बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने कहा कि वाल्मीकि रामायण पर आधारित रामचरित मासन समाज में नफरत फैला रहा है। उन्होंने अपने इस बयान पर माफी मांगने से इनकार करते हुए इसी बात को पुन: दोहराया है। उन्होंने कहा कि रामचरित मानस के कुछ अंश समाज की कुछ जातियों के भेदभाव का प्रचार करते हैं।
दरअसल, भारत में जातिवाद एक कड़वा सच है। इसे समाप्त करने की कभी किसी भी राजा या राजनीतिज्ञ ने कोशिश नहीं की क्योंकि इसी में उनका हित है। मुगल काल में मुगलों ने इसे बढ़ावा देकर भारतीयों को और भी कई तरह की जातियों में बांटा और इसके बाद जब अंग्रेज आए तो उन्होंने मुगलों से कहीं ज्यादा लोगों को बांटकर शासन किया। 'बांटो और राज करो' के सिद्धांत का बड़ा योगदान रहा जो ब्रिटेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति भी करता था।
वर्तमान की राजनीति में भी मुगल और अंग्रेजों की परंपरा जारी है। उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति तो जादिवाद पर ही आधारित है। वहां सत्ता के लिए राजनीतिज्ञ किसी भी हद तक जा सकते हैं। गरीब दलित या ब्राह्मण यह नहीं जानता की हमारी जनसंख्या का फायदा हमें बांटकर उठाया जा रहा है। आजादी के 75 साल में आज भी गरीब गरीब ही है।
जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है, लेकिन यह जातिवाद लोगों को हिन्दुओं में ज्यादा नजर आता है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वह जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं दूसरे देशों में भी होता रहा है।
अब बात करते हैं रामचरित मानस की, जिसे मुगल काल में श्री तुलसीदासजी ने लिखा था। पहली बात तो यह समझ लेना चाहिए कि यह हिन्दू धर्म का धर्मग्रंथ नहीं है। अन्य हिन्दू धर्मग्रंथों के चुनिन्दा उद्धरण देकर हिन्दुओं में व्याप्त तथाकथित जातीय भेदभाव को प्राचीन एवं शास्त्र सम्मत सिद्ध करने का षड़यंत्र गुलामी के काल से ही जारी है। कभी एकलव्य के अंगूठे की बात हो अथवा किसी शम्बूक की दंतकथा हो, श्रवण कुमार की कथा हो या कर्ण की व्यथा हो सभी में जातिवाद ढूंढ लिया जाता है। कथा के आगे पीछे के भाग को छुपाकर और संदर्भों को हटाकर गलत तरीके से यह प्रचारित किया जाता रहा है कि धर्म में जातिवाद शुरू से ही रहा है।
तुलसी दास का एक दोहा है जिसे अधूरा ही पढ़ा जाता है- ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
इसी के हमेशा गलत अर्थ निकाले जाते रहे हैं। कभी इसको अच्छे से समझने के प्रयास नहीं किया होगा। यह भी तय है कि माननीय शिक्षा मंत्रीजी ने न तो पूरी तरह वाल्मीकि रामायण पढ़ी होगी और न ही रामचरित मानस। ऐसे ही तो सभी बगैर पढ़े ही बयान देने में पारंगत हैं। बाद में सफाई देने के लिए गोलमाल जवाब होता है।
अर्थात प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
अब यदि हमारे रामभक्त तुसलीदास जी को यह मालूम होता कि मेरे इस दोहे का कई तरह से अर्थ निकलेगा तो वे संभवत: इस संबंध में सोचते। एक विद्वान व्यक्ति रामभक्त क्यों कर समाज में नफरत फैलाने का कार्य करेगा? क्या तुलसीदासजी इतने अशिक्षित या छोटी भावना के थे जो वे किसी को ऊंचा या नीचे समझकर कुछ लिखते? वे खुद ही उपेक्षित जाती से थे। गोस्वामी समाज की आज क्या हालत है जरा जाकर देखें।
इस प्रकार संपूर्ण चौपाई का अर्थ यह हुआ कि ढोलक, अनपढ़, वंचित, जानवर और नारी, यह पांच पूरी तरह से जानने के विषय हैं। इन्हें जानें बगैर इनके साथ व्यवहार करने से सभी का अहित होता है। ढोलक को अगर सही से नहीं बजाया जाय तो उससे कर्कश ध्वनि निकलती है। अतः ढोलक पूरी तरह से जानने या अध्ययन का विषय है। इसी तरह अनपढ़ व्यक्ति आपकी किसी बात का गलत अर्थ निकाल सकता है। अतः उसके बारे में अच्छी तरह से जानकर ही उसको कोई बात समझाना चाहिए। वंचित व्यक्ति को भी जानकर ही आप किसी कार्य में उसका सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा कार्य की असफलता पर संदेह रहेगा। इसी प्रकार पशु हमारे किसी व्यवहार, आचरण, क्रियाकलाप या गतिविधि से भयभीत या आहत हो जाते हैं और न चाहते हुए भी वे भयभीत होकर हमला कर सकते हैं। असुरक्षा का भाव उन्हें कुछ भी करने पर विवश कर सकता है। अतः पशु को भी भलीभांति जानकर ही उसके साथ व्यवहार करना चाहिए। इसी प्रकार जब तुलसीदासजी ने नारी शब्द का उपयोग किया तो वे भलिभांती जानते थे कि नारी मां, बहन और बेटी भी होती है। लेकिन लोग सिर्फ पत्नी के अर्थ में ही इसे लेते हैं। तुलसीदासजी यहां कहना चाहते हैं कि नारी की भावना को समझे बगैर उसके साथ आप जीवन यापन नहीं कर सकते। ऐसे में आपसी सूझबूझ काफी आवश्यक होती है।