जब केसर-क्यारियाँ सजकर मुस्कराने लगें, जब ग्राम्य अंचलों से रसीले, सुरीले, मीठे फागों की सुमधुर स्वर लहरियाँ उठने लगे और जब सुरम्य खेतों में सुनहरी दूध भरी मुलायम गेहूँ बालियाँ झूमने लगें तो समझो होली आ गई। होली एक महकता, मदमाता, मुस्कराता और मस्ती भरा पर्व है।
प्रकृति भी इस रंगीले पर्व पर अनगिनत रंग-बिरंगे सुगंधित प्रसाधन फूलों के रूप में सजाने-सँवारने लगती है। कहीं केसर, कनेर और कचनार की कोमल कलियाँ खिलकर शर्माने लगती हैं तो कहीं चम्पा, चमेली और चाँदनी चटककर हर्षाने लगती हैं। हर कहीं रंगों का ऐसा मनोरम दृश्य दिखाई देता है, मानो प्रकृति भी धरा पर अवतरित हो मानव के साथ होली मनाने के लिए मचल उठी हो।
होली रंगों से आपुरित, रंगों में रचा-बसा, रंगों को प्रसारित करता रंगीला उत्सव है। रंगों का प्रकृति से और मन से बड़ा गहरा संबंध है। विद्वानों ने रंगों को जो प्रतीकात्मक अर्थ प्रदान किए हैं, उसमें प्रकृति का विशिष्ट महत्व है।
आसमानी रंग धैर्य का प्रतीक हैं। हम कल्पना करें कि हो सकता है कभी मायूस मनुष्य ने अधीर होकर दूर तक फैले आकाश को निहारा होगा और आकाश ने उसके एकाकीपन का साथी बनकर धीरज बँधाया होगा, तभी से विशाल गगन का हल्का नीला रंग धैर्य का प्रतीक बन गया होगा यानी नभ की प्रकृति उसके रंग का प्रतीक बन गई।
गहरा रंग गति और चंचलता का प्रतीक है। हो सकता है किसी हताशा से हारे हुए मनुष्य ने वेगवति नदी के अनवरत प्रवाह से आगे बढ़ने की शिक्षा ग्रहण की होगी तब सहज ही नदी के गहरे रंग को गति, जोश व आवेग का प्रतीक मान लिया हो। हालाँकि जल हमेशा रंगहीन होता है, लेकिन अपने सम्मिलित स्वरूप में नदी गहरे हरे रंग को व्यक्त करती है और यह रंग नदी की प्रकृति की तरह जोश व गति को अभिव्यक्त करता है।
हरे-भरे लहलहाते खेतों को देखकर एक कृषक स्वाभाविक रूप से खुशी, उत्साह एवं उमंग से झूमने लगता है, क्योंकि यह उसके अथक परिश्रमस्वरूप गिरे स्वेद बिंदुओं का पारितोषिक होता है, इसलिए शायद खेतों के चमकते, खिले हुए रंग को ही आत्मिक हर्षोल्लास व हरियाली का प्रतीक मान लिया गया।
किसी सुर्ख जवाँ कुसुम को देखकर मानव मन में जब आकुल स्फुरण हुआ होगा और उसके चेहरे पर रक्तिम आभा छा गई होगी, तब लाल रंग को ही उत्तेजना का प्रतीक मान लिया। लाल और हरे रंग के मिश्रण से निर्मित जामुनी रंग के रासायनिक रहस्य को जब कोई समझ नहीं सका होगा तो इस रंग को ही रहस्यात्मकता का प्रतीक मान लिया।
लाल और सफेद रंग के मिलने से बना रंग अतिशय कोमलता का प्रतीक है, क्योंकि यह रंग गुलाबी है और गुलाब कभी कठोर देखा है आपने? इसकी सुकोमलता पर तो अनगिनत रचनाएँ साहित्य में मिलती हैं।
श्वेत चंद्रमा, श्वेत कपोत, श्वेत खरगोश, श्वेत हंस - ये सब शांति धारण किए हुए मानव हृदय में भी शांति को ही प्रसारित करते हैं। इन्हें देखने मात्र से असीम शीतल शांति का अनुभव होता है। इसलिए सफेद रंग इनकी प्रकृति के अनुरूप शांति का प्रतीक है।
अंगारों से दहकते 'टेसु वनों' से जब किसी राजा का विजय काफिला गुजरा होगा और उसी में रंगा कर जब राजा ने विजय पताका लहराई होगी फिर अपने राज-बागानों में खिली केसर की सुगंध में रचे व्यंजन बनवाए होंगे तो अनजाने ही केसरिया रंग को राजसी ऐश्वर्य एवं वीरता का प्रतीक मान लिया गया होगा।
राज वैभव जब फीका लगने लगता है तब त्याग की उदात्त चेतना जागृत होती है। उसमें जब युद्ध से विरक्त हो, शांति के श्वेत रंग की अनुभूति शामिल होती है तो परिणामस्वरूप प्राप्त रंग ही त्याग का प्रतीक बन जाता है। फिर जब कालांतर में ऋषि, मुनि, साधु-संत, संन्यासी ने इसे धारण किया तो इस रंग की प्रतीकात्मकता सुनिश्चित हो गई।
जब खेतों में पीली सरसों की फसल लहराने लगती है तो फूली सरसों के स्वागत में खुशियों भरा उत्सव मनाया जाता है। गाँव के सारे लोग एकत्र हो मिलन व आत्मीयता के गीत गाते हैं, शायद इसलिए पीले रंग को परस्पर मिलन और आत्मीयता का प्रतीक मान लिया गया है।
काला रंग निराशा, मलिनता और नकारात्मकता का प्रतीक है शायद इसीलिए कि अँधेरा स्याह होता है और अँधेरे में आदमी बेबस हो जाता है। काला कौआ गंदगी पर निवास करता है और कर्कश आवाज करता है और कोयला तो छूने भर से हाथ काले कर देता है।
बहरहाल, कल्पना को विराम दें, यथार्थ पर दृष्टिपात करें। आज रंगों का सुहाना संसार अगणित उपलब्धियों और ऊर्जा का संवाहक बना हुआ है। लेकिन इसके बावजूद रंगों के साथ कुछ इस तरह के नकारात्मक और विपरीत क्रिया-कलाप जुड़ गए हैं कि वर्तमान में उनके प्रतीकात्मक अर्थ भी परिवर्तन होने लगे हैं। जैसे सफेदपोश मानव, सफेद झूठ, सफेद कॉलर, लालफीताशाही, काला धन आदि इन आधुनिक शब्दों में निहित अर्थ इतने तामसिक और अपवित्र हैं कि अच्छे-भले रंगों से ही मानस में विषम छवि बनने लगी हैं।
कहने को तो फिल्म उद्योग रूपहली दुनिया के नाम से पुकारा जाता है, लेकिन परदे के पीछे की कालिमा किसी से छिपी नहीं है। रंगबिरंगी चमक की पृष्ठभूमि में कैसे-कैसे काले कारनामों को अंजाम दिया जाता है। और रंगों के बजाय एक-दूसरे पर कितने कीचड़ उछाले जाते हैं, सब जानते हैं। ये कैसे धूमिल-धूसर रंग हैं, जो नैतिकता, आत्मीयता और सांस्कृतिकता के धवल रंगों में मिलकर वातावरण को संक्रमित कर रहे हैं और हम विवश से दर्शक बने हुए हैं।
मूल्यों के निरंतर टूटने से भी उच्छृंखल रंग फैल रहा है और सामाजिक सुरक्षा का 'वटवृक्ष-विश्वास' बोन्साई हो गया है। इस सिकुड़न का भी विलुप्तप्राय रंग है जिसकी महीन रेखाएँ भी अब सिमटने लगी हैं। कहीं निरूपायता में तोड़ी गई खंडित मानवता का मटमैला रंग बिखरा हुआ है और संवेदनाओं की शुभ्र भव्यता का रंग हृदय से रिसकर अँजुरियों में चुल्लूभर बचा है।
संस्कारों की समग्रता का सुंदर रंग अब चुटकियों में शेष है और विकृतियों का विद्रुप रंग चहुँओर ऊँची पहाड़ियों में परिवर्तित हो उन्नति में अवरोधक बन रहा है। परस्पर सहयोग और स्नेह का स्निग्ध रंग 'चूर्ण' में परिणत हो मात्र सूरत देखकर तिलक लगाने जितना बचा है और प्रतिद्वंद्विता, द्वेष, स्वार्थ व जलन के खुरदुरे रंगों से घर के गोदाम अटे पड़े हैं।
हिंसा और अत्याचार के वीभत्स रंग में आए दिन गली-मोहल्ले भीगते हैं और कला सृजन व संस्कृति के रंगों की फुहारें उड़ाती चंद दीर्घाएँ ही परिलक्षित होती हैं। चौराहों पर तनाव, पीड़ा और आँसुओं के फुव्वारे सज्जित हैं जबकि वास्तविक खुशी, आनंद और उल्लास के जल-प्रांतर सूखकर सिमट गए हैं।
महानगरों की सीमा रेखा पर झुग्गी बस्तियों से गरीबी, भुखमरी और बेकारी के स्रोत फूटते जा रहे हैं और दूसरी तरफ विलासिता, समृद्धि और खुशहाली की रंग-बरखा में अट्टालिकाएँ भीग रही हैं। ये कैसा वैषम्य है कि एक ओर तो वैमनस्य की अनंत जलराशि विचित्र रंगों की लहरों में आलोड़ित होती चली जा रही हैं और आस्था, दोस्ती व संबंधों के सुंदर, श्वेत चाँदी से झरने बस कहीं-कहीं, भी-कभी नजर आते हैं।
समाज का बुद्धिजीवी युवा वर्ग, उन्मुक्त विचार, अपार हर्ष और जोशीले गुलाल के गुबार नहीं उड़ाता बल्कि सुखहीन व मंथर गति से रेंगते हुए मात्र व्यवस्थाओं को कोसकर जहरीले धुएँ के छल्ले बनाता है। इस देश की रंगीली 'राधाएँ' अब सम्मान के टेसु रंगों में नहीं नहाती बल्कि तिरस्कार और उपेक्षा के काले-भूरे पानी में भीगकर प्रतिदिन अजीब-सी चिपचिपाहट बर्दाश्त करती है।
भ्रष्टाचार और चरित्रहीनता का गहरा काला स्लेटी रंग इस कदर व्याप्त है कि एक साधारण आदमी लाख बचकर भी चलना चाहे तो उसके दाग-धब्बे इस पर लग ही जाते हैं और सदाचार व उत्तम चरित्र का रंग मात्र इतिहास के पन्नों पर कुछ बिंदुओं के रूप में बचा है।
समूचा समाज एक ऐसे बुद्धि-शैथिल्य का शिकार होता जा रहा है कि अब किसी भाषा का किसी भी शैली में लिखा गया कोई भी शब्द इसमें भाव रंग उत्पन्न नहीं करता, कोई तरंग, कोई उमंग उदीप्त नहीं करता।
क्या होली जैसा रंगीला पर्व हमें मौका नहीं देता कि हम फूल, बच्चे, चिड़िया, आकाश, गाँव, खेत, संगीत, कला, साहित्य, ईश्वर और आध्यात्म से प्यार, मासूमियत, उत्साह, धैर्य, मिलन, श्रद्धा, पवित्रता, अंतरचेतना, अंतरबोध व ईमानदारी जैसे खूबसूरत रंग आत्मसंचित करें एवं जिज्ञासा व ज्ञानार्जन का रंग हथेलियों में लेकर उसे 'कर्म-संस्कृति' के अबीर-गुलाल व केसर में मिलाकर मस्तक पर लगाएँ?
न जाने कितने ऐसे रंग हमारे आसपास बिखरे हुए हैं, जिन्हें सहेजना हैं और न जाने कितने ऐसे, जिन्हें मिटाना हैं। जीवन से अर्जित भाव रंगों की होली मनाने में ही होली की रचनात्मक सार्थकता है। वैसे कृत्रिम रंगों की होली का भी अपना ही रंग होता है, यदि सौजन्यता से खेली जाए तो इसकी सार्थकता भी कुछ कम नहीं।