आदर्श जीवन के प्रेरणास्रोत : विशुद्धसागरजी

- डॉ. जैनेन्द्र जैन

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भारत की वसुंधरा पर शांति सुधा रस की वर्षा करने वाले श्रमण संस्कृति के तीर्थंकरों के अलावा अनेक संत और महामनीषी हुए हैं तथा वर्तमान में भी हैं, जिनकी साधना, चर्या और कथनी, करनी की एकता ने जन-जन को न केवल प्रभावित किया है वरन धर्म, अध्यात्म व अहिंसा के प्रखर प्रभावी प्रवक्ता के रूप में श्रमण संस्कृति व नमोस्तु शासन को भी गौरवान्वित किया है।

उनमें श्रमण संस्कृति के महान साधक परम पूज्य गणाचार्यश्री विरागसागरजी महाराज के परम पूज्य शिष्य युवाचार्य श्री विशुद्धसागरजी महाराज भी एक हैं, जो आज श्रमण संस्कृति के गौरवमयी संतों की श्रृंखला में अग्रणी और विशिष्ट स्थान रखते हैं। संप्रति आप दि. जैन आदिनाथ जिनालय छत्रपतिनगर में ससंघ विराजित हैं।

आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज कोई सामान्य संत नहीं हैं। वे अलौकिक और चुंबकीय व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी एवं गहन चिंतक और दार्शनिक भी हैं। वीतरागता से विभूषित उनके व्यक्तित्व में गुरु-गोविंद दोनों के दर्शन सुलभ हैं और दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप का विराट संगम आलोकित है। उनकी चर्या में उनके दीक्षा गुरु गणाचार्य श्री विरागसागरजी के साथ-साथ संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज की छवि भी परिलक्षित होती है।
आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज कोई सामान्य संत नहीं हैं। वे अलौकिक और चुंबकीय व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी एवं गहन चिंतक और दार्शनिक भी हैं। वीतरागता से विभूषित उनके व्यक्तित्व में गुरु-गोविंद दोनों के दर्शन सुलभ हैं।


उनके प्रवचनों में जहाँ मानव मात्र के कल्याण का संकल्प प्रकट होता है, वहीं धर्म, अध्यात्म, शांति, प्रेमएवं अहिंसा की शीतल बयार भी बहती है और मनुष्य के जीवन को आज हम जिन जीवन मूल्यों से संस्कारित करने का स्वप्न देखते हैं, उन्हीं शांतिप्रिय, अहिंसक और सद्भाव से परिपूर्ण जीवन मूल्यों की अनुगूँज भी सुनाई देती है। साथ ही श्रोताओं को धर्म साधना करते हुए एक आदर्श सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा भी प्राप्त होती है।

अहिंसा ही मानव धर्म है, यह बात मनुष्य जाति को समझाते रहना जैन साधु का जीवन धर्म है, जिसे आचार्यश्री बखूबी निभा रहे हैं। अहिंसा के संबंध में उनका विवेचन गहरा और व्यापक है। वे अपने प्रवचनों में अहिंसा और कर्म सिद्धांत पर जोर देते हैं और अहिंसा को चरित्र का रूप देकर एवं उसी का उपदेश देकर मानव जाति का ही नहीं वरन प्राणी मात्र का महान उपकार कर रहे हैं।

यहाँ यह लिखना भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि जन सामान्य को भी ज्ञानी कहकर संबोधित करने वाले और प्रत्येक जीवात्मा को भावी भगवान मानने वाले आचार्यश्री विशुद्धसागरजी उत्कृष्ट क्षयोपषम (श्रेष्ठ ज्ञान) धारी हैं और उनके ज्ञान में न केवल तीनों लोकों का ज्ञान झलकता है, वरन उनका ज्ञान घट जिनेंद्र की वाणी और श्रमण संस्कृति के आचार्य समंतभद्र और कुंद-कुंद जैसे अनेक महान आचार्यों द्वारा सृजित ग्रंथों के ज्ञान से लबालब भरा है।