तुलसीदास जी रचित रामचरित मानस में नारियों को सम्मान जनक रूप में प्रस्तुत किया है। जिससे यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: ही सिद्ध होता है। नारियों के बारे में उनके जो विचार देखने में आते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपद काल परखिए चारी।।
अर्थात धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा अति विपत्ति के समय ही की जा सकती है। इंसान के अच्छे समय में तो उसका हर कोई साथ देता है, जो बुरे समय में आपके साथ रहे वही आपका सच्चा साथी है। उसीके ऊपर आपको सबसे अधिक भरोसा करना चाहिए।
जननी सम जानहिं पर नारी ।
तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।।
अर्थात जो पुरुष अपनी पत्नी के अलावा किसी और स्त्री को अपनी मां सामान समझता है, उसी के ह्रदय में भगवान का निवास स्थान होता है। जो पुरुष दूसरी नारियों के साथ संबंध बनाते हैं वह पापी होते हैं, उनसे ईश्वर हमेशा दूर रहता है।
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।
नारी सिखावन करसि काना ।।
अर्थात भगवान राम सुग्रीव के बड़े भाई बाली के सामने स्त्री के सम्मान का आदर करते हुए कहते हैं, दुष्ट बाली तुम अज्ञानी पुरुष तो हो ही लेकिन तुमने अपने घमंड में आकर अपनी विद्वान् पत्नी की बात भी नहीं मानी और तुम हार गए। मतलब अगर कोई आपको अच्छी बात कह रहा है तो अपने अभिमान को त्यागकर उसे सुनना चाहिए, क्या पता उससे आपका फायदा ही हो जाए।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर न सुन्दर ।
केकिही पेखु बचन सुधा सम असन अहि ।।
अर्थात तुलसीदास जी कहते हैं सुन्दर लोगों को देखकर मुर्ख लोग ही नहीं बल्कि चालाक मनुष्य भी धोखा खा जाता है। सुन्दर मोरों को ही देख लीजिए उनकी बोली तो बहुत मीठी है लेकिन वह सांप का सेवन करते हैं। इसका मतलब सुन्दरता के पीछे नहीं भागना चाहिए।
चाहे कोई भी हो। तमाम सीमाओं और अंतर्विरोधों के बावजूद तुलसी लोकमानस में रमे हुए कवि हैं। उनका सबसे प्रचलित दोहा जिसे सबने अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। हमेशा विवादों के घेरे में आ जाता है। कई महिला संगठनों ने तो इसका घोर विरोध भी किया।
अर्थात प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
कुछ लोग इस चौपाई का अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के कारण विपरीत अर्थ निकालकर तुलसी दास जी और रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हुए अक्सर दिख जाते हैं। सामान्य समझ की बात है कि अगर तुलसीदास जी स्त्रियों से द्वेष या घृणा करते तो रामचरित मानस में उन्होंने स्त्री को देवी समान क्यों बताया? और तो और- तुलसीदास जी ने तो-
एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।
अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। साथ ही सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण, उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण यहां तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही है।
सिर्फ इतना ही नहीं सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना, कैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं जब उन्हें अपनी गलती का पश्चाताप होता है ऐसे में तुलसीदासजी के शब्द का अर्थ स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है ऐसा तो आसानी से हजम नहीं होता। इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि तुलसीदास जी शूद्रों के विषय में तो कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि उनके प्रिय राम द्वारा शबरी, निषाद, केवट आदि से मिलन के जो उदाहरण है वो तो और कुछ ही दर्शाते हैं।
तुलसीदास जी ने मानस की रचना अवधी में की है और प्रचलित शब्द ज्यादा आए हैं, इसलिए 'ताड़न' शब्द को संस्कृत से ही जोड़कर नहीं देखा जा सकता, राजा दशरथ ने स्त्री के वचनों के कारण ही तो अपने प्राण दे दिए थे। श्री राम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया, रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा पूरी रामायण में स्त्रियों का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया।
असल में ये चौपाइयां उस समय कही गई है जब समुद्र द्वारा श्रीराम की विनय स्वीकार न करने पर जब श्री राम क्रोधित हो गए और अपने तरकश से बाण निकाला तब समुद्र देव श्रीराम के चरणों मे आए और श्रीराम से क्षमा मांगते हुए अनुनय करते हुए कहने लगे कि-
हे प्रभु आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी और ये ये लोग विशेष ध्यान रखने यानि, शिक्षा देने के योग्य होते हैं।
ताड़ना एक अवधी शब्द है जिसका अर्थ पहचानना परखना या रेकी करना होता है। तुलसीदास जी के कहने का मंतव्य यह है कि अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है।
इसी तरह गंवार का अर्थ किसी का मजाक उड़ाना नहीं बल्कि उनसे है जो अज्ञानी हैं और उनकी प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता। इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष में भी वही अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता। इसका सीधा सा भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए और उनके किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।
परन्तु दुर्भाग्य तुलसीदास जी रचित इस चौपाई को लोग अपने जीवन में भी उतारते हैं और रामचरित मानस को नहीं समझ पाते हैं।