चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा
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प्रस्तुति- अमित कुमार विश्वास
जी हाँ, सपने में नहीं, अपितु यथार्थ में नागार्जुन के जन्मशती पर विमर्श के लिए महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा पटना (ए.एन.सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान) में 'नागार्जुन एकाग्र' पर आयोजित समारोह के दौरान साहित्यकारों द्वारा उनको याद किया गया।
'युगधारा', खिचडी़', 'विप्लव देखा हमने', 'पत्रहीन नग्न गाछ', 'प्यासी पथराई आँखें', इस गुब्बारे की छाया में', 'सतरंगे पंखोवाली', 'मैं मिलिट्री का बूढा़ घोड़ा' जैसी रचनाओं से आम जनता में चेतना फैलाने वाले नागार्जुन के साहित्य पर विमर्श का लब्बोलुआब था कि बाबा नागार्जुन जनकवि थे और वे अपनी कविताओं में आम लोगों के दर्द को बयाँ करते थे। वे मानते थे कि जनकवि हूँ, मैं क्यों हकलाऊँ।
'बीसवीं सदी का अर्थ : जन्मशती का सन्दर्भ' श्रृंखला के तहत 'नागार्जुन एकाग्र' पर आयोजित दो दिवसीय समारोह में उद्घाटन वक्तव्य देते हुए साहित्यकार खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि ऐसा कहा जाने लगा है कि दुनिया में शीत युद्ध समाप्त हो गया है किन्तु अमेरिका की अगुवाई में शीत युद्ध आज भी जारी है। आज बाजार एक खास तरह की राजनीति के तहत इसमें शामिल हो गया है जिसने हमारी स्वतंत्रता पर खतरा उत्पन्न कर दिया है।
विचारक हॉब्सबाम ने इस सदी को अतिवादों की सदी कहा है। उन्होंने कहा कि नागार्जुन का व्यक्तित्व बीसवीं शताब्दी की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं से निर्मित हुआ था। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से शोषणमुक्त समाज या यों कहें कि समतामूलक समाज निर्मिति के लिए प्रयासरत थे। उनकी विचारधारा यथार्थ जीवन के अन्तर्विरोधों को समझने में मदद करती है।
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समारोह में बीसवीं सदी पर भी विमर्श हुआ। उन्होंने कहा कि इसी सदी में दुनिया भर में कई क्रांतियाँ हुई। वर्ष 1911 इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि उसी वर्ष शमशेर, केदारनाथ, फैज एवं नागार्जुन पैदा हुए। उनके संघर्ष, क्रियाकलापों और उपलब्धियों के कारण बीसवीं सदी महत्वपूर्ण बनी। ग्लोबलाईजेशन के प्रभावों पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि बीसवीं सदी में शोषण की प्रक्रिया के अंत के लिए नागार्जुन कवि और रचनाकार के अलावे एक नागरिक की हैसियत से शामिल हैं। उनकी कविताओं की गूँज गाँव के चौपालों तक सुनाई देती है।
कवि व आलोचक अरूण कमल ने नागार्जुन की रचनाओं पर बात करते हुए कहा कि नागार्जुन की कविताओं में हमारे आस-पास की जिंदगी के रंग दिखाई देते हैं। उन्होंने गरीबों के बारे में, जन्म देने वाली माँ के बारे में, मजदूरों के बारे में लिखा। उन्होंने कहा कि लोकभाषा के विराट उत्सव में वे गए और काव्य भाषा अर्जित की। लोकभाषा के संपर्क में रहने के कारण उनकी कविताएँ औरों से अलग है।
'मंत्र' को उनकी सर्वाधिक प्रयोगधर्मी कविता बताते हुए उन्होंने कहा कि वे गहरी करूणा और ममता के कवि हैं। उनकी कविताओं में जीवन जीने की प्रेरणा है। इस क्रम में उन्होंने पाब्लो नेरूदा, शमशेर, निराला और अज्ञेय की कविताओं की चर्चा की। सुप्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने नागार्जुन की रचनाओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनकी कविताओं में आजादी की लडा़ई की अंतर्वस्तु शामिल है। नागार्जुन ने कविताओं के जरिए कई लडाईयाँ लडीं। वे एक कवि के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु नए भारत के निर्माता के रूप में दिखाई देते हैं।
वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने समारोह में सवाल उठाते हुए कहा कि क्या कारण है कि भारत रत्न देने की वकालत सचिन तेंदुलकर या फिर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के लिए की जाती है, भारतीय विरासत को बचाए रखने वाले किसी साहित्यकार को यह पुरस्कार दिए जाने के लिए आखिर क्यों कोई नहीं आवाज उठाता संगीत की लय में नागार्जुन की कविताओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि नागार्जुन को जितना प्यार मिला, वह दुर्लभ है। उन्हें जनकवि होने का गौरव प्राप्त हुआ है। उनकी तमाम कविताओं में आठ मात्रा के छंद से परिचय होता है।
नागार्जुन की दूसरी खूबी थी, अपने समकालीन कवियों की सराहना करना और गलत बातों के लिए उन पर खुलकर लिखना, जो उन्हें दूसरे से अलग करता है। अध्यक्षीय वक्तव्य में विश्वविद्यालय के कुलपति व वरिष्ठ साहित्यकार विभूति नारायण राय ने कहा कि इसी शताब्दी में दो-दो विश्व युद्ध हुए। मानवाधिकार का विचार भी आया। पहली बार स्त्रियों, बच्चों, मजदूरों के अधिकारों के लिए डॉक्यूमेंटेशन हुआ। युद्धबंदियों पर सकारात्मक सोच पैदा हुई और उनके अधिकारों को भी रेखांकित किया गया।
जन्मशती समारोह पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि बीसवीं सदी की घटनाओं से परिचय इन कवियों को भी उस समय हुआ जब वे अपनी रचनात्मकता के द्वारा जनजागृति लाने का प्रयास कर रहे थे। इस वर्ष जिन चार कवियों की जन्मशती मनाई जा रही है, हम जन्म शताब्दी श्रृंखला के तहत उन कवियों के कर्मस्थल पर विमर्श करने के लिए समारोह का आयोजन कर रहे हैं, ताकि वर्तमान संदर्भ में इन रचनाकारों के साहित्य की प्रासंगिकता को टटोला जा सके।
समारोह के दूसरे दिन 'नागार्जुन का काव्य' विषय पर आयोजित अकादमिक सत्र के दौरान वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह ने कहा कि किसी कवि को श्रेष्ठ कहने के बजाय हमें आलोचना की कसौटी पर उनकी कविता की श्रेष्ठता को सिद्ध करने की जरूरत है। आज कविताओं की जाँच परख कम होती है, जबकि कवियों में तुलना ज्यादा।
समारोह में विमर्श को आगे बढाते हुए प्रो. बलराम तिवारी ने नागार्जुन के विविध पहलुओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनके आचरण में क्रांतिकारी गुण समाए थे। वे सच्चे तात्कालिक बोध के कवि थे। उनकी कविताएँ राष्ट्रीय हलचल का सिस्मोग्राफ हैं।
इस अवसर पर प्रो. नीरज सिंह ने कहा कि संन्यास से गृहस्थ जीवन में वापस हुए कवि ने न केवल अपने घर-परिवार से नाता जोड़ा बल्कि जीवन पर्यन्त शोषित, पीडि़त जनता के प्रवक्ता बने रहे। वे कथनी और करनी के फर्क को मिटानेवाले अन्यतम रचनाकार थे।
आलोचक चौथीराम यादव ने बाबा नागार्जुन को लोकधर्मी जनचेतना का कवि बताते हुए कहा कि उनकी रचनाओं में वैचारिक जनतंत्र के साथ-साथ भाषा का भी जनतंत्र मिलता है। उन्होंने कहा कि 21वीं सदी में जो स्त्री विमर्श व दलित विमर्श की चर्चा हो रही है। उनकी रचना 'तालाब की मछलियाँ' में स्त्री विमर्श और 'हरिजन गाथा' में दलित विमर्श परिलक्षित होता है।
अध्यक्षीय वक्तव्य में बिजेन्द्र नारायण सिंह ने कहा कि नागार्जुन की कविता खबरों की क्रांति थी। वे एक मनीषी थे, उन्होंने जीवन पर्यन्त यायावर की भाँति घूम कर शोषण, अन्याय व सामाजिक मूल्य को बचाने के लिए अपनी रचना में स्थान दिया।
समारोह में 'नागार्जुन का गद्य' विषय पर आयोजित तृर्तीय अकादमिक सत्र की अध्यक्षता करते हुए खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि नागार्जुन में आत्मलोचन के गुण हैं इसलिए वे बेहद जनतांत्रिक हैं। प्रेम कुमार मणि ने नागार्जुन की रचनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि बाबा का गद्य उनकी बैचेनी का विस्फोट है। राजेन्द्र राजन ने कहा कि नागार्जुन यह स्वीकार करते थे कि वे अपने विचारों का प्रचार करते हैं। समारोह में उपस्थित नागार्जुन के ज्येष्ठ सुपुत्र शोभाकान्त ने कहा कि नागार्जुन ने अपने जीवन की तमाम खूबियों और खामियों को रचनाओं में डाल दिया। वरिष्ठ कथा लेखिका उषा किरण खान ने बाबा के गद्य में स्त्री विमर्श को उल्लेखित करते हुए कहा कि स्त्री विमर्श शब्द का आगाज नागार्जुन ने भी किया। उन्होंने स्त्री को समाज में अनागरिक होते देखा था इसलिए स्त्रियों के कष्ट, बाल विवाह, बाल विधवा को उन्होंने लेखन का विषय बनाया।
समारोह के संयोजक व विश्वविद्यालय के प्रो. संतोष भदौरिया ने मंच का संचालन किया तथा साहित्य विद्यापीठ के प्रो. के.के. सिंह ने आभार व्यक्त किया। विमर्श में यह उभर कर आया कि बाजार की शक्ति के आगे आज हम मानवीय मूल्यों से कटते जा रहे हैं हमें यहाँ याद आती है उनकी कविता की यह पंक्ति- ,
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ अंदर चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलेंडर।