स्मृति शेष नहीं...।
 
एक बाल्टी, एक थाली, एक कटोरा, एक लोटा...मेरे पैरों की बेड़ियां...इस बंदीगृह का सन्नाटा और ...मैं...।
वर्षों से हम साथ जी रहे हैं....पल-पल में युग बीत रहा...जाने कितने युग बीत गए...।
शून्य को एकटक घूरती मेरी निगाहें....सवाल करती हैं।
 
जाने कितनें वर्षों से...पड़ा हुआ हूं यहां...और कब तक के लिए...???
कई बार शरीर की धमनियों में बहता लहू उबलने लगता, हाथों की शिराएं छटपटाती...सलाखों को भुजाओं से खींचता हूं ...बंधनमुक्त होने का भरसक प्रयास कर असफल हो छटपटाता रहता हूं...।
 
मन की रिक्तता, विचारों की शून्यता, शरीर की पीड़ा, दीवारों से सिर पीट-पीटकर...जान देने के लिए उकसाती है मुझे...सिर पीटता हूं...रक्तभंजित-सा हो जाता हूं....रुकता हूं....फिर सोचता हूं...।
 
"क्या मैंने, जन्मा है स्वयं को, जो कर दूं, अंत अपना..?? "नहीं नहीं...इतना दुर्बल नहीं..." ढांढस देता हूं खुद को बार-बार...। मेरे जीवन का भेद जाने बिना, कैसे निकलेंगे मेरे प्राण...?
 
"बोलो! तुम खोजोगी, मेरे जीवन का रहस्य....??"
मैं झटके से आंख खोलती हूं...होटल के कमरे में खुद को पाती हूं...कुछ समय बाद मेरे कदम, मुझे सीधे सेल्यूलर जेल की कोठरी नंबर 26 के सामने खड़ा कर देते हैं... मैं अंदर झांकती हूं जहां खाली सन्नाटा....अजीब-सी तीक्ष्ण गंध....दीवारों पर आड़ी तिरछी लकीरें....इनके सिवा और कुछ नहीं...।
 
मैं अजीब-सी कश्मकश में उलझी हुई...इधर से उधर दौड़ती हूं...दीवारों के पटल की ईबारतों, पिक्चर गैलरी...की हजारों तस्वीरों में उस बंदी को तलाशती हूं....।
"तस्वीरों के हर चेहरों की आंखों में मुझे वही "वेदना" वही "व्यथा" दिखाई देती है...।"
जेल के बाहर आकर, चारों ओर फैले 'बे ऑफ बेंगाल' के असीम विस्तार, "काले पानी " की ऊंची-ऊंची लहरों में पिक्चर गैलरी के तमाम चेहरों की परछाई को गुम होता देखती रह जाती हूं...।

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