महाराजा शिवाजीराव द्वारा अंगरेजों की मुखालफत

युवराज शिवाजीराव होलकर (बाला साहब) के मन में प्रारंभ से ही अंगरेजों व ब्रिटिश सत्ता के प्रति असंतोष व आक्रोश भरा था। उनके पिता तुकोजीराव (द्वितीय) के राज्यकाल में पहली जुलाई 1857 को इंदौर में हुए विद्रोह की न केवल उन्होंने गाथा सुनी थी, अपितु कई ऐसे लोग उनके संपर्क में आए थे जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से उस विद्रोह में भाग लिया था या जो उन घटनाओं के साक्षी थे। शिवाजीराव ने इंदौर के वीर क्रांतिकारियों को अंगरेजों द्वारा दी गई क्रूर सजाओं के विषय में भी सुना था। उनके पिता ने अप्रत्यक्ष रूप से विद्रोही सैनिकों की सहायता की थी। जब सारे देश में विद्रोह दबा दिया गया था तब भी तुकोजीराव होलकर गुप्त रूप से इंदौर में शस्त्रों का निर्माण करवाते रहे थे। इस तरह ब्रिटिश मुखालिफत युवराज शिवाजी को विरासत में मिली थी।
 
अपने पिता के शासनकाल में ही युवराज शिवाजी ने अंगरेजों के विरुद्ध अपना अभियान प्रारंभ कर दिया था। घटना 28 फरवरी 1883 की है। उस रात बाला साहब (शिवाजी) इलाहाबाद के लॉरिस होटल में अपने सेवकों के साथ ठहरे हुए थे। उसी होटल में कैप्टन मोर तथा उनकी अविवाहित बहन भी ठहरे थे। उनके कमरे के बाहर खटखटाहट की आवाज सुनकर अंगरेज कप्तान बाहर आया। उसने देखा वहां दो भारतीय खड़े थे। कप्तान ने उनसे खटखटाने का कारण पूछा। वह उनके द्वारा दिए गए उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ।
 
इस घटना का विस्तृत विवरण भारत सरकार के विदेश विभाग के सचिव सी. ग्रांट ने सेंट्रल इंडिया के ए.जी.जी. को अपने पत्र क्र. 3041-आई, दिनांक 11 अक्टूबर 1883 में इस प्रकार लिख भेजा था-
 
'अगली सुबह कैप्टन मोर ने होटल के मालिक से इसकी शिकायत की और आक्रोश में आकर उनमें से एक को बेंत से मार दिया। तत्काल बाला साहब अपने कमरे से बाहर निकले और कैप्टन मोर को अपशब्द कहने लगे। कैप्टन मोर अपने कमरे में चला गया किंतु जैसे ही दुबारा बाहर आया तो बाला साहब फिर से अपशब्द कहने लगे। होटल स्वामी का कोई सहयोग न पा सकने के कारण कैप्टन ने होटल छोड़ देने का निर्णय लिया। ज्यों ही वह सामान कमरे के बाहर बरांडे में रखवा रहा था, युवराज के दो साथी वहां पहुंचे और अपने अपमान का बदला लेने के लिए सामान जब्त कर लिया, बरांडे में खींचते हुए ले गए और कैप्टन के सिर पर दे मारा। यह सब उसकी बहन देखकर बेहोश हो गई। बाला साहब यह सब कुछ होते देखते रहे,अपशब्द कहते रहे और उन्होंने अपने नौकरों को ऐसा करने से बिलकुल नहीं रोका।' शिमला से भेजे उक्त पत्र द्वारा भारत सरकार के सचिव ने ए.जी.जी. को निर्देशित किया था कि वह महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) को उनके पुत्र द्वारा किए गए कृत्य से अवगत कराएं और उन्हें चेतावनी दें कि भविष्य में किसी भी अंगरेज अधिकारी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए।
 
महाराजा शिवाजीराव को पागल करार देने की कोशिश
 
महाराजा तुकोजीराव होलकर जब गंभीर रूप से बीमार हुए तो 1886 के प्रारंभ में, होलकर राज-सिंहासन के एक मात्र उत्तराधिकारी युवराज शिवाजीराव को शासन संचालन के अधिकार दे दिए गए थे। 17 जून 1886 को तुकोजीराव का स्वर्गवास हो गया तब भी शासन संचालन बिना किसी अवरोध के शिवाजीराव के द्वारा होता रहा।
 
ज्यों ही महाराजा शिवाजीराव को शासन संचालन के पूर्ण अधिकार मिले, उन्होंने अपनी ब्रिटिश विरोधी नीति को और सक्रिय कर दिया। इंदौर स्थित अंगरेज अधिकारी भयभीत हो उठे। शिवाजी के अलावा कोई अन्य उत्तराधिकारी भी नहीं था जिसका पक्ष लेकर वे कोई विवाद उत्पन्न कर सकते थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने शिवाजीराव के विरुद्ध एकसुनियोजित षड्‌यंत्र रचा जिसके तहत महाराजा को विक्षिप्त सिद्ध करके सिंहासन से हटाना उनका प्रमुख ध्येय था। इस कार्य में शिवाजी के विरोधियों, असंतुष्ट अधिकारियों व अंगरेज समर्थकों ने उन्हें भरपूर सहयोग दिया।
 
होलकर शासकों को विक्षिप्त सिद्ध करने की साजिश
 
ए.जी.जी. इंदौर रेसीडेंसी में रहकर तिलमिला रहा था, क्योंकि शिवाजीराव अंगरेजों के सख्त खिलाफ थे। उसने भारत सरकार को पत्र लिखकर यह सूचित किया था कि महाराजा पागल हैं। इतने से भी जब वह संतुष्ट न हुआ तो उसने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि पागलपन होलकर राजपरिवारों में वंशानुगत रोग रहा है। 12 मार्च 1888 को भारत सरकार के सचिव को भेजे पत्र में वह लिखता है- 'पागलपन होलकर घराने में अभी तक एक वंशानुगत रोग रहा है। इस घराने का संस्थापक मल्हारराव होलकर एक कठोर सैनिक था जिसने तलवार के बल पर अपने राज्य की स्थापना की। कठोर परिश्रम और मितव्यय की आदतों के कारण उसका अंत वैसा नहीं हुआ जैसा कि उसके पुत्र, वारिसों व परवर्ती शासकों का हुआ।
 
मालेराव होलकर चिल्लाने वाला विक्षिप्त व्यक्ति था। महान यशवंतराव होलकर जिसने अंगरेजों व ब्रिटिश सत्ता से दुश्मनी की, पागल होकर, पशुओं की तरह रस्सियों से बंधा हुआ मरा, मल्हारराव (द्वितीय) मंदबुद्धि था और अपनी अनियंत्रित विलासिता व अनैतिकता के कारण मृत्यु का शिकार हुआ, उसका उत्तराधिकारी हरिराव पूर्णत: 'ईडियट' था, जो अपने निवास से बाहर निकलने में भी डरता था। जो स्वर्गीय महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, उन्हें मालूम है तथा वे मेरे इस मत से सहमत होंगे कि महान मौलिक प्रतिभा और चतुराई के बावजूद कुछ मुद्दों पर वे बिलकुल पागल हो जाया करते थे। होलकर घराने का स्वास्थ्य संबंधी इतिहास, वर्तमान शासक (शिवाजीराव) की मानसिक स्थिति को समझने के लिए विशेष महत्व रखता है।'
 
महाराजा शिवाजीराव पर प्रहार करते हुए ए.जी.जी. आगे लिखता है- 'महाराजा में वंशानुगत चाहे जो कलंक हों, पहले से मौजूद, मेरे मतानुसार पागलपन का प्रमुख कारण महाराजा की अनियंत्रित व अप्राकृतिक यौन इच्छाएं हैं। यद्यपि बड़ी सावधानी से वे इस बात से इंकार करते रहे हैं कि उनके व गोपालराव के मध्य कोई अप्राकृतिक संबंध हैं फिर भी अपने पिता की इच्छा के बावजूद उन्होंने गोपालराव को पदमुक्त नहीं किया...।'
 
ए.जी.जी. ने उक्त पत्र में अधिकांश होलकर शासकोंको विक्षिप्त या अर्द्ध विक्षिप्त सिद्ध करने का प्रयास किया है। उसका तर्क यही था कि विक्षिप्तता होलकर घराने में परंपरागत रही है। लेकिन उसने देवी अहिल्याबाई, सूबेदार तुकोजीराव, काशीराव इत्यादि का कोई उल्लेख नहीं किया क्योंकि इनके विरुद्ध उसे कोई आरोप नहीं मिल पाया। वंशानुगत विक्षिप्तता का तर्क तो इसी बात से समाप्त हो जाता है कि होलकर गादी पर एक ही रक्त के व्यक्तियों ने कभी राज्य नहीं किया। समय-समय पर होलकर परिवार के दूर के रिश्तेदारों को गोद लेकर राजा बनाया गया था। शिवाजीराव के पिता तुकोजीराव (द्वितीय) को भी गोद लिया गया था।
 
ए.जी.जी. का वैमनस्यपूर्ण व्यवहार
 
महाराजा शिवाजीराव को ए.जी.जी. अंगरेज समर्थक व अंगरेजी सत्ता को सर्वोपरि मानने वाला शासक बनाना चाहता था। अपने तमाम प्रयासों में जब असफल हो गया तो निराश होकर ए.जी.जी. ने इंदौर से एक आक्रोश भरा पत्र भारत सरकार को भेजा जिसमें वह लिखता है- 'मैंने मामले की रिपोर्ट देने में इसलिए विलंब किया क्योंकि आशा के विपरीत मुझे वांछित परिवर्तन की उम्मीद थी।'
 
महाराजा द्वारा किए गए अच्छे कार्यों का श्रेय स्वयं लेते हुए वह लिखता है- 'मेरे कहने पर उन्होंनेपूरे राज्य से चुंगी कर व अन्य अन्यायपूर्ण करों को समाप्त कर दिया और वचन दिया था कि वे प्रशासन का संचालन अत्यंत उदार व सभ्य तरीके से करेंगे। कोई अंगरेज अधिकारी जो थोड़ा भी स्वाभिमान रखता हो, उनके साथ नहीं रह सकता। ...किसी भी कार्यालयीन सेवा ने मुझे आज तक इतना कष्ट नहीं दिया जितना इस शासक के चार्ज ने दिया है। अस्वस्थता का बहाना बनाकर महाराजा ने 'इम्पीरियल इंस्टीट्‌यूट' के शिलान्यास समारोह में भाग लेने से इंकार कर दिया था, जबकि वे पूर्णत: स्वस्थ थे और समारोह के समय ही नगर में कार चला रहे थे।'
 
ए.जी.जी. महाराजा द्वारा प्रदर्शित इस उपेक्षा भाव से इतना क्रुद्ध हो गया था कि उसे महारानी पर लज्जास्पद आरोप लगाते हुए जरा भी संकोच न हुआ। वह लिखता है- 'महाराजा की पत्नी को 2 माह पूर्व गर्भपात हुआ। महारानी को यह गर्भ, उस व्यक्ति के कारण हुआ था जो महाराजा का चहेता है और होलकर की अनुपस्थिति में अधिकांश समय महारानी के साथ रहता है। यह सब महाराजा की सहमति से हुआ और वे इस बारे में सब कुछ जानते हैं। रानी के गर्भवती होने की बात नगर में सभी लोग जानते हैं।'
 
महाराजा की आलोचना करते हुए वह लिखता है- 'वे (महाराजा) इतने हिंसक हो गए हैं कि उनके नौकर भी उनके पास ठहरने से डरते हैं। ...कई बार तो वे अपना खाना तक स्वयं बनाने पर उतारू हो जाते हैं। ...पत्रों का ढेर उनके समक्ष लगा रहता है लेकिन वे उनकी ओर देखते तक नहीं और न ही मिनिस्टर के प्रस्तावों पर कोई आदेश देते हैं। मिनिस्टर ने उनसे अनुरोध किया कि वे हां या ना कुछ तो लाल या नीली स्याही से अंकित करें, लेकिन कुछ नहीं। ...अधिकारी खरीदे व बेचे जाते हैं। सम्मानित अधिकारियों को अनियमिततापूर्वक बिना पूर्व सूचना के सेवा-मुक्त कर दिया जाता है। सेना, जनरल बालमुकुंद तथा महाराजा के कृपापात्र जिसे जनरल बना दिया गया है, के पारस्परिक विवादों के कारण दो गुटों में विभाजित हो गई है और जैसा कि मुझे मिनिस्टर ने सूचित किया है, सेना बहुत ही असंतोषजनक स्थिति में पहुंच गई है...।'
 
यहां यह उल्लेखनीय तथ्य है कि इस प्रकार की सूचनाएं (जो पूर्वाग्रहपूर्ण थीं) होलकर प्रधानमंत्री द्वारा ए.जी.जी. को दी जा रही थीं।
 
प्रशासनिक अधिकार छीनने का प्रयास
 
महाराजा शिवाजीराव होलकर से ब्रिटिश ए.जी.जी. सख्त नाराज था। उनके विरुद्ध कोई भी तथ्य उसे मिलता तो उसे वह गवर्नर जनरल तक पहुंचाने मेंचूकता न था। वह समझता था कि अन्य भारतीय नरेशों के समान शिवाजीराव भी उसकी हां में हां मिलाने वाले सिद्ध होंगे, लेकिन जब शिवाजीराव को पूर्ण प्रशासनिक अधिकार मिल गए तो उन्होंने एक सम्प्रभु, स्वाभिमानी व स्वविवेकी शासक की भांति कार्य प्रारंभ किए। इन सब बातों से ए.जी.जी. को बड़ा धक्का लगा। पश्चाताप भरे अंदाज में उसने 12 मार्च 1888 ई. को भारत सरकार के विदेश सचिव को लिखा- 'संभवत: शिवाजीराव को पूर्ण प्रशासनिक अधिकार प्रदान करने की अनुशंसा करके मैंने भूल की। उनकी शिक्षा-दीक्षा अच्छी हुई है। उनका परिवेश इतना अच्छा था कि उसमें यदि उन्होंने शक्ति, ईमानदारी तथा आत्म-नियंत्रण सीखा होता तो वे एक श्रेष्ठ शासक बन सकते थे। उनकी बुरी आदतों ने उन्हें बर्बाद कर दिया। ...राज्य में महाराजा द्वारा प्रशासनिक कार्यों के प्रति की जा रही उपेक्षा को अधिक समय तक भारत सरकार द्वारा सहन करना संभव न होगा। यह भारत सरकार को तय करना है कि महाराजा को अल्पावधि या सदैव के लिए प्रशासन से पृथक कर दिया जाए या प्रशासन चलाने के लिए एक कौंसिल नियुक्त कर दी जाए अथवा महाराजा के अस्तित्व को बनाए रखते हुए कुछ ऐसे चुने हुए लोगों द्वारा प्रशासनसंचालित करवाया जाए जिन्हें भारत सरकार की पूर्ण अनुमति बगैर महाराजा अलग न कर सकें।'
 
उक्त पत्र द्वारा बहुत स्पष्ट है कि ए.जी.जी. ने भारत सरकार के समक्ष तीन विकल्प प्रस्तुत किए थे और तीनों में ही यह व्यवस्था थी कि इंदौर राज्य की प्रशासनिक शक्ति महाराजा से छीनकर ब्रिटिश समर्थक व्यक्तियों को सौंप दी जाए। यदि कौंसिल नियुक्त होती तो परंपरा अनुसार रेजीडेंट ही उसका अध्यक्ष होता। महाराजा शिवाजीराव का भाई नहीं था जिसे दावेदार बनाकर राजगद्दी के लिए कोई विवाद खड़ा किया जा सके इसलिए लॉर्ड डलहौजी की हड़प नीति को प्रकारांतर से कुप्रशासन का बहाना बनाकर इंदौर राज्य पर थोपने का यह ब्रिटिश षड्‌यंत्र था। जिसके अंतर्गत दो मोर्चों से उन पर प्रहार किए जा रहे थे। एक ओर तो उन्हें विक्षिप्त सिद्ध करने के प्रयास चल रहे थे और दूसरी ओर उनके प्रशासन को यह निरूपित किया जा रहा था कि इंदौर राज्य में अराजकता व अव्यवस्था का ही राज्य है। दुर्भाग्यवश होलकर प्रशासन व राजदरबार के कुछ लोग, जो किन्हीं निहित स्वार्थों की पूर्ति न हो पाने से महाराजा से असंतुष्ट थे और वे ही ए.जी.जी. से जा मिले थे।
 
दीवान रघुनाथराव का विश्वासघात
 
महाराजा शिवाजीराव होलकर के विरुद्ध रचे गए ब्रिटिश षड्‌यंत्र में दुर्भाग्यवश उन्हीं का प्रधानमंत्री (मिनिस्टर) दीवान रघुनाथराव भी सम्मिलित था। लेखक को, राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली से प्राप्त गोपनीय रिपोर्ट ने इस तथ्य को पूरी तरह स्थापित कर दिया है। भारत सरकार के विदेश सचिव को इंदौर के ए.जी.जी. ने जो गोपनीय पत्र (हस्तलिखित) भेजा था उसमें दीवान का उल्लेख करते हुए वह लिखता है- 'उपसंहार में, मैं दीवान रघुनाथराव, प्रधानमंत्री का पत्र अंकित करना चाहूंगा जो हाल ही में उनकी हस्तलिपि में लिखा हुआ मुझे प्रेषित किया गया है। दीवान अत्यंत उच्च चरित्र वाला, स्वतंत्र विचारों का और भारत में अभी तक जितने देशी राज्यों के प्रधानमंत्रियों से मैं मिला हूं, उनमें यह सर्वाधिक ईमानदार है। यद्यपि यह पत्र मुझे गोपनीय दिया गया है किंतु मेरे गोपनीय पत्र के साथ मैं इसे आपको प्रेषित कर रहा हूं। दीवान ने पत्र में लिखा है- 'उनके (महाराजा) पास एक निर्धारित सूची है। उक्त सूची में जिन व्यक्तियों के नाम हैं, उनके विरुद्ध कार्रवाई करने का आदेश अपने अधिकारियों और मंत्रियों को देते हैं, किंतु अचानक उनमें से ही किसी व्यक्ति को अपना मंत्री बना लेते हैं। निर्दयतापूर्वक व नियम विरुद्धअधिकारियों को अचानक ही सेवामुक्त कर देते हैं। अक्सर ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त कर देते हैं जो उस पद के काबिल भी नहीं हैं। हजारों में एक व्यक्ति भी उनके प्रति सद्‌भावना नहीं रखता।
 
उन्हें कार्य करने की कोई इच्छा नहीं है। 30 दिनों में से 25 दिन वे कार्य नहीं करते। शेष 5 दिन में भी वे वास्तविक राजकीय कार्य नहीं करते हैं। 100 से भी अधिक महत्वपूर्ण पत्र उनके आदेशों के लिए पड़े हैं। उनमें कई महत्वपूर्ण पत्र अनिर्णीत पड़े हैं। इससे राज्य के महत्वपूर्ण कार्य स्थगित हो गए हैं। सभी राजकीय विभाग भयानक असमंजस में पड़े हैं। लेखा-जोखा पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लगभग सभी अधिकारियों को व्यर्थ का वेतन दिया जा रहा है और उनके अधीन आवश्यकता से अधिक कर्मचारी हैं। इसलिए उनके द्वारा किए गए कार्य अत्यंत असंतोषजनक हैं। जन-कार्यों की अवहेलना की जा रही है। न्याय निष्पक्ष व उचित रूप से प्रशासित नहीं है। सारी प्रजा असंतुष्ट हो गई है। उनमें से कई ने ब्रिटिश सत्ता का संरक्षण पाने का खुला आवेदन किया है। निःसंदेह इस शक्ति (ब्रिटिश) को यह अधिकार है कि मामलों में सुधार हेतु वह कुछ प्रयास करे। वे लोगों को उनकी प्रतिष्ठा, आयु या स्त्री-पुरुष काभेद किए बिना पीटते हैं। वे बहुत निर्दयी हैं और प्रतिशोध की भावना से पीड़ित हैं। उन्होंने स्वयं द्वारा प्रदत्त सनदों को वापस ले लिया है। वे किसी भी व्यक्ति को निश्चित समय में इंदौर छोड़कर चले जाने का आदेश देते हैं तथा उसके निवासगृह पर ताले लगवा देते हैं। वे सोचते हैं कानून द्वारा निर्धारित दंड बहुत कम है तथा छानबीन करने का कार्य बड़ा दुष्कर है। इसीलिए लिखित कानूनों की सीमा से वे मुक्त होना चाहते हैं। किस्से-कहानी सुनाने वालों के अतिरिक्त वे किसी से मिलना नहीं चाहते। वे स्वयं मुश्किल से ही कोई पत्र पढ़ते हैं। साहित्य की दृष्टि से वे कुछ नहीं लिखते।'
 
दीवान रघुनाथराव महाराजा शिवाजीराव के विरुद्ध संगठित समूह के नेता बन गए थे। महाराजा प्रायः उनके परामर्श को स्वीकारते नहीं थे या दिए गए परामर्श के विरुद्ध आचरण करते थे। यह उल्लेखनीय तथ्य है कि दीवान रघुनाथराव, मद्रास में ब्रिटिश सेवा में थे और अंगरेजों के प्रयास से इंदौर पहुंचकर भी ब्रिटिश हितों की रक्षा कर रहे थे। महाराजा से अधिक वे ए.जी.जी. के प्रति निष्ठावान थे जो महाराजा को असहनीय था। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अंगरेज सरकार के जासूस के रूप में कार्य कर रहे थे।
 
महाराजा शिवाजीराव को जादू का भय?
 
महाराजा के प्रशासन, व्यक्तिगत जीवन और उनकी आदतों के श्याम पक्ष को उभारते हुए वे ए.जी.जी. को पत्र लिखकर गोपनीय रूप से सूचनाएं दिया करते थे। अपने इसी प्रकार के एक पत्र में दीवान लिखता है- '...वे इतने अधिक सभ्य हैं कि धर्म के नाम पर उनके मन में तनिक भी भय नहीं है। जनमत का उनके लिए कोई महत्व नहीं है। उनकी राय में उन्हें परामर्श देने योग्य कोई भी व्यक्ति नहीं है। सभी या तो पागल हैं या मूर्ख हैं। उनके मतानुसार शासन कठोरता से किया जाना चाहिए। वे बहुत ही शंकालु प्रवृत्ति के हैं। अपने प्रियतम रिश्तेदार से, राज्य के मंत्रियों से, अपने कर्मचारियों से और अपनी प्रजा से, सभी के प्रति वे आशंकित रहते हैं। वे अक्सर ऐसा कहते भी रहते हैं। उन्होंने अपने मिनिस्टर पर यह आरोप लगाया है कि उसने, महाराजा के विरुद्ध समाचार-पत्रों में लिखा है। इस अविश्वास से कार्यों में गतिरोध उत्पन्न हो गया है और किस्से-कहानियां सुनाने वाले प्रोत्साहित हुए हैं। ये लोग भयानक बदमाशियां करते हैं। वे अपने सेनापतियों का विश्वास नहीं करते और उनके विरुद्ध किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा सुनाई कहानी को सच मान लेते हैं। उनकेजनरल जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करते हैं तो महाराजा उन पर मुकदमा चलाए बगैर उन्हें मुक्त कर देते हैं, जिससे सारा अनुशासन समाप्त हो जाता है। इससे सेना का मनोबल गिरा है और वह जन-सुरक्षा के लिए खतरा बन गई है। उन्हें भय है कि उनका जीवन सुरक्षित नहीं है। इसलिए किसी अपराधी द्वारा भी कही गई किसी कहानी पर वे यकीन कर लेते हैं, जो किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध गढ़ी गई हो। वे जादू से हमेशा भयभीत रहते हैं और उन्हें संदेह है कि उनकी मां और उनका पुत्र (तुकोजीराव तृतीय) उन्हें क्षति पहुंचाने के लिए जादू का प्रयोग करवाते रहते हैं।...'
 
दीवान रघुनाथराव जब ए.जी.जी. को उक्त प्रकार का पत्र लिख सकता था तो समाचार पत्रों तक भी ऐसी खबरें पहुंचाने में नहीं चूकता होगा। ऐसी स्थिति में यदि महाराजा ने उसकी गतिविधियों पर संदेह प्रकट किया तो इसमें कुछ भी अनुचित नहीं था।
 
दीवान रघुनाथराव का इंदौर से पलायन
 
इंदौर में नियुक्त ए.जी.जी. सर लेपेल ग्रिफिन और महाराजा शिवाजीराव के प्रधानमंत्री दीवान रघुनाथराव ने मिलकर महाराजा के विरुद्ध जो षड्‌यंत्र रचा था, उसका भंडाफोड़ होने की पूर्ण आशंका उत्पन्न हो गई थी क्योंकि दीवान का चहेताए.जी.जी. इंदौर से स्थानांतरित कर दिया गया था और उसके स्थान पर कार्यवाहक ए.जी.जी. के रूप में एफ. हेनवी की नियुक्ति की गई थी।
 
दीवान रघुनाथराव व लेपेल ग्रिफिन ने मिलकर यह तय किया कि नए ए.जी.जी. के कार्यभार ग्रहण करने के पूर्व, दीवान इंदौर से भाग खड़ा हो अन्यथा षड्‌यंत्र की पोल खुलने पर उसकी खैर नहीं होगी। अत: दीवान ने महाराजा को, 20 अप्रैल 1888 को एक पत्र भेजते हुए लिखा- 'मैं इतना अधिक दुर्बल हो गया हूं कि अब अपने कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थता महसूस कर रहा हूं। इसलिए मैं इस माह की 23 तारीख को या इसके पूर्व मद्रास के लिए रवाना होना चाहता हूं। मैं आपका आभारी रहूंगा यदि आप, आवश्यक हो तो, इसकी स्वीकृति भारत सरकार से प्राप्त कर लें।'
 
दीवान के उक्त पत्र से दो प्रश्न उभरते हैं, पहला यह कि अस्वस्थता के कारण उन्होंने इंदौर के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करने में असमर्थता प्रकट की थी तब अस्वस्थ होते हुए भी उन्होंने 23 अप्रैल या उसके पूर्व ही इंदौर से क्यों चले जाने की इजाजत चाही? बहुत स्पष्ट है कि 24 अप्रैल को नया ए.जी.जी. इंदौर पहुंच रहा था और उसके आने के पूर्व वे यहां से बच निकलना चाहते थे।
 
दूसरा प्रश्न यह है कि दीवान ने यह पत्र 20 अप्रैल 1888 को महाराजा को लिखा जिसमें 23 अप्रैल तक इंदौर से चले जाने की अनुमति चाही थी। पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि महाराजा उचित समझें तो भारत सरकार से इस संबंध में स्वीकृति प्राप्त कर लें। क्या 3 दिन की अल्पावधि में भारत सरकार से अनुमति पा सकना संभव था?
 
यह भी उल्लेखनीय प्रश्न है कि यदि दीवान रघुनाथराव वास्तव में अस्वस्थ थे तो उन्होंने इंदौर से मद्रास पहुंचकर तत्काल ब्रिटिश सरकार की सेवा में डिप्टी कलेक्टर का पद स्वीकार कर, कार्य क्यों किया?
 
दीवान के इस कार्य की भारत सरकार ने भी कड़ी आलोचना करते हुए 19 जून 1888 को भेजे अपने पत्र क्रमांक 416 में लिखा कि- 'नए ए.जी.जी. के सेंट्रल इंडिया में अपना कार्यभार ग्रहण करने की पूर्व संध्या पर महाराजा का आदेश लिए बगैर आपका इंदौर से मद्रास के लिए रवाना हो जाना भारत सरकार ने बुरा कार्य माना है और इससे सरकार की छवि खराब हुई है।'
 
नए ए.जी.जी. ने महाराजा की प्रशंसा की
 
ब्रिटिश हितों के संरक्षक दीवान रघुनाथराव के इंदौर से प्रस्थान के बाद महाराजा शिवाजीराव ने राव बहादुर विनायक जनार्दन कीर्तने को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। यहनियुक्ति 2 वर्ष के लिए की गई थी। श्री कीर्तने इंदौर में पहले एक शिक्षक रहे तत्पश्चात जज व विधि सचिव के रूप में कार्य कर चुके थे। उन्हें दिल्ली दरबार में राव बहादुर की पदवी प्रदान की गई थी। प्रभारी ए.जी.जी. मिस्टर हेनवी ने कीर्तने की प्रशंसा करते हुए भारत सरकार को लिखा था- 'मैंने उनके चरित्र में ईमानदारी और बहुत कुछ योग्यता के गुण होने की बात सुनी है। उनके पिता, विद्रोह के समय कोल्हापुर में मिनिस्टर थे और उनके छोटे भाई देवास जूनियर ब्रांच में मंत्री हैं। कुल मिलाकर चयन न्यायोचित प्रतीत होता है।'
 
उधर नए ए.जी.जी. ने महाराजा के विरुद्ध लगाए गए विभिन्न आरोपों की सूक्ष्मता से जांच करनी प्रारंभ कर दी थी। पूरी जांच-पड़ताल कर लेने के बाद मिस्टर हेनवी ने भारत सरकार के विदेश विभाग के सचिव मिस्टर एच.एम. डुरेंड को अपने गोपनीय पत्र क्र. 36-पी 283 दिनांक 19 मई 1888 में लिखा- '... इस अवसर पर मैं सूचित करना चाहूंगा कि जहां तक मैं देख सका हूं, मैंने मानसिक विकार या विक्षिप्तता का कोई चिह्न महाराजा में नहीं पाया है। इसके विपरीत मैं महाराजा के निर्भीक व सहयोगात्मक स्वभाव तथा उनकी कठिनाइयों की चर्चा के दौरान जोबुद्धिमत्ता उन्होंने प्रदर्शित की, उससे प्रभावित हुआ हूं। ये कठिनाइयां उनके अनुयायियों के विश्वासघात, दीवान रघुनाथराव के अचानक प्रस्थान और कुछ 'एंग्लो-इंडियन' समाचार-पत्रों में उनके विरुद्ध अशिष्ट और धमकी भरे लेखों के प्रकाशन से और अधिक बढ़ गई हैं। पिछली घटनाओं ने प्रशासनिक मशीनरी को अपने मार्ग से चाहे कुछ विचलित किया हो, लेकिन मेरे समक्ष अभी तक कोई ऐसा तथ्य नहीं आया, जिससे होलकर राज्य के प्रशासन में शिथिलता का कोई संकेत मिलता हो।'
 
इसी पत्र में ए.जी.जी. ने भारत सरकार से इस बात की इजाजत चाही थी कि वह होलकर महाराजा के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना चाहता है। भारत सरकार ने अपने पत्र क्र. 2202-1 दिनांक 4 जून 1888 (गोपनीय) द्वारा इस बात की अनुमति प्रदान की थी।
 
कार्यवाहक ए.जी.जी. के उक्त पत्र से स्पष्ट हो जाता है कि महाराजा शिवाजीराव एक निर्भीक व रचनात्मक शासक के रूप में कार्य कर रहे थे। उन्हें विक्षिप्त सिद्ध करने वाला आरोप भी इस पत्र से निर्मूल सिद्ध हो जाता है। संभवत: प्रभारी ए.जी.जी. को पूर्व ए.जी.जी. ने अपने षड्‌यंत्र की जानकारी नहीं दी थी तभी वह निष्पक्ष रूप से सही जानकारी भारत सरकार को भेजता रहा अन्यथा उसका दृष्टिकोण भी पूर्वाग्रहपूर्ण बन गया होता।
 
ब्राह्मण वर्ग नाराज था महाराजा से
 
इंदौर के उच्चाधिकारी भी महाराजा के आदेशों की अवहेलना कर रहे थे और इसका प्रमुख कारण उन्हें अंगरेजों से मिल रहा संरक्षण व शह थी। उनकी अनुशासनहीनता के कारण राजकीय कार्यालयों में भ्रष्टाचार फैल रहा था और अराजकता की स्थिति निर्मित होती जा रही थी। संवेदनशील महाराजा इस अव्यवस्था से परिचित थे और इसका कारण भी जानते थे। उन्होंने अंगरेज ए.जी.जी. को एक अर्द्धशासकीय गोपनीय पत्र लिखकर वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए लिखा- 'मैं आपसे कहना चाहूंगा कि राजस्व तथा राजकीय कार्यालयों से संबंधित लेखा पिछले 17 वर्षों का आज तक तैयार नहीं किया गया है। मैंने मंत्रियों और अधिकारियों को 2 वर्ष पूर्व आदेश दिया था कि राज्य में 'ब्रिटिश भू-राजस्व प्रणाली' लागू की जाए, किंतु उसको शीघ्र कार्यान्वित नहीं किया गया। मुझे कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे न्यायालयों व कार्यालयों में भ्रष्टाचार किस प्रकार चल रहा है और जिसके परिणामस्वरूप हमारे बहुत अच्छे मित्र द्वारा की गई आत्महत्या इसका अच्छा उदाहरण है।'
 
'सौभाग्य से मेरे वफादार कर्मचारियों के कार्यकलापमुझे पता चल गए अन्यथा उन्होंने समाचार पत्रों को लिख कर मेरी छवि को भारी क्षति पहुंचाई होती। यह कार्य मिस्टर खोरे के माध्यम से पूर्ववत्‌ किया जाना था...।'
 
होलकर राज्य के उच्च पदों पर आसीन ब्राह्मण वर्ग इस 'धनगर' महाराजा से विशेष रूप से नाराज था। उन्होंने न केवल अंगरेजों को महाराजा के विरुद्ध सहायता दी थी अपितु दक्षिणी ब्राह्मणों के केंद्र पूना से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र 'पूना वैभव' में उनके विरुद्ध समाचार प्रकाशित करवा कर उन्हें बदनाम करने का दुष्कृत्य भी किया था। यहां यह उल्लेखनीय तथ्य है कि अंगरेजों ने अनेक भारतीयों को रावबहादुर या रायबहादुर जैसी पदवियां देकर अपने समर्थकों में शामिल कर लिया था। इंदौर राज्य के प्रधानमंत्री पद पर इसी प्रकार की श्रेणी के लोगों में से किसी व्यक्ति को चुनने के लिए ए.जी.जी. महाराजा को प्रेरित व प्रोत्साहित करता था। फलस्वरूप राज्य के अगले प्रधानमंत्री के रूप में रायबहादुर के.सी. बेदरकर को चुना गया, जो अंगरेज समर्थक था और होलकर दरबार में रहकर भी अंगरेजों के हितों की पूर्ति करता रहता था। पूना के समाचार पत्रों के लिए जो समाचार इंदौर से प्रेषित किए जा रहे थे, उनमें प्रधानमंत्री का पूरा हाथ था।
 
महाराष्ट्र का पूना नगर मराठा रियासतों के जन्म का मूल स्थल था और वहां से निर्मित 'जनमत' अन्य मराठा रियासतों में किसी शासक की छवि को धूमिल या उज्ज्वल बनाने में काफी महत्व रखता था। अंगरेजों ने धूर्ततापूर्वक महाराजा की आलोचना उनके ही लोगों द्वारा करवाने में सफलता हासिल कर ली थी।
 
'पूना वैभव' ने की शिवाजीराव की आलोचना
 
महाराजा शिवाजीराव के विरुद्ध ब्राह्मणों का आक्रोश किस सीमा तक बढ़ गया था, वह 'पूना वैभव' नामक समाचार-पत्र में प्रकाशित इस समाचार से स्पष्ट होता है। अखबार अपने 30 जून 1894 के अंक में लिखता है- 'कहा जाता है कि प्रशासक (शिवाजीराव होलकर) शिकार के समय ब्राह्मणों से जंगलों में हांका लगवाते हैं, जो भाग-दौड़ करने के अभ्यस्त नहीं हैं। लोगों के चेहरे काले कर दिए जाते हैं। उनके वस्त्र उतरवा लिए जाते हैं और उन्हें बाध्य किया जाता है कि वे लंबी दुम लगाकर बंदरों की तरह तमाशा करें। कई लोगों को इकट्ठा कर एक-दूसरे को लातें और मुक्के मारने को कहा जाता है। विनोद के लिए, उनसे एक-दूसरे के ऊपर थूकने को कहा जाता है। ब्राह्मणों, क्लर्कों व अधिकारियों से 'भिश्ती' के वस्त्रपहनकर गलियों में पानी डलवाया जाता है। शौचालयों की सफाई करते समय सफाई करने वालों को ब्राह्मणों की तरह वस्त्र पहनने को कहा जाता है तथा समीप से निकलने वाले ब्राह्मणों को बाध्य किया जाता है कि वे सफाई करने वालों को नमस्कार कहें। सड़क पर चलते लोगों को पकड़ कर महाराजा के सम्मुख पीटा जाता है और कई बार तो उनकी मृत्यु हो जाती है। इस पिटाई के विभिन्न कारण होते हैं, जैसे- वे किसी भ्रष्ट अधिकारी से जुड़े हैं, उनके संबंधी इंदौर से भाग गए हैं, वे किसी खास गली में रहते हैं या उनका कोई विशिष्ट 'सरनेम' (उपनाम) है। बिना मुकदमा चलाए किसी को भी कारागार में डाल दिया जाता है। इस तरह लगभग 75 व्यक्ति सजा भुगत रहे हैं। उन्हें एक संकरे कमरे में कैद किया गया है, ब्राह्मणों और म्हारों को साथ-साथ रखा गया है।'
 
इस प्रकार के समाचार व घटनाओं को आए दिन 'पूना वैभव' में प्रकाशित किया जा रहा था। 7 जुलाई 1895 के अंक में उक्त अखबार लिखता है- 'महाराजा होलकर का वर्तमान व्यवहार इस बात की ओर संकेत करता है कि वे विक्षिप्त हो गए हैं। इंदौर की जनता महाराजा की दमनकारी विक्षिप्ततापूर्ण नीति से त्रस्त हो उठी है। पिछले 2 माहों से इंदौर से आने वालीरिपोर्टों ने हमें आश्वस्त कर दिया है कि महाराजा पागल हो गए हैं। हम कुछ घटनाएं दे रहे हैं, जो दर्शाती हैं कि वे पूरी तरह विक्षिप्त हो उठे हैं...।'
 
महाराजा के विरुद्ध दोहरा प्रचार चल रहा था। एक ओर अखबार थे, दूसरी ओर अंगरेज अधिकारियों की लगातार प्रेषित की जा रही रिपोर्ट थी। अखबारों में छपी खबरों से स्पष्ट है कि महाराजा ब्राह्मण समुदाय से नाराज थे। नगर के कुछ अति-वृद्धजनों से चर्चा के दौरान लेखक को यह भी ज्ञात हुआ कि महाराजा शिवाजीराव प्रायः राजवाड़े के झरोखे पर बैठकर आने-जाने वालों को देखते थे और जो 'नंगे सिर' वहां से गुजरता था, उसे पकड़वाकर उसकी पिटाई करवाते थे। संभवत: इसी प्रकार की घटनाओं को तोड़-मरोड़कर 'पूना वैभव' में छपवाया गया था।
 
(इंदौर की प्राचीन फर्म घमंडसी जुव्हारमल के सदस्य स्व. श्री पदमसिंहजी श्यामसुखा से लेखक को प्राप्त जानकारी के आधार पर)

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