दीवान रघुनाथराव का विश्वासघात

महाराजा शिवाजीराव होलकर के विरुद्ध रचे गए ब्रिटिश षड्‌यंत्र में दुर्भाग्यवश उन्हीं का प्रधानमंत्री (मिनिस्टर) दीवान रघुनाथराव भी सम्मिलित था। लेखक को, राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली से प्राप्त गोपनीय रिपोर्ट ने इस तथ्य को पूरी तरह स्थापित कर दिया है। भारत सरकार के विदेश सचिव को इंदौर के ए.जी.जी. ने जो गोपनीय पत्र (हस्तलिखित) भेजा था उसमें दीवान का उल्लेख करते हुए वह लिखता है- 'उपसंहार में, मैं दीवान रघुनाथराव, प्रधानमंत्री का पत्र अंकित करना चाहूंगा जो हाल ही में उनकी हस्तलिपि में लिखा हुआ मुझे प्रेषित किया गया है।
 
दीवान अत्यंत उच्च चरित्र वाला, स्वतंत्र विचारों का और भारत में अभी तक जितने देशी राज्यों के प्रधानमंत्रियों से मैं मिला हूं, उनमें यह सर्वाधिक ईमानदार है। यद्यपि यह पत्र मुझे गोपनीय दिया गया है किंतु मेरे गोपनीय पत्र के साथ मैं इसे आपको प्रेषित कर रहा हूं।
 
दीवान ने पत्र में लिखा है- 'उनके (महाराजा) पास एक निर्धारित सूची है। उक्त सूची में जिन व्यक्तियों के नाम हैं, उनके विरुद्ध कार्रवाई करने का आदेश अपने अधिकारियों और मंत्रियों को देते हैं, किंतु अचानक उनमें से ही किसी व्यक्ति को अपना मंत्री बना लेते हैं। निर्दयतापूर्वक व नियम विरुद्धअधिकारियों को अचानक ही सेवामुक्त कर देते हैं। अक्सर ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त कर देते हैं जो उस पद के काबिल भी नहीं हैं। हजारों में एक व्यक्ति भी उनके प्रति सद्‌भावना नहीं रखता।
 
उन्हें कार्य करने की कोई इच्छा नहीं है। 30 दिनों में से 25 दिन वे कार्य नहीं करते। शेष 5 दिन में भी वे वास्तविक राजकीय कार्य नहीं करते हैं। 100 से भी अधिक महत्वपूर्ण पत्र उनके आदेशों के लिए पड़े हैं। उनमें कई महत्वपूर्ण पत्र अनिर्णीत पड़े हैं। इससे राज्य के महत्वपूर्ण कार्य स्थगित हो गए हैं। सभी राजकीय विभाग भयानक असमंजस में पड़े हैं। लेखा-जोखा पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लगभग सभी अधिकारियों को व्यर्थ का वेतन दिया जा रहा है और उनके अधीन आवश्यकता से अधिक कर्मचारी हैं। इसलिए उनके द्वारा किए गए कार्य अत्यंत असंतोषजनक हैं। जन-कार्यों की अवहेलना की जा रही है। न्याय निष्पक्ष व उचित रूप से प्रशासित नहीं है। सारी प्रजा असंतुष्ट हो गई है। उनमें से कई ने ब्रिटिश सत्ता का संरक्षण पाने का खुला आवेदन किया है। नि:संदेह इस शक्ति (ब्रिटिश) को यह अधिकार है कि मामलों में सुधार हेतु वह कुछ प्रयास करे। वे लोगों को उनकी प्रतिष्ठा, आयु या स्त्री-पुरुष काभेद किए बिना पीटते हैं। वे बहुत निर्दयी हैं और प्रतिशोध की भावना से पीड़ित हैं। उन्होंने स्वयं द्वारा प्रदत्त सनदों को वापस ले लिया है। वे किसी भी व्यक्ति को निश्चित समय में इंदौर छोड़कर चले जाने का आदेश देते हैं तथा उसके निवासगृह पर ताले लगवा देते हैं। वे सोचते हैं कानून द्वारा निर्धारित दंड बहुत कम है तथा छानबीन करने का कार्य बड़ा दुष्कर है। इसीलिए लिखित कानूनों की सीमा से वे मुक्त होना चाहते हैं। किस्से-कहानी सुनाने वालों के अतिरिक्त वे किसी से मिलना नहीं चाहते। वे स्वयं मुश्किल से ही कोई पत्र पढ़ते हैं। साहित्य की दृष्टि से वे कुछ नहीं लिखते।'
 
दीवान रघुनाथराव महाराजा शिवाजीराव के विरुद्ध संगठित समूह के नेता बन गए थे। महाराजा प्राय: उनके परामर्श को स्वीकारते नहीं थे या दिए गए परामर्श के विरुद्ध आचरण करते थे। यह उल्लेखनीय तथ्य है कि दीवान रघुनाथराव, मद्रास में ब्रिटिश सेवा में थे और अंगरेजों के प्रयास से इंदौर पहुंचकर भी ब्रिटिश हितों की रक्षा कर रहे थे। महाराजा से अधिक वे ए.जी.जी. के प्रति निष्ठावान थे जो महाराजा को असहनीय था। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अंगरेज सरकार के जासूस के रूप में कार्य कर रहे थे।
 
दीवान रघुनाथराव का इंदौर से पलायन
 
इंदौर में नियुक्त ए.जी.जी. सर लेपेल ग्रिफिन और महाराजा शिवाजीराव के प्रधानमंत्री दीवान रघुनाथराव ने मिलकर महाराजा के विरुद्ध जो षड्‌यंत्र रचा था, उसका भंडाफोड़ होने की पूर्ण आशंका उत्पन्न हो गई थी क्योंकि दीवान का चहेताए.जी.जी. इंदौर से स्थानांतरित कर दिया गया था और उसके स्थान पर कार्यवाहक ए.जी.जी. के रूप में एफ. हेनवी की नियुक्ति की गई थी।
 
दीवान रघुनाथराव व लेपेल ग्रिफिन ने मिलकर यह तय किया कि नए ए.जी.जी. के कार्यभार ग्रहण करने के पूर्व, दीवान इंदौर से भाग खड़ा हो अन्यथा षड्‌यंत्र की पोल खुलने पर उसकी खैर नहीं होगी। अत: दीवान ने महाराजा को, 20 अप्रैल 1888 को एक पत्र भेजते हुए लिखा- 'मैं इतना अधिक दुर्बल हो गया हूं कि अब अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थता महसूस कर रहा हूं। इसलिए मैं इस माह की 23 तारीख को या इसके पूर्व मद्रास के लिए रवाना होना चाहता हूं। मैं आपका आभारी रहूंगा यदि आप, आवश्यक हो तो, इसकी स्वीकृति भारत सरकार से प्राप्त कर लें।'
 
दीवान के उक्त पत्र से दो प्रश्न उभरते हैं, पहला यह कि अस्वस्थता के कारण उन्होंने इंदौर के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करने में असमर्थता प्रकट की थी तब अस्वस्थ होते हुए भी उन्होंने 23 अप्रैल या उसके पूर्व ही इंदौर से क्यों चले जाने की इजाजत चाही? बहुत स्पष्ट है कि 24 अप्रैल को नया ए.जी.जी. इंदौर पहुंच रहा था और उसके आने के पूर्व वे यहां से बच निकलना चाहते थे।
 
दूसरा प्रश्न यह है कि दीवान ने यह पत्र 20 अप्रैल 1888 को महाराजा को लिखा जिसमें 23 अप्रैल तक इंदौर से चले जाने की अनुमति चाही थी। पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि महाराजा उचित समझें तो भारत सरकार से इस संबंध में स्वीकृति प्राप्त कर लें। क्या 3 दिन की अल्पावधि में भारत सरकार से अनुमति पा सकना संभव था?
 
यह भी उल्लेखनीय प्रश्न है कि यदि दीवान रघुनाथराव वास्तव में अस्वस्थ थे तो उन्होंने इंदौर से मद्रास पहुंचकर तत्काल ब्रिटिश सरकार की सेवा में डिप्टी कलेक्टर का पद स्वीकार कर, कार्य क्यों किया?
 
दीवान के इस कार्य की भारत सरकार ने भी कड़ी आलोचना करते हुए 19 जून 1888 को भेजे अपने पत्र क्रमांक 416 में लिखा कि- 'नए ए.जी.जी. के सेंट्रल इंडिया में अपना कार्यभार ग्रहण करने की पूर्व संध्या पर महाराजा का आदेश लिए बगैर आपका इंदौर से मद्रास के लिए रवाना हो जाना भारत सरकार ने बुरा कार्य माना है और इससे सरकार की छवि खराब हुई है।'

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