महर्षि अरविन्द आध्यात्मिक क्रांति की पहली चिंगारी थे। वे बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक थे। क्रांतिकारी महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता केडी घोष एक डॉक्टर तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे।
पिता अंग्रेजों के प्रशंसक लेकिन उनके चारों बेटे अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गए। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।
वैसे तो अरविन्द ने अपनी शिक्षा खुलना में पूर्ण की थी, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए वे इंग्लैंड चले गए और कई वर्ष वहां रहने के पश्चात कैंब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की। वे आईसीएस अधिकारी बनना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने भरपूर कोशिश की, पर वे अनुत्तीर्ण हो गए। उनके ज्ञान तथा विचारों से प्रभावित होकर गायकवाड़ नरेश ने उन्हें बड़ौदा में अपने निजी सचिव के पद पर नियुक्त कर दिया।
बड़ौदा से कोलकाता आने के बाद महर्षि अरविन्द आजादी के आंदोलन में उतरे। कोलकाता में उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया। उन्होंने 1902 में उनशीलन समिति ऑफ कलकत्ता की स्थापना में मदद की। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की विचारधारा को बढ़ावा दिया।
सन् 1906 में जब बंग-भंग का आंदोलन चल रहा था तो उन्होंने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविन्द ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा 'वंदे मातरम्' में प्रकाशित लेखों द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी।
अरविन्द का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल की सजा सुना दी।
अरविन्द ने कहा था चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे, पर हम यह सब सहन करेंगे और यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रुकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा, जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा। यह इत्तेफाक नहीं है कि 15 अगस्त को भारत को आजादी मिली और इसी दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है।
जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया तो जेल में अरविन्द का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठरी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविन्द जब अलीपुर जेल में थे, तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वे क्रांतिकारी आंदोलन छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।
जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। अरविन्द गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए। वहीं पर रहते हुए अरविन्द ने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है।
सन् 1914 में मीरा नामक फ्रांसीसी महिला की पांडिचेरी में अरविन्द से पहली बार मुलाकात हुई जिन्हें बाद में अरविन्द ने अपने आश्रम के संचालन का पूरा भार सौंप दिया। अरविन्द और उनके सभी अनुयायी उन्हें आदर के साथ ‘मदर’ कहकर पुकारने लगे।
उन्होंने जहां वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों पर टीका लिखी, वहीं योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखे। खासकर उन्होंने डार्विन जैसे जीव वैज्ञानिकों के सिद्धांत से आगे चेतना के विकास की एक कहानी लिखी और समझाया कि किस तरह धरती पर जीवन का विकास हुआ। उनकी प्रमुख कृतियां लेटर्स ऑन योगा, सावित्री, योग समन्वय, दिव्य जीवन, फ्यूचर पोयट्री और द मदर हैं।
5 दिसंबर 1950 को महर्षि अरविन्द का देहांत हुआ। बताया जाता है कि निधन के बाद 4 दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बने रहने के कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया और अंतत: 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गई। अरविन्द एक महान योगी और दार्शनिक थे। उनका पूरे विश्व में दर्शनशास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है।