प्रशासकों द्वारा शासित नगर निगम : 1957-58 - 1994

प्रशासकों द्वारा नगर निगम संचालित करने का सिलसिला 1957-58 से आरंभ होता है, इस पद पर बैठने वाले पहले व्यक्ति थे श्री नारायणसिंहजी। इनको तब इसलिए यह दायित्व सौंपा गया था कि निर्धारित अवधि तक विधान के अनुसार इंदौर नगर निगम के निर्वाचन नहीं हो सके थे। शासन किसी भी नगर पालिका या निगम को प्रशासक के हवाले तभी करता है, जब किसी न्यायिक प्रक्रिया के चलते या अन्यान्य कारणों से निगम को भंग कर दिया जाए या निगम अपना कार्यकाल पूरा कर ले तो नई परिषद के गठन तक प्रशासक निगम प्रशासन चलाता है। इंदौर नगर निगम के इतिहास में एक लंबा अरसा (1971 से 1983) ऐसा गुजरा, जब परिषद का गठन नहीं हो सका और प्रशासक ही नियुक्त किए जाते रहे।
 
1968-69 में क्षणिक विराम आया तब कुछ अरसे के लिए के.जी. तेलंग और पुष्पकुमार दीक्षित निगम प्रशासक बने। 1965 में बनी निगम परिषदकी समाप्ति के पश्चात 12 वर्षों का वह समय भी आया कि नई परिषद का गठन नहीं हो सका और 27 प्रशासक निगम पर काबिज रहे। 1983 में नए निर्वाचन हुए और नई परिषद गठित हुई (भाजपा की पहली परिषद) और श्री राजेंद्र धारकर के महापौर नियुक्त होते ही निगम के 'प्रशासकीय युग' का अंत हुआ। पर भाजपानीत इस परिषद की समय समाप्ति के पश्चात 7 वर्षों में 10 और प्रशासक इंदौर नगर निगम पर काबिज रहो 1994 में नई परिषद के गठन के साथ और तब से अब तक (2016) जनप्रतिनिधि और उनके मुखिया (महापौर) ही इंदौर नगर निगम चला रहे हैं।
 
आइए जानें इन प्रशासकों को
 
दूसरी परिषद के गठन के बाद (1955) : श्री नारायणसिंह 1957-58 में।
 
नगर निगम निर्वाचन 1965 के बाद : श्री के.जी. तेलंग (1968), श्री पी.के. दीक्षित (1968-69)। तेलंग के प्रशासक नियुक्त होने से पूर्व कांग्रेस के श्री चांदमल गुप्ता महापौर थे। दीक्षित का कालखंड खत्म होने के साथ ही श्री गुप्ता पुन: महापौर बन गए।
 
1970-71 से 1982-83 के बीच के वर्षों में 27 बार प्रशासक नियुक्त हुए : सर्वश्री पी.के. दीक्षित (1970-71), टी.एन. श्रीवास्तव (1971), एस.के. शिंदे (71-72), टी.एन. श्रीवास्तव एवं एस.के. शिंदे (1972), अतुलसिन्हा (72-73), जे.के. साव (1973), अतुल सिन्हा (73-74), ए.वी. कविश्वर, एल.एन. मीणा (1974), एस. लक्ष्मीनारायण (74-75), एस.के. सूद एवं एस. लक्ष्मीनारायण (1975), वी.के. भद्र (1975-77), नरेश नारद (77-78), सुदीप बनर्जी एवं एस.आर. चौरे (1978), बी.बी. श्रीवास्तव (78-79), नरेश नारद (79-80), बी.बी. श्रीवास्तव (79-80), सतीश कंसल एवं के.एस. वर्मा (1980), बी.के. दास (80-81), एन.बी. पटवर्धन (81-82), चौधरी (82-83)।
 
19 अधिकारियों ने 12 वर्षों में 27 बार नगर निगम के प्रशासक का पदभार संभाला।
 
अंतत: फरवरी 1983 को नगर निगम के निर्वाचन संपन्न हुए और प्रशासक विदा हुए।
 
- डॉ. अमरसिंह (1987) से आर.एस. तिवारी (1994) तक 10 बार प्रशासक शासन : डॉ. अमरसिंह (1987), सर्वश्री मदनलाल श्रीवास (87-88), एस.एन. मीणा (88-89), सुधीरकुमार सूद (1989), धर्मवीरसिंह (89-90), एम.एस. उप्पल (1990-1993), प्रमोदकुमार दास (1993 अतिरिक्त कार्यभार), मदनमोहन उपाध्याय (1993 अतिरिक्त कार्यभार), चित्तरंजन खेतान (93-94) और आर.एस. तिवारी (1994)। 1994 में नए निर्वाचन हुए और 1994 के बाद के वर्षों से अब तक कोई प्रशासक नगर निगम में नहीं रहा।
 
नगर के महापौर (1994-2015)
 
निगम के पहले के निर्वाचनों में महापौर या मेयर उस दल का चुना जाता था जिस दल को परिषद में बहुमत प्राप्त हो। इस तरह का निर्वाचन अंतिम बार 1994 के निगम निर्वाचन में देखा गया जब कांग्रेस के मधुकर वर्मा को महापौर चुना गया। पर अगले निर्वाचन (1999) से इस प्रक्रिया में बदलाव आया और वह बदलाव यह कि 'नगर के प्रथम नागरिक' को इंदौर शहर का मतदाता ही चुनने लगा। मतदाता को 2 मत देने होते हैं, 1 अपने क्षेत्र या वार्ड के पार्षद प्रत्याशी को और दूसरा मत 'महापौर' प्रत्याशी को। और 1999 से शहर का मतदाता इसी प्रक्रिया से महापौर का चुनाव करता आ रहा है।
 
इस तरह से निर्वाचित पहले मेयर कैलाश विजयवर्गीय रहे। भाजपा के प्रत्याशी के रूप में उन्होंने कांग्रेस समर्थित सुरेश सेठ को पराजित किया। विजयवर्गीय के बाद इंदौर के महापौर पद पर डॉ. उमाशशि शर्मा (2004), कृष्णमुरारी मोघे (2009) और श्रीमती मालिनी गौड़ (2015) चुनी गईं। संयोग से शहर ने निर्वाचन के द्वारा जिन्हें मेयर चुना वे सभी भाजपा के हैं। इस संदर्भ में कांग्रेस अभी खाली हाथ ही रही है और यह भी एक संयोग ही है कि 1994 के बाद कांग्रेस निगम में अपनी परिषद बनाने मेंभी सफल नहीं हो पाई है जबकि 4 निर्वाचन हो चुके हैं।
 
मधुकर वर्मा बने मेयर : कांग्रेस के अंतिम मेयर के रूप में मधुकर वर्मा ने अपना नाम दर्ज कराया। निगम परिषद में विभिन्न दलों की स्थिति थी भाजपा 34, कांग्रेस 33, भाकपा 1 (सोहनलाल शिंदे) और भाजपा से निष्कासित बागी पार्षद रमेश गागरे। मेयर का चुनाव 5 जनवरी 1995 को होना था। कांग्रेस उदासीन थी और भाजपा असमंजस में। कांग्रेस की उदासीनता तो संख्या बल के कारण थी यदि उसे अपना 'महापौर' बनाना था तो शिंदे-गागरे का साथ होना अति आवश्यक था। और भाजपा असमंजस में इसलिए थी क्योंकि अपने महापौर के लिए उसे बागी पार्षद को भाजपा में वापस लेना और 'गागरे' की शर्तों को मानना पड़ता क्योंकि कामरेड शिंदे तो भाजपा का साथ दे नहीं सकते थे।
 
अंतत: कांग्रेस की मुश्किलें हल हो गई, पहले ढाई साल के लिए रमेश गागरे और दूसरे ढाई साल के लिए सोहनलाल शिंदे 'उप-महापौर' रहेंगे, यह शर्त मान ली गई। 69 पार्षदों ने मतदान किया मधुकर वर्मा को 35 तथा भाजपा के मधु वर्मा को 34 मत मिले जबकि उप-महापौर पद के लिए रमेश गागरे (भाजपा के बागी और पार्टी से निष्कासित) को 35 तथा भाजपा के ललित पोरवाल को 33 मत मिले। 1 मत तकनीकी त्रुटि के कारण रद्द कर दिया गया। मधुकर वर्मा महापौर और रमेश गागरे उप-महापौर का चुनाव जीत गए।
 
गागरे का समर्थन नहीं : भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री (तत्कालीन) सुंदरसिंह भंडारी तथा पार्टी हाईकमान ने निर्देशित किया था कि किसी भी हालत में बागी पार्षद रमेश गागरे का समर्थन नहीं लिया जाए क्योंकि इससे बागी होने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलेगा।
 
शहर ने चुना कैलाश विजयवर्गीय को 'महापौर' (1999)
 
यह पहली बार हुआ कि इंदौर का महापौर शहर की जनता द्वारा चुना गया, भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय ने कांग्रेस के प्रत्याशी सुरेश सेठ को हराया और इंदौर के 20वें महापौर बने। ईश्वरचंद जैन नगर के पहले महापौर थे, जैन को 1956 में कांग्रेस की निगम परिषद ने अपना महापौर चुना था। जिस वर्ष ईश्वरचंद जैन महापौर बने थे, 20वें महापौर कैलाश विजयवर्गीय का उसी वर्ष जन्म हुआ था, बीच के इन 43 वर्षों में (1956-1999) नगर ने जो 19 महापौर देखे थे, वे सभी निगम परिषद में बहुमत प्राप्त दल द्वारा चुने गए थे। यह सिलसिला जैन से आरंभ होकर मधुकर वर्मा (1994) के मेयर बनने तक चला।
 
मध्यप्रदेश मेंनगर निकायों के लिए नई व्यवस्था स्थापित करने के बाद पहली बार नए विधान के अनुसार 22 दिसंबर 1999 को इंदौर नगर निगम परिषद एवं महापौर के लिए मतदान हुआ। कांग्रेस अपने ही दल में मची खींचतान के कारण न अपने पार्षद प्रत्याशियों और न महापौर प्रत्याशी का चयन कर पाई। अनेक निर्दलीय उम्मीदवारों ने स्वयं को कांग्रेसी बताकर कांग्रेस के प्रॉक्सी उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। मतदान के 2-3 दिन पहले मेयर पद के निर्दलीय प्रत्याशी सुरेश सेठ को कांग्रेस का समर्थन देने के बयान प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राधाकिशन मालवीय ने जारी किए। इसका इतना भर नतीजा निकला कि सुरेश सेठ, भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय से हारने वालों में 'निकटतम पराजित' प्रत्याशी रहे।
 
महापौर पद के लिए 4,34009 मत गिरे, इनमें से 17,864 निरस्त हुए। विधि मान्य 4,16,145 मत महापौर पद के 10 प्रत्याशियों में बंटे। भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय को सर्वाधिक 2,62,788 मत मिले और वे नगर के पहले निर्वाचित मेयर बन गए। सुरेश सेठ 1,08,129 मत ही पा सके। बसपा के नासिर खान 21,249 मतों के साथ तीसरे क्रम पर रहे। विजयवर्गीय को विधिमान्य लगभग 64 प्रतिशत मत मिले।
 
जीत का अंतर घटा पर महापौर भाजपा का ही बना (2004)
 
भाजपा की डॉ. उमाशशि शर्मा ने कांग्रेस की शोभा ओझा को 21,520 मतों के अंतर से हरा दिया। जीत का अंतर विजयवर्गीय (1999) के मुकाबले घटा जरूर, परंतु अंतत: महापौर पद एक बार फिर भाजपा की झोली में ही गिरा। डॉ. शर्मा को 2,85,768 वोट मिले, जबकि श्रीमती ओझा को 2,64,248 वोट प्राप्त हुए। इस सीधे दिखने वाले संघर्ष के पूर्व प्रत्याशी चयन को लेकर भाजपा में अत्यंत ऊहापोह की स्थिति लंबे समय तक बनी रही- डॉ. उमाशशि शर्मा का नाम आसानी से अनुमोदन नहीं पा सका।
 
मोघे जीते अवश्य पर जीत कद के अनुरूप नहीं रही (2009)
 
इंदौर नगर निगम के महापौर निर्वाचन में क्षीण अंतर (3292 वोट) से जीत हासिल करते हुए कृष्णमुरारी मोघे ने निगम में भाजपा महापौर की विजय हैट्‌ट्रिक बनवा दी। वैसे निगम परिषद में भी भाजपा लगातार तीसरी बार सत्तारूढ़ हुई। मतगणना आरंभ होने के बाद जैसे-जैसे क्रम बढ़ता गया, वैसे-वैसे विभिन्न वार्डों में तो भाजपा प्रत्याशियों की स्थिति सुधरती गई, किंतु श्री मोघे शुरुआती दौर में कांग्रेस प्रत्याशी पंकज संघवी से 1426 मतों से पिछड़ गए थे। शह और मातका यह खेल 6 लाख 49 हजार 136 विधिमान्य मतों की गणना तक उतार-चढ़ाव के साथ जारी रहा और अंत भला तो सब भला की तर्ज पर अंतत: उन्हें 3292 मतों के अंतर से जीत मिल गई। मोघे को जहां 3 लाख 18 हजार 410 मत मिले, वहीं संघवी को 3 लाख 15 हजार 118 मत प्राप्त हुए। 22,419 मत निरस्त हुए।
 
भाजपा अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए संघर्षरत थी तो कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी। कांग्रेस ने निष्कासन का दंड झेल रहे पंकज संघवी को पार्टी में वापस लाकर सुनियोजित तरीके से टिकट देने की तैयारी कर ली थी।
 
मालिनी गौड़ को आसान जीत मिली (2015)
 
2015 के निगम निर्वाचन में महापौर पद आरक्षित हुआ महिला पिछड़ा वर्ग। भाजपा की ओर से क्षेत्र क्रमांक 4 से विधायक चुनी गईं श्रीमती मालिनी गौड़ का नाम सामने आया। कांग्रेस में अर्चना जायसवाल के नाम पर सहमति बनी। भाजपा ने नगर निगम निर्वाचन में 85 में से 65 वार्डों में सफलता हासिल कर परचम लहराया, ठीक इसी तरह 'महापौर' का निर्वाचन भी पार्टी के लिए अपेक्षाकृत आसान ही रहा। श्रीमती गौड़ ने कांग्रेस की अर्चना जायसवाल को 2 लाख 46 हजार 596 वोटों के अंतर से पराजित किया। विजयवर्गीय भीविधायक रहते हुए मेयर बने थे और श्रीमती मालिनी लक्ष्मणसिंह गौड़ भी।

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