जानिए वट सावित्री व्रत का महत्व
-आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
ज्येष्ठ मास के व्रतों में वट अमावस्या का व्रत बहुत प्रभावी माना जाता है जिसमें सौभाग्यवती स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु एवं सभी प्रकार की सुख-समृद्धियों की कामना करती हैं।
इस दिन स्त्रियां व्रत रखकर वटवृक्ष के पास पहुंचकर धूप-दीप व नैवेद्य से पूजा करती हैं तथा रोली और अक्षत चढ़ाकर वटवृक्ष पर कलावा बांधती हैं, साथ ही हाथ जोड़कर वृक्ष की परिक्रमा लेती हैं जिससे पति के जीवन में आने वाली अदृश्य बाधाएं दूर होती हैं तथा सुख-समृद्धि के साथ लंबी उम्र प्राप्त होती है।
कहा जाता है कि वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति व्रत के प्रभाव से मृत पड़े सत्यवान को पुन: जीवित किया था तभी से इस व्रत को 'वट सावित्री' नाम से ही जाना जाता है। इसमें वटवृक्ष की श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा की जाती है। महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए यह व्रत करती हैं। सौभाग्यवती महिलाएं श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक 3 दिनों तक उपवास रखती हैं।
अमावस्या को एक बांस की टोकरी में सप्तधान्य के ऊपर ब्रह्मा और सावित्री तथा दूसरी टोकरी में सत्यवान एवं सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर वट के समीप यथाविधि पूजन करना चाहिए, साथ ही यम का भी पूजन करना चाहिए। पूजन के अनंतर स्त्रियां वट की पूजा करती हैं तथा उसके मूल को जल से सींचती हैं।
इस दिन चने पर रुपया रखकर बायने के रूप में अपनी सास को देकर आशीर्वाद लिया जाता है। सौभाग्य पिटारी और पूजा सामग्री किसी योग्य साधक को दी जाती है। सिन्दूर, दर्पण, मौली, काजल, मेहंदी, चूड़ी, माथे की बिंदी, हिंगुल, साड़ी, स्वर्णाभूषण इत्यादि वस्तुएं एक बांस की टोकरी में रखकर दी जाती हैं। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है।