इलाहाबाद कुंभ मेला : ऐसे बना हिंदू संन्यासी संप्रदाय

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श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वेदांत दर्शन के संस्थापक महर्षि वेदव्यास के बाद उनके पुत्र शुकदेव ने संन्यासियों की परंपरा शुरू की थी। पहले सभी संन्यासी वनवासी और हिमालय में ही रहते थे। इसके अलावा उनके सप्तपुरी में नदी किनारा आश्रम होते थे, जहां आसपास जंगल ही होता था।

आक्रमणकारियों और भारत के बिखराव के बाद मध्यकाल में शंकराचार्य ने प्राचीन आश्रम और मठ परम्परा में नए प्राण फूंके। उनके बाद क्रमश: गुरु मत्स्येंद्रनाथ और गुरु गोरक्षनाथ ने शैव परंपरा को नया रूप दिया। उनके कारण नवनाथ की परंपरा का जन्म हुआ।

शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर केंद्रित किया और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों की नींव डाली। आखिर क्या हैं ये अखाड़े और कैसी है दशनामियों की परम्परा?

काशी के महान विद्वान मंडनमिश्र के साथ शंकराचार्य का शास्त्रार्थ, संन्यासियों की परंपरा को पुन: स्थापित करने की महत्वपूर्ण कड़ी थी। इस शास्त्रार्थ ने उन्हें समूचे देश में धर्म दिग्विजयी के रूप में स्थापित कर दिया था।

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दशनामी परम्परा : आदि शंकराचार्य ने देश के चार कोनों में दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में पूरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए। शंकराचार्य ने संन्यासियों की दस श्रेणियां- ‘गिरी, पूरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ और आश्रम’ बनाईं, जिसके चलते ये दशनामी संन्यास प्रचलित हुआ।

दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए- पहला शस्त्र और दूसरा शास्त्र।

यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके।

वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।

पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदपीठ के साथ तीर्थ एव आश्रम नामधारी संन्यासियों को जोड़ा गया।

उत्तर स्थित बद्रीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी संन्यासी जुड़े, तो सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ा गया।

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अखाड़ों की परंपरा : इन मठाम्नायों के साथ अखाड़ों की परम्परा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से ही जुड़ गई थी। चारों पीठों की देशभर में उपपीठ स्थापित हुई। कई शाखाएं-प्रशाखाएं बनीं, जहां धूनि, मढ़ी अथवा अखाड़े जैसी व्यवस्थाएं बनीं।

जिनके जरिए, स्वयं संन्यासी पोथी, चोला का मोह छोड़ कर, थोड़े समय के लिए शस्त्रविद्या सीखते थे, साथ ही आमजन को भी इन अखाड़ों के जरिए आत्मरक्षा के लिए सामरिक कलाएं सिखाते थे।

मध्यकाल मे चारों पीठों से जुड़ी दर्जनों पीठिकाएं सामने आईं, जिन्हें मठिका कहा गया। इसका देशज रूप मढ़ी प्रसिद्ध हुआ। देशभर में दशनामियों की ऐसी कुल 52 मढ़ियां हैं, जो चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं।

इनमें सर्वाधिक 27 मठिकाएं गिरि दशनामियों की हैं, 16 मठिकाओं में पुरी नामधारी संन्यासी के अधीन हैं, 4 मढ़ियों में भारती नामधारी दशनामियों का वर्चस्व है और एक मढ़ी लामाओं की है। साधुओं में दंडी और गोसाईं दो प्रमुख भेद भी हैं। तीर्थ, आश्रम, भारती और सरस्वती दशनामी, दंडधर साधुओं की श्रेणी में आते हैं जबकि बाकी गोसाईं कहलाते हैं।

अखाड़ों की शुरुआत : हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों की परंपरा भी प्राचीनकाल से ही रही है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं।

अखाड़ा शब्द का अर्थ : अखाड़ा शब्द के मूल में अखंड शब्द को भी देखा जाता है। कालांतर में अखंड का देशज रूप अखाड़ा हुआ। आज जो अखाड़े प्रचलन में हैं उनकी शुरूआत चौदहवीं सदी से मानी जाती है। अखाड़ा, यूं तो कुश्ती से जुड़ा हुआ शब्द है, मगर जहां भी दांव-पेंच की गुंजाइश होती है, वहां इसका प्रयोग भी होता है। आज की ही तरह प्राचीनकाल में भी शासन की तरफ से एक निर्धारित स्थान पर जुआ खिलाने का प्रबंध रहता था, जिसे अक्षवाटः कहते थे। यही अक्षवाट आगे चलकर अखाड़ा बन गया।

वर्तमान में कुम्भ में शाही स्नान के क्रम में प्रसिद्ध सात शैव अखाड़ों में श्रीपंचायती तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनामी जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा और श्रीपंचायती अटल अखाड़ा हैं।

वैष्णव साधुओं के अखाड़ों के बाद कुछ अन्य अखाड़े भी आते हैं। गुरु नानकदेव के पुत्र श्रीचंद ने उदासीन सम्प्रदाय चलाया था। इसके दो अखाडे़, श्रीपंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा और श्रीपंचायती नया उदासीन अखाड़ा भी सामने आए। इसी तरह सिखों की एक पृथक जमात निर्मल सम्प्रदाय का श्रीपंचायती निर्मल अखाड़ा भी अस्तित्व में आया।

पहले सिर्फ, शैव साधुओं के अखाड़े होते थे। बाद में वैष्णव साधुओं में भी अखाड़ा परम्परा शुरू हुई। शैव जमात के सात अखाड़ों के बाद वैष्णव बैरागियों के तीन खास अखाड़े हैं- श्रीनिर्वाणी अखाड़ा, श्रीनिर्मोही अखाड़ा और श्रीदिगंबर अखाड़ा
प्रस्तुति- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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