प्रयाग का अर्थ है जहां यज्ञों को प्रधानता हो। यह प्रयाग ऐतिहासिक उथल-पुथल में अपना प्राचीन नाम खो बैठा। आज यह नगर इलाहाबाद के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल से ही उत्तरप्रदेश उस संस्कृति का केन्द्र बिन्दु रहा है, जो भारतीय सभ्यता की अत्यंत मूल्यवान विरासत है। इलाहाबाद मात्र धार्मिक नहीं सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक दृष्टि से भी तीर्थराज रहा है और अपनी विशिष्टताओं से बना हुआ है।
प्रयाग-इलाहाबाद नगर को जैसा आप आज देखते हैं वह उसका अर्वाचीन रूप है। प्राचीन समय में प्रयाग कोई नगर नहीं था बल्कि तपोभूमि था। यदि प्रयाग की कोई बस्ती उस समय रही होगी तो वह भारद्वाज आश्रम के आसपास कहीं रही होगी। लगता है भारद्वाज आश्रम से झूंसी तक पहले गंगा का क्षेत्र था। उस समय संगम कहीं चौक से पूर्व और दक्षिण अहियापुर में रहा होगा फिर धीरे-धीरे इन नदियों के स्थान में परिवर्तन आया।
आज जिस इलाहाबाद को हम देखते हैं उसका अधिकांश भाग अकबर के समय में बसा पर अतरसुइया (अत्रि और अनसुइया) इसके पहले का पुराना मोहल्ला है। खुल्दाबाद जहांगीर के समय में बसा, दारागंज दाराशिकोह के नाम पर कायम हुआ।
कटरा औरगंजेब के समय में जयपुर के महाराजा सवाईसिंह ने बसाया था। कटरे की आबादी में आज भी 35 एकड़ से अधिक जमीन जयपुर राज्य, राजस्थान सरकार की है।
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इलाहाबाद ने सदियों से प्रदेश को, देश को और विश्व को दिया ही है। बदले में कुछ लिया नहीं। हां किसी ने कुछ दिया तो स्वीकारा अवश्य है। यह शहर एक शरीर और दो प्राण वाला है।
इसका भौतिक शरीर चौक, घंटाघर, सिविल लाइन सहित अन्य मुहल्ले हैं और आध्यात्मिक प्राण है बांध के नीचे गंगा, यमुना और सरस्वती का पवित्र संगम क्षेत्र जहां प्रतिवर्ष माघ में और छठवें तथा बारहवें वर्ष अर्द्धकुंभ और कुंभ के अवसर पर समग्र देश के विभिन्न अंचलों से करोड़ों लोग यहां स्नान के लिए आते हैं।
इलाहाबाद में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय पढ़े-लिखे, फूले-फले और हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना जाकर वाराणसी में की। इलाहाबाद में उनके नाम पर एक हिन्दू छात्रावास भर है, जिसे उन्होंने बनवाया था।
राष्ट्रनायक पंडित जवाहर लाल नेहरू जन्मे इलाहाबाद में-अपना राजनीतिक जीवन इस नगर और ग्रामीण अंचलों से आरम्भ किया। वटवृक्ष की भांति बढ़े। दिग्दिगंत में यशस्वी हुए। इलाहाबाद को पूरे देश के साथ उनकी उपलब्धियों पर गर्व है। सम्पूर्ण विश्व, राष्ट्र के लिए जो कुछ उन्होंने किया उसको भुलाया नहीं जा सकता।
स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का कार्यक्षेत्र मंत्री पद पाने के पूर्व तक लगातार इलाहाबाद रहा था। इलाहाबादवासी गर्व से उनका स्मरण करते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में श्रीमती गांधी आज देश के लोकतंत्र की रक्षक और कमजोर वर्ग की पोषक के रूप में विश्व वंदनीय हैं।
इलाहाबाद का महत्व न केवल उत्तरप्रदेश के जीवन में अपितु समग्र राष्ट्र के जीवन में भी गहरा रहा है और है। स्वतंत्र भारत के तीनों प्रधानमंत्री इसी नगर ने दिए हैं। देश की प्रथम महिला राजदूत और प्रदेश की प्रथम महिला मंत्री के रूप में श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित इलाहाबाद की देन हैं। डॉ. कैलाशनाथ काटजू जो उत्तरप्रदेश में मंत्री रहे, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, केन्द्र में मंत्रिमंडल के सदस्य रहे इसी नगर की शान हैं।
ब्रिटिशकाल में अपनी विद्वता और प्रतिभा की धाक जमाने वाले विधि विशारद पं. मोतीलाल नेहरू और तेजबहादुर सप्रू इलाहाबाद के लिए ही नहीं पूरे देश को गौरव प्रदान करने वाली विभूति रहे। अपने औघढ़पने में इलाहाबादवासियों ने इन महान विभूतियों का एक स्मारक तक नहीं समझता।
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हिन्दू-मुस्लिम एकता और सद्भाव का यह नगर एक प्रतीक है अनेकता में एकता और संस्कृति के समान सूत्र में आबद्ध हो जनमानस के शुभदर्शन दर्शन यहां प्रतिदिन होते हैं। संगम पर, दायराशाह अजमल पर और आनंद भवन में जहां सैकड़ों-हजारों लोग, जो इलाहाबाद आते हैं, प्रतिदिन एकत्र होते हैं।
आनंद भवन आजादी की लड़ाई के दौरान न केवल कांग्रेस अपितु समस्त स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों के लिए प्रेरणा केन्द्र था। ऐसा कौन नेता है जो आनंद भवन नहीं आया, वहां होने वाली बैठकों में शामिल नहीं हुआ। आनंद भवन में लिए गए फैसलों ने समग्र देष व प्रदेश की जीवन धारा बदली और राष्ट्र के जीवन को नया मोड़ दिया।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान मौलवी लियाकत अली के नेतृत्व में इलाहाबाद में हुए विद्रोह से ब्रिटिश शासक इतने सशंकित हो उठे थे कि महारानी विक्टोरिया का 1858 का घोषणा पत्र इलाहाबाद में मिंटोपार्क में पढ़ने का निर्णय लिया गया था और इसी समय प्रांतीय राजधानी आगरे से उठकर प्रयाग आई थी। हाईकोर्ट को आगरा से हटाकर प्रयाग लाने का निर्णय घोषित हुआ था।
1858 से 1944 तक अंग्रेज शासकों ने इलाहाबाद के महत्व को कभी नजरंदाज नहीं किया, पर इलाहाबाद की राजनैतिक चेतना और स्वाधीनता की ललक से घबराकर इलाहाबाद से राजधानी ही नहीं हटाई अपितु इस बात का ध्यान भी बराबर रखा कि इलाहाबाद औद्योगिक अथवा व्यावसायिक केन्द्र न बनने पाए।
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प्रयाग में 1865 में पायोनियर अखबार निकाला, तो 1907 में राष्ट्रीय विचारधारा का 'अभ्युदय' प्रकाश में आया। 'हिन्दी प्रदीप' 1877 और 'प्रयाग समाचार' 1880 का प्रकाशन हो ही रहा था। ब्रिटिश सरकार ने मेयो हॉल बनवाया, गवर्नमेंट प्रेस स्थापित किया, यूनिवर्सिटी 1887 में कायम की। को-आपरेटिव बैंक खोला, तो राष्ट्रीय विचारधारा के पोषक भी निष्क्रिय नहीं बैठे थे। प्रतिरोध खुला हुआ-प्रत्यक्ष संघर्ष की स्थिति जैसा तो नहीं था पर शिक्षा, समाज और पत्र-प्रकाशन के कार्य क्षेत्र में ब्रिटिश शासकों से होड़-सी लग गई थी।
अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का चौथा अधिवेशन 1888 में इलाहाबाद में आयोजित नहीं होने पाए इसके लिए अंग्रेज शासकों ने हरसंभव अड़चन डाली परंतु कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और पंडित मदनमोहन मालवीय के ओजस्वी भाषण ने अंग्रेजों के दिल दहला दिए। 1892 में कांग्रेस का आठवां अधिवेशन फिर इलाहाबाद में हुआ और दादा भाई नौरोजी ने इलाहबाद को भारतीय स्वाधीनता संग्राम का केन्द्र बिन्दु घोषित किया।
इसी बीच गवर्नमेंट कॉलेज के साथ-साथ शिवराखन स्कूल (अब सीएवी), कायस्थ पाठशाला, आर्य समाज, भारती भवन, सरयूपारीण ब्राह्मण पाठशाला, क्रास्थवेट गर्ल्स स्कूल, एंग्लो बंगाली, ईविंग क्रिसचन कॉलेज आदि की स्थापना बीसवीं सदी के आरंभ होने तक इलाहाबाद में हो चुकी थी।
1900में 'सरस्वती' पत्रिका के प्रकाशन के साथ इलाहाबाद राष्ट्रभाषा हिन्दी का उद्घोषक बना। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना ने इस कार्य को राष्ट्रव्यापी बनाने का बीड़ा उठाया। आर्य कन्या पाठशाला और गौरह पाठशाला (1904) की स्थापना से कन्या शिक्षा का महत्व प्रतिपादित हुआ। विद्या मन्दिर स्कूल की स्थापना ने स्वंय सेवी संस्थाओं को अब शिक्षा क्षेत्र में आगे किया। सेवा समिति की स्थापना हुई। अग्रवाल विद्यालय खुला।
उपरोक्त विवरण का औचित्य इस तथ्य से सिद्ध होता है कि ब्रिटिश शासक राष्टीय चेतना की बढ़ती हुई भावना के साथ इलाहाबाद के तादात्म्य से अनभिज्ञ नहीं थे। इलाहाबाद के विकास के लिए इसके बाद ही कुछ कदम उठाए गए। नैनी में चीनी और ग्लास फैक्टरी की स्थापना, यमुना के पूर्व की ओर दोहरा पुल, नैनी एग्रिकल्चरल इन्स्टीट्यूट, जमींदार एसोसिएशन की स्थापना के साथ मजीदिया इस्लामिया स्कूल और मिफताहुल उलूम मदरसा की स्थापना हुई।
प्रथम विश्वयुदध की समाप्ति तक हिन्दू-मुस्लिम मतभेद की आग को उभारने की भरपूर कोशिश अंग्रेजों ने की और उसकी परिणति 1917 में इलाहाबाद में हुए प्रथम हिन्दू-मुस्लिम दंगे से हुई और बात इतनी बढ़ती गई कि 1924 से 1936 तक इलाहाबाद में दशहरे का उत्सव नहीं मनाया जा सका।
इन पुरानी बातों के उल्लेख के साथ इलाहाबाद की साहित्यिक परम्परा की कड़ी अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इलाहाबाद की साहित्यिक परम्परा हर युग में आवश्यकतानुसार बदलती रही हैं, जिससे कि हर काल में आधुनिक बनी रहकर राष्ट्र के जनमानस का नेतृत्व करती रहे। अभिलिखित इतिहास के अनुसार इलाहाबाद नगर बौद्धिक केन्द्र के रूप में स्वामी रामानन्द के नाम के साथ उजागर होता है जिनकी गौरवशाली परम्परा को स्वामी बल्लभाचार्य ने अरैल के शांति निकुंजों में बैठकर अपने संदेश प्रसारित कर आगे बढ़ाया।
'सब के दाता राम' के प्रणेता संत मलूकदास इस संगम स्थल की ही देन थे। आधुनिक हिन्दी खड़ी बोली के परिमार्जिक आविर्भाव में इलाहाबाद के सपकूकतों में मुंशी सदासुख लाल (आश्रम) में रहे थे।
उर्दू साहित्य की सेवा में इलाहाबाद का अपना विशिष्ट स्थान है। सर तेज बहादुर सप्रू और त्यागमूर्ति पंडित मोतीलाल नेहरू के बंगलों पर शेरो-शायरी का जो दौर चलता था उनकी याद कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष मरहूम डॉ. एजाज हुसैन कहा करते थे कि इलाहाबाद तो उर्दू अदब का उन दिनों मरकज था। नूह नारबी के इस नगर में अकबर इलाहाबादी के बाद फिराक गोरखपुरी (स्व.) बिस्मिल इलाहाबादी की साहित्य साधना ने उर्दू जगत में इलाहाबाद की शान कायम रखी।