आजादी के बाद से विकास की अवधारणा एक सी नहीं रही है, इसमें निरंतर परिवर्तन आया है। विकास की अवधारणा में हुए इस बदलाव का गहरा रिश्ता मौजूदा समय की समस्याओं से है। सबसे बड़ी समस्या के रूप में नक्सलवाद या माओवाद को गिनाया तो जाता है, इससे लड़ने के लिए बात भी की जाती है लेकिन जिन वजहों से यह मौजूद है, उन्हें बढ़ाने वाली नीतियों को ही पूरे जोर-शोर से लागू किया जा रहा है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उपेंद्र बख्शी कहते हैं कि यह देश दो हिस्सों में बंटा है-इंडिया और भारत। भारत ही है विकास से अछूता-उपेक्षित और इसी वजह से विद्रोह की भावना वहां जन्म ले रही है।
आज जो इलाके माओवाद से प्रभावित बताए जाते हैं, वहां किसी भी किस्म का विकास नहीं हुआ है। ये सारे इलाके अधिकांशतः आदिवासी-बहुल हैं। नीतियों का पूरा ढांचा ही यहां रहने वालों के खिलाफ तैयार किया गया है। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि आदिवासियों के सारे इलाके खनिज संपन्न हैं।
यहां से अकूत संपत्ति खनिज के रूप में निकाली जा रही है। जिस तेजी से इन इलाकों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के प्रस्ताव आ रहे हैं, वह परेशान करने वाला है। देखकर लगता है कि हम उन्हें लूट का लाइसेंस देने के लिए तैयार बैठे हुए हैं। कहीं भी कोई यह सवाल नहीं उठाता है कि आखिर देश को क्या मिल रहा है? ऐसा कहीं नहीं हो रहा। विदेशी हमारे देश में आ रहे हैं, हमारी जमीन का खनन करके खनिज ले जा रहे हैं और तमाशा देखिए कि हम ये सब उन्हें तकरीबन मुफ्त या फिर अंतरराष्ट्रीय बाजार से बेहद कम दामों पर दे रहे हैं।
क्यों? आखिर क्यों और कब तक हम अपने संसाधनों, अपने जन-जंगल-जमीन का ऐसा शोषण क्यों होने दे रहे हैं? पढ़िए अगले पेज पर...
आदिवासी आजादी के इतने सालों बाद भी वैसे ही गरीब है, तमाम योजनाओं से वंचित है और इसके बावजूद हम उन्हें उनकी जमीन से उनकी जिंदगी से बेदखल करने में लगे हुए हैं। क्या यही विकास उन्हें आजाद भारत में मिलना चाहिए।
अब उड़ीसा के पॉस्को को ही लीजिए। यहां सारे नियमों को धता बताकर, हम विदेशी कंपनी के लिए सारे रास्ते खोल रहे हैं। सीधा सा सवाल है कि इससे किसका विकास हो रहा है? देश का नहीं हो रहा, क्योंकि वह बहुत कम दर पर खनिज विदेश बेच रहा है। आदिवासियों का नहीं हो रहा, क्योंकि वे बेदखल हो रहे हैं। फिर विदेशी कंपनी के मुनाफे और उसके विकास को हम अपना विकास किस लिहाज से कह रहे हैं?
यहां मैं यह जरूर कहना चाहूंगी कि लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया में भी बहुत दोष हैं। उसने भी सारी बहस विकास और विकास विरोधी के बीच बांट दी है। अगर आप पॉस्को का विरोध करें तो आप विकास विरोधी हो जाते हैं। आजादी के इतने साल बाद यह भी एक बड़ी चुनौती है कि हमने, मीडिया ने सत्य की खोज करनी बंद कर दी है। इसे हम कब वापस ला पाएंगे, कहना मुश्किल है।
क्यों है विकास के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता पढ़िए अगले पेज पर
खुले बाजार और खुली प्रतियोगिता का आलम यह है कि हमने अपने राखी-होली जैसे त्योहारों पर राखियों और पिचकारियों तक का कारोबार चीन को दे दिया है। यह कैसा विकास है? क्या हम ये सब भी खुद नहीं बना सकते?
मुझे पता चला है कि इस बार देश में राखियां ज्यादातर चीन से बनकर आई थीं। यानी हमारे देश का छोटा कारोबार खत्म किया जा रहा है। जो लोग इस कारोबार में लगे थे वे बेरोजगार हो रहे है। इसे किस तरह से रोका जा सकता है, इस पर विचार नहीं है। विषमता बढ़ाने वाली सारी नीतियां लागू हो रही हैं और फिर कहा जाता है कि माओवाद बढ़ रहा है। नई भूमि अधिग्रहण नीति में जोर भूमि संरक्षण पर नहीं, भूमि बैंक बनाने पर है।
जहां तक आतंकवाद की बात है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी रूप में आंतकवाद निंदनीय है। मगर इसके पीछे क्या है और क्यों है-इसकी गहरी पड़ताल भी होनी चाहिए। कई बार देखा गया है कि कहीं गहरा अन्याय हुआ है, वहां आतंकवाद पनपा है।
दिक्कत यह है कि जो भी परेशानकुन सवाल उठाते हैं, राजनीतिक मुद्दों पर बात करते हैं, उन्हें भी सरकार आतंकवादी कह देती है। यह सरासर गलत है और इसका विरोध होना चाहिए। आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए लोकतंत्र को खतरे में नहीं डाला जा सकता।
नार्वे में हुए आतंकी हमले,जिसमें एक व्यक्ति ने 90 लोगों को भून डाला था, के बाद वहां के प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकवाद को रोकने के लिए मैं लोकतंत्र को नहीं रोक सकता, लोगों की आजादी को नहीं खत्म कर सकता। मेरे खयाल से यह सही दृष्टिकोण है। सही-सच्चा जनपक्षधर लोकतंत्र। (लेखिका राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य हैं)