किराए वाले मकानों पर कर

इंदौर नगर पालिका जब 1870 में स्थापित हुई तो उसे प्रारंभिक राजकीय अनुदान के रूप में 12,000 रु. स्वीकृत किए गए थे। पालिका का प्रारंभिक कार्य स्वच्छता व मार्गों का रखरखाव करना था। इस अनुदान के साथ ही नगर पालिका को ऐसे मकानों पर कर लगाने की अनुमति दी गई थी, जिनसे मकान मालिकों को किराया मिलता था। इस प्रकार के करारोपण से नगर पालिका की वार्षिक आय 36,000 रु. आंकी गई थी।
 
राज्य का यह अनुमान गलत निकला, क्योंकि एक दशक बीत जाने के बाद भी नगर पालिका की आय केवल 33,350 रु. ही थी। काफी समय तक मकानों के मामलों में विवाद चलता रहा कि किस प्रकार के मकानों पर कर लगाया जाए? कर की राशि कितनी हो और इस व्यवस्था को कब से और कैसे प्रभावशील किया जाए?

दूसरी ओर इंदौर के मकान मालिकों के लिए यह कर नया था अत: वे चाहते थे कि इसे लागू करने का मामला जितना टल सके, टाला जाना चाहिए। इस कर को प्रभावशील करने से नगर के सभी अधिकारी व संपन्न नागरिक इस कर की चपेट में आने वाले थे अत: सबकी इच्छा के अनुकूल यह मामला टलता रहा।
 
इस कर के अलावा भी अन्य करों की वसूली में ढील बरती जाती थी अत: पालिका अधिकारियों ने आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए 1880-81 में विशेष प्रयास प्रारंभ किए, जिसके फलस्वरूप नगर पालिका की आय इसी वर्ष बढ़कर 37,367 रु. हो गई। आज के हिसाब से यह राशि कम प्रतीत हो सकती है किंतु उस समय जब इंदौर में 18 रु. तोला सोना मिलता था, यह राशि काफी मायने रखती थी।

नगर पालिका की आय में जब वृद्धि हुई तो व्यय भी बढ़ा और धीरे-धीरे उसने सकल आय की सीमा ही पार कर ली। इस अनियोजित आय-व्यय का ही परिणाम था कि 1887-88 में पालिका की आय 38,717 रु. 10 आने 6 पैसे थी जबकि उस वर्ष का व्यय 48,625 रु. 13 आने 6 पैसे था।
 
इस व्यवस्था पर गंभीरतापूर्वक विचार कर यह निर्णय लिया गया कि नगर पालिका को समस्त साधनों से होने वाली अनुमानित आय का पूर्व में ही आकलन किया जाए व तद्नुसार व्यय को नियोजित किया जाए। इस संकल्प को मूर्तरूप देने के लिए 1886-87 में नगर पालिका का प्रथम नियोजित बजट बनाया गया। इस नियोजन पद्धति का परिणाम था कि आगामी 2 वर्षों में ही पालिका की आय 58,891 रु. 15 आने 6 पै. तथा व्यय 55,872 रु. 5 आने 6 पैसे हो गया। इस प्रकार आय-व्यय का संतुलन स्थापित हुआ।

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