प्राचीन काल में एक परम तपस्वी हुए, जिनका नाम महर्षि दधीचि था। उनके पिता एक महान ऋषि अथर्वा जी थे और माता का नाम शांति था। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन शिव की भक्ति में व्यतीत किया था। दधीचि जयंती भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाई जाती है।
वे एक ख्यातिप्राप्त महर्षि थे तथा वेद-शास्त्रों के ज्ञाता, परोपकारी और बहुत दयालु थे। उनके जीवन में अहंकार के लिए कोई जगह नहीं थी। वे सदा दूसरों का हित करने के लिए तत्पर रहते थे। जहां वे रहते थे, उस वन के पशु-पक्षी तक उनके व्यवहार से संतुष्ट थे। वे इतने परोपकारी थे कि उन्होंने असुरों का संहार के लिए अपनी अस्थियां तक दान में दे दी थी।
आइए पढ़ें परोपकारी महर्षि दधीचि की लोक कल्याण के लिए किए गए परोपकार की कथा-
एक बार लोकहित के लिए कठोर तपस्या कर रहे महर्षि दधीचि के तप के तेज से तीनों लोक आलोकित हो उठे, लेकिन इन्द्र के चेहरे का तेज जाता रहा, क्योंकि उसे लगा कि महर्षि उससे इंद्रासन छीनना चाहते हैं। इसलिए उसने तपस्या भंग करने के लिए कामदेव और एक अप्सरा को भेजा, लेकिन वे विफल रहे।
तब इन्द्र उनकी हत्या के इरादे से सेना सहित वहां पहुंचा। लेकिन उसके अस्त्र-शस्त्र महर्षि की तप के अभेद्य कवच को भेद न सके और वे शांत भाव से समाधिस्थ बैठे रहे। हारकर इन्द्र लौट गया। इस घटना के बहुत समय बाद वृत्रासुर ने देवलोक पर कब्जा कर लिया।
पराजित इन्द्र और देवता मारे-मारे फिरने लगे। तब प्रजापिता ब्रह्मा ने उन्हें बताया कि वृत्रासुर का अंत महर्षि दधीचि की आस्थियों से बने अस्त्र से ही संभव है। इसलिए उनके पास जाकर उनकी अस्थियां मांगो। इससे इन्द्र पसोपेश में पड़ गया।
वह सोचने लगा कि जिनकी हत्या का प्रयास कर चुका था, वह उसकी सहायता क्यों करेंगे। लेकिन कोई उपाय न होने पर वह महर्षि के पास पहुंचा और झिझकते हुए बोला- महात्मन्, तीनों लोकों के मंगल हेतु हमें आपकी आस्थियां चाहिए।
महर्षि विनम्रता से बोले- देवेंद्र, लोकहित के लिए मैं तुम्हें अपना शरीर देता हूं। इन्द्र आश्चर्य से उनकी ओर देख ही रहे थे कि महर्षि ने योग विद्या से अपना शरीर त्याग दिया। बाद में उनकी अस्थियों से बने वज्र से इन्द्र ने वृत्रासुर को मारकर तीनों लोकों को सुखी किया।
लोकहित के लिए महर्षि दधीचि ने तो अपनी अस्थियां तक दान कर दी थीं, क्योंकि वे जानते थे कि शरीर नश्वर है और एक दिन इसे मिट्टी में मिल जाना है।