आजादी के 61 वर्ष बाद साहित्य

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भारतीय साहित्य ने हमेशा से विश्व पटल पर अपनी गौरवमयी उपस्थिति प्रखरता से दर्ज कराई है। आजादी से पूर्व हमारे समक्ष दो प्रमुख चुनौतियाँ थी। एक भारत को स्वतंत्रता दिलाना और दूसरी उस शोषित समाज को जागृत करना जिसे यह बोध भी नहीं था कि वह शोषित और दमित है। अपने शोषण को ही अपनी नियति मान लेने वाला यह समाज राष्ट्र के समक्ष एक बड़ी चुनौत‍ी थी।

उस समय इन चुनौतियों का सामना देश की तीन प्रमुख धाराओं ने किया। एक धारा उन संतों-महात्माओं की थी जिनके प्रवचन-उपदेश ने जन-जन को एक करने का महत् दायित्व निभाया। दूसरी धारा उन राजनेताओं की थी जिन्होंने अपनी दबंगता से अँग्रेज शासन को नाको चने चबवा दिए थे। तीसरी महत्वपूर्ण धारा देश के प्रबुद्ध साहित्यकारों पत्रकारों की थी जिनकी लेखनी ने ओजस्वी आलेखों के माध्यम से क्रांति को जन्म दिया।

पहली धारा में मुख्य रूप से दयानंद सरस्वती महादेव गोविंद रानाडे, विवेकानंद जैसे तेजस्वी पुरुष उभरें दूसरी धारा में गाँधीजी से लेकर नेहरू, तिलक, लाला लाजपतराय, विपिनचंद्र पाल जैसे नेताओं की लंबी श्रृंखला थी।


तीसरी धारा के सशक्त हस्ताक्षरों का नाम गिनाने से पूर्व यह दर्ज करना यहाँ जरूरी है कि जब इतिहास लिखा गया तो पहली दो धाराओं के योगदान को तो ध्यान में रखा गया लेकिन तीसरी धारा के रचनात्मक अवदान को सिरे से भूला दिया गया। आजादी के इन परवानों ने अपने खौलते हुए आलेखों से जनता में जोश भर देने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उस दौरान रचे साहित्य में तत्कालीन परिस्थितियाँ सशक्त अंदाज में व्यक्त हुई है।

आजादी के बाद इस देश के सामने नई चुनौतियाँ और संकट दैत्याकार के रूप में खड़े थे। युद्ध और अकाल की त्रासदी ने देश की अर्थव्यवस्था जर्जर कर दी थी। एक तरफ राष्‍ट्र के पुनर्निर्माण का लक्ष्य सामने था वहीं दूसरी तरफ सांप्रदायिकता के अंग्रेजों द्वारा घोले जहर ने जनमानस को ग्रस्त कर लिया था । ‍िनर्वासन की पीड़ा झेल रहे नागरिकों की व्यथा उन दिनों के साहित्य में मार्मिकता से पेश हुई। फिर चाहे वह यशपाल का 'झूठा सच' हो या साहनी का 'तमस'।


आजादी के बाद मिले बिखरे राष्‍ट्र को समेटने की जिम्मेदारी नेतागण उतनी दक्षता से नहीं निभा सकें जिसकी उनसे उम्मीद थी । अगर उस वक्त समाज, संस्कृति, भाषा, परिवेश को व्यक्त करता रचनात्मक साहित्य न होता देश जर्रे-जर्रे बिखर चुका होता। उस वक्त के साहित्य का ही यह प्रखर योगदान रहा कि देश तमाम आक्रमणों को सहजता से झेल गया।

आजादी के पूर्व साहित्य एक पूजा के समान था। उनके सामने एक लक्ष्य था। अँग्रेज सरकार के विरुद्ध लिखना और जनता को जागरूक करना। मगर आजादी के बाद साहित्यकारों को छोड़कर हर क्षेत्र में पतन की दीमक लग गई। वो क्षेत्र जो मिशन हुआ करते थे व्यवसाय के रूप में स्वीकार किए जाने लगे। यहाँ तक भी ठीक था कि जो राजनीति, पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र समाजसेवा के लिए चुने जाते थे उन्हें व्यवसाय मान लिया जाता लेकिन उस व्यवसाय की गुणवत्ता बनाए रखने की जिम्मेदारी सिवाय साहित्य के कोई नहीं निभा सका।

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राजनीति और प‍त्रकारिता व्यवसाय से आगे चलकर 'बिकाऊ' हो गए लेकिन साहित्य ने अपने पारंपरिक मूल्यों और प्रतिमानों से समझौता नहीं किया। साहित्य ने हर रूप, हर रंग में स्वयं को ढालकर भी अपनी लेखनी की शुचिता को बरकरार रखा।

आजादी के बाद साहित्यकारों ने विविध सामान्य ‍िवषयों को अपनी सोच और कल्पनाशक्ति से विशिष्‍ट बनाया। यही वह समय था जब इस देश के साहित्यकारों की लेखनी की नोंक पर वो सवाल आए जो मर्यादा और नैतिकता की दुहाई देते हुए वर्जित मान लिए गए थे। चाहे 'पहला गिरमि‍‍टिया' हो या 'नाच्यौ बहुत गोपाल' ।

शरतचंद्र, रांगेय राघव, महाश्वेता, इस्मत चुगताई, अज्ञेय, भीष्म साहनी, श्रीलाल शुक्ल, दुष्‍यंत कुमार, गुलेरी, अमृतलाल नागर जैसे नामों ने लेखन का नया इंद्रधनुष रचा। साहित्य की नवीनतम विधाओं को जन्म भी आजादी के बाद ही मिला। आजादी के बाद का यह कारवाँ न थमा न रूका न झुका अपितु नित नवीन प्रयोगों के साथ बढ़ता चला गया।

आजादी के बाद जिन रचनाकारों की सुनिश्चित पहचान बनी उनमें निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, मोहन राकेश, अमरकांत, राजेंद्र यादव, विद्यासागर नौटियाल, रेणु, रांगेय राघव, परसाई , मुक्तिबोध, कृष्णा सोबती, भीष्‍म साहनी, मार्कण्‍डेय जैसे नाम प्रमुखता से गिनाए जा सकते हैं।

सबसे ज्यादा उन्नति महिला लेखन और महिलाओं पर हुए लेखन को लेकर दिखाई दी। स्त्री विमर्श अब एक जुमला नहीं ‍बल्कि अभियान बन गया। सुभद्राकुमारी चौहान, सरोजिनी नायडू , आशापूर्णा देवी , महादेवी वर्मा से आरंभ यह अभियान, महाश्वेता, शिवानी, अमृता प्रीतम जैसे खूबसूरत पड़ावों से गुजरते हुए मृदुला गर्ग , मैत्रेयी पुष्पा, मालती जोशी, मन्नु भंडारी, ममता कालिया, चित्रा मुद्‍गल, नासिरा शर्मा, पद्‍मा सचदेव, सूर्यबाला, प्रभा खेतान, अलका सरावगी, मृदुला सिन्हा, उषा‍‍किरण खान, उर्मिला शिरीष, मेहरून्निसा जैसे नामों के साथ नए नए सोपान तय कर रहा है ! अरुधंति और झुंपा जैसे सितारें भविष्य की स्वर्णिम रश्मि बन कर उभरें हैं ।

आजादी के बाद सबसे प्रमुख नई कहानी के आंदोलन ने भारतीय साहित्य में स्पष्‍ट जीवनदृष्‍टि वाली सार्थक रचनाओं का समावेश किया।
  आज अत्याधुनिक उपकरणों ने जहाँ 'पेपरलेस-पेनलेस' अवधारणा को जन्म दिया है। वहीं वैचारिक प्रखरता, संवेदना और संवाद के सम्मिलन की सुनहरी आशा के रूप में इंटरनेट ने साहित्य को विशाल आकाश दिया है अपने पंख फैलाने के लिए....      

चाहे 'ग्लोबलाइजेशन' जैसा शब्द विगत दस-बारह वर्षों में हमने सुना हो लेकिन लेखनी के अंतर्राष्ट्रीयकरण का आरंभ तब ही हो चुका था जब साहित्यकार शताब्दियों के संस्कार बनाम बाध्यता के संघर्ष के मंथन से छटपटाकर बाहर आना चाह रहे थे। नि:संदेह विदेशी साहित्य का इसमे अहम् योगदान रहा।

आज अत्याधुनिक उपकरणों ने जहाँ 'पेपरलेस-पेनलेस' अवधारणा को जन्म दिया है। वहीं वैचारिक प्रखरता, संवेदना और संवाद के सम्मिलन की सुनहरी आशा के रूप में इंटरनेट ने साहित्य को विशाल आकाश दिया है अपने पंख फैलाने के लिए। आज नित नवीन वेबसाइट्‍स, पोर्टल और ब्लॉग की सुविधा ने साहित्य जगत में अनूठी ऊर्जा और उत्साह का संचार कर दिया।

कल तक व्यक्तिगत डायरी में जो स्वर्णिम शब्द दर्ज होते थे। आज वे सार्वजनिक होकर ज्यादा प्रफुल्लित है। अनुभूतियों का जो सुकोमल फूल कभी सिरहाने रखा दबा होता था आज वह खिलकर मुस्कुरा रहा है।

वो छोटी-छोटी‍ बातें जो कल तक साहित्य में अवांछित थी आज सहज बनकर अपना मुकाम हासिल कर रही‍ है। साहित्य आजादी के बाद थोड़ी धीमी गति से बढ़ा लेकिन आज के भार‍त में उसकी 'उड़ान' मानसिक दबावों से पूर्णत: मुक्त होकर जी भर कर साँस ले रही है। साहित्य के सुनहरे कल को हम स्पष्‍ट देख रहे हैं क्योंकि आज उसकी रूपहली दमक हमारे सामने हैं।