भारत को आजाद हुए आज 65 वर्ष हो गए हैं। मुहावरे की भाषा में अगर कहें तो जिस भारत में 1947 में सुई भी नहीं बनती थी, वह आज विश्व की एक महाशक्ति बनने की राह पर है। करीब दो दशक पहले जिस देश का विदेशी मुद्रा का खजाना खाली हो गया था, जिसे अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था और अपनी मुद्रा रुपए का अवमूल्यन करना पड़ा था, उसी देश ने अमेरिका जैसी महाशक्ति को 41 अरब डॉलर का कर्ज दिया हुआ है।
यह जानकर किस भारतीय को गर्व नहीं होगा? भारतीय अर्थव्यवस्था 2008 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी को भी काफी कुछ सफलता के साथ झेल गई। आज भी वह 8 प्रतिशत सालाना की विकास दर से बढ़ रही है। भारत अंतरिक्ष में भी एक ताकत बनकर उभरा है, जबकि परमाणु विस्फोट करके उसने पांच देशों के परमाणु क्लब में औपचारिक न सही, मगर अनौपचारिक स्थान तो प्राप्त कर ही लिया है।
बेशक भारत चीन से काफी पीछे है, मगर उसने अपनी संभावनाएं इतने अच्छे ढंग से रेखांकित कर दी हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को बार-बार अपनी युवा जनता का आह्वान करना पड़ता है कि जाग जाओ नहीं तो भारत और चीन तुमसे आगे निकल जाएँगे।
मगर आज जितनी चुनौतियां भारत के सामने हैं, उतनी न तो चीन के सामने हैं और न ही अमेरिका के। अपने जन्म के तत्काल बाद से ही भारतीय राष्ट्र-राज्य अलगाववाद की समस्या से जूझ रहा है, जिसने धीरे-धीरे खतरनाक आतंकवाद का रूप ले लिया है। वह अफगानिस्तान-पाकिस्तान के पड़ोस में रह रहा है, जो दुनिया में आतंकवाद की सबसे बड़ी स्थली हैं।
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भारत ने 1989 के आम चुनावों से पहले कश्मीर और पंजाब के आतंकवाद को कुछ हद तक काबू में कर लिया था, मगर कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबैया सईद के अपहरण और उसे छुड़ाने के लिए की गई सौदेबाजी के बाद जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद का जो चक्र शुरू हुआ, उसने भारतीय राष्ट्र-राज्य को हिलाकर रख दिया। इस पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने हमारी संसद तक को निशाना बनाने की कोशिश की। लेकिन, इधर आतंकवाद का एक नया चेहरा सामने आया है।
पी. चिदम्बरम ने रहस्योद्घाटन किया था कि भले ही उनके प्रेरणास्रोत भारत के बाहर हों, मगर अब भारत में भी आतंकवादी बनने लगे हैं। उनका कहना है कि भारत में आतंकवादियों के कई मॉड्यूल सक्रिय हैं और पुणे की जर्मन बेकरी पर आतंकवादी हमला करने वाला ऐसा ही एक मॉड्यूल इंडियन मुजाहिद्दीन का था। मुंबई में तीन आतंकवादी हमलों को अंजाम देने में भी इंडियन मुजाहिद्दीन का हाथ माना जा रहा है।
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ये लोग प्रतिबंधित मुस्लिम छात्र संगठन सिमी के ही लोग हैं और अभी तक सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों को इस बात की पूरी-पूरी जानकारी नहीं है कि ये लोग भारत में कहां-कहां सक्रिय हैं और कहां-कहां इनके तथाकथित स्लीपिंग सेल हैं। बदकिस्मती से जेहादी आतंकवाद की प्रतिक्रिया में हमारे यहां अति दक्षिणपंथी फासिस्ट आतंकवाद भी पनपने लगा है, जिसका प्रमाण है मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट कांड में नई चार्जशीट दाखिल होना, जिनमें हिन्दू लोगों के नाम आए हैं।
इस आतंकवाद ने हमारे सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों और हजारों निर्दोष नागरिकों, जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं, के साथ-साथ हमारे दो-दो प्रधानमंत्रियों इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की भी बलि ले ली है। इंदिरा गांधी पंजाब के खालिस्तानी आतंकवादियों का शिकार हुईं तो राजीव गांधी श्रीलंका के तमिल मुक्ति चीतों का।
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हमारे उत्तर-पूर्वी राज्य भी आतंकवाद की चपेट में रहे हैं। इनमें उल्फा, बोडो और नगा विद्रोहियों ने बेहद कत्लेआम किया है। देश में नक्सलवादियों को छोड़कर आतंकवादियों-अलगाववादियों के जम्मू और कश्मीर, असम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल, त्रिपुरा आदि में छोटे-बड़े 180 के करीब संगठन हैं।
भारतीय राष्ट्र-राज्य इन अलगाववादी-आतंकवादी संगठनों से तो फिर भी अपनी सेना, सुरक्षा बलों, राजनीतिक सूझबूझ और राजनीतिक संवाद के जरिए सफलतापूर्वक निपट रहा है, मगर नक्सलवादियों की चुनौती सबसे बड़ी है।
इस तरफ हमारा ध्यान भी कम है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एकाधिक बार कह चुके हैं कि नक्सलवाद भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। देश के 180 जिलों यानी भारत के भूगोल का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा नक्सलवादियों या माओवादियों के कब्जे में है, जो देश के 10 राज्यों-उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश आदि तक फैला हुआ है। इस इलाके का नाम ही 'रेड कॉरिडोर' पड़ गया है। कुल नक्सल प्रभावित इलाका 92 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है।
एक अनुमान के अनुसार कुल 30 हजार सशस्त्र नक्सली हैं जिसका नियमित कॉडर कम से कम 50 हजार लोगों का है। इनके पास आधुनिक आग्नेयास्त्र हैं और जगह-जगह बारूदी सुरंगों का जाल बिछाकर ये हमारे सुरक्षा बलों को छकाते रहते हैं। अप्रैल 2010 में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा इलाके में दो बड़े हमले किए थे, जिनमें केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 76 लोग मारे गए थे। इन तमाम जिलों में रहने वाले ग्रामीण और आदिवासी नक्सलवादियों के रहमो-करम पर जीते हैं। उनकी समानांतर व्यवस्था है।
नक्सलवादी लोगों से टैक्स वसूलते हैं, तथाकथित वर्ग शत्रुओं का सफाया करते हैं और अपनी अदालतें बैठाकर तथाकथित न्याय करते हैं। वे जंगल-वारफेयर में बार-बार अपनी श्रेष्ठता साबित कर चुके हैं और कई बार जेलों पर हमले करके अपने साथियों को छुड़ा ले गए हैं। इन्हीं नक्सलियों ने 2009 में लालगढ़ में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार को अपनी ताकत दिखाई थी।
कई बार नक्सलियों से हथियार रखने और बातचीत करने की अपीलें की गई हैं, मगर बात प्रायः नहीं बनती। अब तो चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग की विचारधारा से प्रेरणा लेकर नक्सलवादी खुलेआम सशस्त्र क्रांति की बात करने लगे हैं, हालांकि खुद चीन में आज माओ का नाम लेने वाले विलुप्त होते जा रहे हैं। इसे समझा जाना चाहिए।
नक्सलवाद 1967 के आसपास पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी जिला दार्जिलिंग नामक स्थान से शुरू हुआ था, जब चारू मजूमदार और कनु सान्याल जैसे मार्क्सवादियों ने भूस्वामियों की जमीन उन्हें जोतने वाले खेतिहर मजदूरों को सौंपने की माँग की। उस समय सीपीएम मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी (कांग्रेस) की सरकार में शामिल हो गई थी और ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री बनाए गए थे। कनु सान्याल ने भूस्वामियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किए और यह उम्मीद की कि सरकार में चूंकि सीपीएम शामिल है, इसलिए आंदोलनकारियों का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
मगर सरकार ने करीब 1500 पुलिसकर्मियों को नक्सलवाड़ी में ड्यूटी पर लगा दिया। कनु सान्याल को उनके समर्थकों के साथ पकड़कर जेल में डाल दिया गया। अनेक समर्थक जंगलों में जा छिपे। यहीं से वंचितों, आदिवासियों, खेतिहर मजदूरों के हक में राज्य के खिलाफ हथियार उठाने का नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इस घटना से बहुत खुश हुई और उसने सोचा कि भारत में सशस्त्र क्रांति का बीज पड़ गया है। इससे पहले श्रीकाकुलम (आंध्रप्रदेश) में 1949 में सशस्त्र कम्युनिस्ट क्रांति का प्रयास विफल हो गया था।
नक्सलवादी आंदोलन के करीब-करीब साथ ही आंध्रप्रदेश में भी इसी तरह का आंदोलन तेलंगाना के इलाके में शुरू हो गया। जल्दी ही देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले खाते-पीते घरों के छात्र इस आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए। 1967 से 1975 तक चला आंदोलन का पहला चरण अंततः विफल साबित हुआ। अकादमिक बहसों ने इस आंदोलन को कई गुटों में विभक्त कर दिया था। स्थिति यह थी कि 1980 के दशक के शुरू में भी करीब 30 नक्सलवादी ग्रुप भारत में सक्रिय थे।
इसके कोई एक-डेढ़ दशक बाद नक्सलियों ने अपने को एक बार फिर नए सिरे से संगठित करना शुरू किया। बाद में सभी ग्रुप एक झंडे के नीचे काम करने लगे, जिसका नाम माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर पड़ा। यही आंदोलन भारत के 40 प्रतिशत हिस्से पर काबिज और बाहर से ताकतवर दिखते भारत की पोल खोल रहा है। इसका नेपाल के माओवादियों से भी पूरा तालमेल है।
आज नई आर्थिक नीतियों और सुधारों के कारण बेशक भारत ने प्रगति की है, लेकिन आर्थिक विकास का लाभ छनकर गरीब से गरीब वर्गों तक नहीं पहुंच पा रहा है
इससे हमारे समाज में गरीबी और बेरोजगारी से भी ज्यादा गैरबराबरी बढ़ी है। आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ देश में भ्रष्टाचार में भी भयानक वृद्धि हुई है। जल, जंगल और जमीन के मुद्दे आज सब जगह चर्चा में हैं। आदिवासियों और गरीबों को आज अपने इलाकों से बेदखल किया जा रहा है। उनकी रोजी-रोटी के साधन छीने जा रहे हैं। पर्यावरण की कीमत पर आज धड़ाधड़ विकास किया जा रहा है और बड़ी-बड़ी कंपनियां जमीन से खनिज संपदा निकालने की होड़ में हैं।
वनों को काटा जा रहा है। शहरीकरण के कारण खेती की जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है, जिससे खेतिहर मजदूर शहरों की ओर भागने को विवश हो रहे हैं। गरीब को हमारे समाज में न्याय नहीं मिलता। गवर्नेंस का अभाव है। हजारों लोग जेलों में बंद हैं मगर उनके मुकदमे शुरू नहीं हो रहे हैं। इन सामाजिक-आर्थिक हालात के चलते नक्सलवाद को एक तार्किक-न्यायिक आधार मिल जाता है।
बदकिस्मती से सरकार भी इस समस्या को कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में ही लेती है।
इन आंदोलनों में मुठ्ठी भर देश विरोधी भी हो सकते हैं, मगर ज्यादातर तो गरीब आदिवासी लोग ही शामिल हैं। इसलिए राज्य को इन्हें समझा-बुझाकर मुख्यधारा में लाना चाहिए और वे समस्त कारण समाप्त करने चाहिए जो एक निर्दोष नागरिक को नक्सली बनाते हैं। एक बड़ी पहल तो केंद्र को ही करनी होगी। सिर्फ समस्या को बड़ा बताने भर से तो समस्या का हल नहीं निकलेगा।