आचार्य महाश्रमण : पंथ और ग्रंथ के भेद से ऊपर एक निराला 'संत'

- ललित गर्ग
 

 
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को हिदायत दी है, तुम गुण ही गुण में वर्तन करते हों, जिससे अनेक उर्मियों के बीच ही मन नर्तन करता रहता है। इस नर्तन को खत्म करके अर्जुन अब तू गुणों से ऊपर उठ जा, निर्गुण अवस्था में आ जा। सत्व, रज, तम तीनों गुणों को छोड़कर त्रिगुणातीत बन जा। इसलिए संतों ने गाया है- ‘निर्गुण रंगी चादरिया रे, कोई ओढ़े संत सुजान।’
 
आचार्य महाश्रमण ने इस निर्गुणी चदरिया को ओढ़ा है। उन्हें जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उसमें अतीत और वर्तमान का वियोग नहीं है, योग है। उन्हें जो चेतना प्राप्त हुई है, वह तन-मन के भेद से प्रतिबद्ध नहीं है, मुक्त है। उन्हें जो साधना मिली है, वह सत्य की पूजा नहीं करती, शल्य-चिकित्सा करती है। सत्य की निरंकुश जिज्ञासा ही उनका जीवन-धर्म है। वही उनका मुनित्व है। वे उसे चादर की भांति ओढ़े हुए नहीं हैं बल्कि वह बीज की भांति उनके अंतस्तल से अंकुरित हो रहा है। आचार्य महाश्रमण एक ऐसे संत है, जिनके लिए पंथ और ग्रंथ का भेद बाधक नहीं है। उन्होंने अपने आध्यात्मिक चिंतन का सार इन अनुभूत शब्दों में व्यक्त किया है कि ‘रहें भीतर, जीएं  बाहर’। 
 
उन्होंने सगुण-साकार भक्ति पर जोर दिया है, जिसमें निर्गुण निहित है। हर जाति, वर्ग, क्षेत्र और सम्प्रदाय का सामान्य से सामान्य व्यक्ति हो या कोई विशिष्ट व्यक्ति हो- सभी में विशिष्ट गुण खोज लेने की दृष्टि आचार्य महाश्रमण में है। गुणों के आधार से, विश्वास और प्रेम के आधार से व्यक्तियों में छिपे सद्गुणों को वे पुष्प में से मधु की भांति संचित कर लेते हैं। परस्पर एक-दूसरे के गुणों को देखते हुए, खोजते हुए उनको बढ़ाते चले जाना आचार्य महाश्रमण के विश्व मानव या वसुधैव कुटुम्बकम् के दर्शन का द्योतक है। 
 
श्रीमद् भगवत गीता और उत्तराध्ययन पर आपके तुलनात्मक विवेचन से जुड़े प्रवचन एवं उन्हीं प्रवचनों का संकलन ‘सुखी बनो’ पुस्तक भारतीय साहित्य भंडार की अमूल्य धरोहर है। सतातन परम्परा में जहां गीता श्रद्धास्पद मानी जाती है, वहीं उत्तराध्ययन एक प्रतिष्ठित जैनागम है। परम्परा भेद होने पर भी दोनों ग्रंथों की समानताओं और शाश्वतताओं का तटस्थ विवेचन, गीता की भी अधिकार के साथ सटीक व्याख्या और इन मंत्रतुल्य शब्दों को साकार रूप देने के लिए ही आचार्य महाश्रमण आत्मिक उन्नति के साथ नई समाज रचना के लिए तरह-तरह के प्रयोग कर रहे हैं। आचार्य महाश्रमण की मेघा के दर्पण से आगम, दर्शन, न्याय, तर्कशास्त्र, समाजशास्त्र, योग, विज्ञान, मनोविज्ञान आदि बहुआयामी पावन एवं उज्ज्वल बिम्ब उभरते रहे हैं। सुदूर बंगाल, बिहार, नेपाल, भूटान आदि राज्यों के बाद इन दिनों आसाम में ‘अहिंसा सव्वभूयखेमंकरी’ के सूक्त को उजागर करने वाली आपकी अहिंसा यात्रा गांधी की दांडी यात्रा एवं विनोबा की भूदान यात्रा की याद ताजा कराती है, तो आपकी साहित्य सृजना कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र की साधना को उद्घाटित करती है।
 
आचार्य महाश्रमण का जन्म राजस्थान के चुरू जिले के सरदारशहर में दिनांक 13 मई 1962 को हुआ। बारह वर्ष की अल्पायु में दिनांक 5 मई 1974 को सरदारशहर में आचार्य श्री तुलसी की अनुज्ञा से मुनि सुमेरमलजी लाडनूं के हाथों दीक्षित हुए। आचार्य तुलसी ने इनमें तेरापंथ के उज्ज्वल भविष्य के दर्शन किए और उन्होंने दिनांक 9 सितंबर 1989 में इन्हें महाश्रमण के पद पर मनोनीत किया।
 
 

 


आचार्य श्री महाश्रमणजी तेरापंथ के ग्यारहवें आचार्य हैं। आप 9 मई 2010 को आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के महाप्रयाण के बाद इस पद पर प्रतिष्ठित हुए। आचार्य महाश्रमण की जीवन यात्रा मोहनलाल से मुनि मुदितकुमार, मुनि मुदितकुमार से महाश्रमण, महाश्रमण से युवाचार्य तथा युवाचार्य से आचार्य बनने तक की यह यात्रा, समर्पण, निष्ठा, मर्यादा, अनुशासन, उत्कृष्ट भक्ति तथा साधुता की अपूर्व कहानी है।
 
आचार्य महाश्रमण को तेरापंथ के दो महान प्रतापी तथा यशस्वी आचार्यों का नेतृत्व, मार्गदर्शन, अन्तरंग, सान्निध्य तथा वात्सल्य प्राप्त हुआ है। यह उनका महान सौभाग्य ही माना जाएगा। इसी कारण से इन दोनों आचार्यों की प्रतिमूर्ति है। आप ऐसे विरले मनीषी है, जिन्हें दो महान आचार्यों ने तैयार किया है। साथ ही आपको इन दोनों महान आचार्यों की विरासत भी मिलने के साथ-साथ तेरापंथ धर्मसंघ की महान संपदा भी प्राप्त हुई है। इस मामले में आप तेरापंथ धर्मसंघ के सबसे भाग्यशाली आचार्य ही माने जाएंगे।
 
आचार्य श्री महाश्रमणजी को 700 के लगभग साधु-साध्वियों का नेतृत्व करने का सौभाग्य भी मिला है। इसके अतिरिक्त 100 से भी अधिक समण-समणियां भी आपके नेतृत्व में कार्य कर रही हैं। इस दोनों के अतिरिक्त मुमुक्षु बहनें भी आपके नेतृत्व की आराधना में है। लाखों श्रावक-श्राविकाएं आपके इंगित की आराधना करने की दिशा में समर्पित है। सरदारशहर में आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के देवलोकगमन के समय जो जन-सैलाब उमड़ा, वह इस बात का स्पष्ट संकेत था कि आचार्य केन्द्रित, तेरापंथ धर्मसंघ की व्यवस्था भविष्य में भी न केवल सुरक्षित रहेगी, अपितु उत्तरोत्तर विकसित होगी। यह आचार्य श्री महाश्रमणजी को नई ऊर्जा तथा शक्ति से कार्य करने तथा समाज को नई दिशा प्रदान की ओर उन्मुख करेगी। आपके नेतृत्व में तेरापंथ का भविष्य तो सुखद तथा उज्ज्वल है ही साथ ही साथ मानवता को उपकृत होने का भी सहज ही सुअवसर प्राप्त होगा।
 
आचार्य महाश्रमण के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के अनेक आयाम है उनमें मुख्य हैं- नैतिक मूल्यों के विकास एवं अहिंसक चेतना के जागरण हेतु कटिबद्ध, मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान के सजग प्रहरी, अध्यात्म दर्शन और संस्कृति को जीवंतता देने वाली संजीवनी बूटी, विश्वशांति और अहिंसा के प्रखर प्रवक्ता, युगीन समस्याओं के समाधायक, अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयक। नंगे पांव चलने वाला यह महामानव चलता है-चलता रहा है, चरैवेति-चरैवेति के मंत्र को चरित्रार्थ करते हुए। गांव-गांव घूमता लोगों को अच्छा बनने के लिए कह रहा है। न कौशल का प्रदर्शन, न रणनीति का चक्रव्यूह। सब कुछ साफ-साफ। बुराई छोड़ो, नशा छोड़ो, भ्रूण हत्या मत करो, भेदभाव मत करो, लोक-जीवन में शुद्धता आए, राष्ट्रीय चरित्र बने- इन्हीं उपक्रमों एवं कार्यक्रमों को लेकर वे सुबह से शाम तक गांव हो या शहर लोगों से मिलते हैं, प्रवचन करते हैं। एक-एक व्यक्ति को समझाते हैं। एक यायावरी संत समाज का निर्माण और उत्थान करता हुआ निरन्तर आगे बढ़ रहा है, महाश्रमण का यह महाजीवन एक रोशनी है।
 
नंगे पांव चलने से इसने धरती की धड़कन को सुना। धड़कनों के अर्थ और भाव को समझा। धरती की धड़कनों को जितना आत्मसात करता चला, उतना ही उनका जीवन ज्ञान एवं संतता का ग्रंथ बनता गया। यह जीवन ग्रंथ शब्दों और अक्षरों का जमावड़ा मात्र नहीं, बल्कि इसमें उन सच्चाइयों एवं जीवन के नए अर्थों-आयामों का समावेश है, जो जीवन को शांत, सुखी एवं उन्नत बनाने के साथ-साथ जीवन को सार्थकता प्रदान करते हैं। यह ग्रंथ कुछ पृष्ठों और इकाइयों में सीमित नहीं है, वह निरंतर विकासमान है, हर पल, हर क्षण एक नए अध्याय को जोड़ता हुआ।
 
आचार्य महाश्रमण एक ऐसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार है, जिस परंपरा को महावीर, बुद्ध, गांधी, आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने अतीत में आलोकित किया है। अतीत की यह आलोकधर्मी परंपरा को आचार्य महाश्रमण ने एक छोटे-से कालखण्ड में एक नई दृष्टि प्रदान की। इस नई दृष्टि ने एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात होता हुआ दिख रहा है। इस सूत्रपात का आधार आचार्य महाश्रमण ने जहां अतीत की यादों को बनाया, वहीं उनका वर्तमान का पुरुषार्थ और भविष्य के सपने भी इसमें योगभूत बने। 
 
आचार्य महाश्रमण ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ-ही-साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों/विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, हिंसा, जातीयता, संभावित परमाणु युद्ध का विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी अपनी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि प्रदत्त की है। 
 
अतुलनीय संपदाओं के धनी आचार्य महाश्रमण इन सबसे ऊपर अपने जीवन निर्माता गुरुदेव तुलसी के शब्दों में शुभ भविष्य है सामने के प्रतीक है। ऐसे यशस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी आचार्य को तेरापंथ की उज्ज्वल गौरवमयी आचार्य परंपरा में सर्वाधिक समर्पित एवं विनम्र, प्रज्ञा और पुरुषार्थ, विनय और विवेक, साधना और संतता, समन्वय और सहअस्तित्व की विलक्षण विशेषताओं पर न केवल पूरा तेरापंथ धर्मसंघ बल्कि सम्पूर्ण मानवता ‘वर्धापित’ कर गौरव की अनुभूति कर रहा हैं। 
 

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