19 जनवरी : आध्यात्मिक संत ओशो का निर्वाण दिवस

Acharya Rajneesh
 
अध्यात्म जगत की चर्चा आचार्य रजनीश 'ओशो' के बिना अधूरी है। ओशो एक ऐसे संबुद्ध सद्‍गुरु हैं जिन्होंने मानवीय चेतना को धर्म की रूढ़िवादी व बद्धमूल धारणाओं से मुक्त किया। ओशो ने किसी नवीन धर्म या पंथ का प्रतिपादन नहीं किया अपितु उन्होंने जनमानस का वास्तविक धर्म से साक्षात्कार कराया। वे भविष्य के मनुष्य को 'जोरबा द बुद्धा' के रूप में गढ़ना चाहते थे।
 
'जोरबा द बुद्धा' अर्थात एक ऐसी मनुष्यता, जो नृत्य कर सके, गीत गा सके, वहीं ध्यान की ऊंचाइयों को भी छूने में जो समर्थ हो सके। ओशो ने इस जगत में एक हंसते हुए धर्म का आविर्भाव किया। उन्होंने अपने संदेशों में नकारात्मकता व दमन के स्थान पर सकारात्मकता व ध्यान पर ही अधिक जोर दिया। वे केवल एक ही बात का विशेष आग्रह अपने प्रवचनों में किया करते थे, वह है- ध्यान।
 
ओशो का जन्म मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा में 11 दिसंबर 1931 को हुआ था। उन्हें 21 वर्ष की आयु में संबोधि की प्राप्ति हुई। उन दिनों वे जबलपुर कॉलेज में पढ़ाया करते थे, वहीं से उन्हें 'आचार्य' कहा जाने लगा। बाद में उन्हें 'भगवान' के नाम से संबोधित किया जाने लगा, जो थोड़ा विवादों में भी रहा। 'भगवान' संबोधन के संबंध में ओशो की मान्यता थी कि भगवत्ता को प्राप्त व्यक्ति।
 
ओशो ने अपने संन्यासियों को निषेध व दमन के स्थान पर ध्यान से जोड़ा। उन्होंने उन विषयों पर बहुत ही मुखरता से बोला जिनकी चर्चा करने में धर्म-जगत झिझकता है। ओशो अपने समय से बहुत पूर्व थे। उनकी बातें व संदेश शायद उस समय उतने प्रासंगिक न प्रतीत हो रहे हों, जब वे देह में थे किंतु वर्तमान परिदृश्य में ओशो दिनोदिन प्रासंगिक होते जा रहे हैं। आज इस जगत को ओशो जैसे ही संबुद्ध गुरुओं की आवश्यकता है। ओशो का सारा दर्शन प्रेम व ध्यान पर आधारित था। वे परमात्मा का साक्षात्कार प्रेम व ध्यान के माध्यम करने में विश्वास रखते थे।
 
ओशो की देशनाओं से भारत ही नहीं, अपितु विश्व के लगभग 19 देश प्रभावित हुए। इन देशों के अनेकानेक नागरिक ओशो के अनुयायी बने। अमेरिका में ओशो की प्रसिद्धि का अनुमान पाठक इस बात से भली-भांति लगा सकते हैं कि सन् 1981 में अमेरिका के ओरेगन स्थित रेगिस्तान में ओशो अनुयायियों द्वारा 'रजनीशपुरम्' नामक एक संपूर्ण नगर ही बसा दिया गया था। जहां लगभग 5,000 से अधिक संन्यासी नियमित रूप से रहने लगे थे। विशेष अवसरों पर यहां देश-विदेश से आने वाले संन्यासियों की संख्या 10 से 15 हजार तक पहुंच जाती थी। अमेरिका ने उनकी इसी प्रसिद्धि को अपनी सम्प्रभुता के लिए खतरा मानकर उन्हें देश-निकाला दे दिया था।
 
सुप्रसिद्ध लेखिका 'सू एपलटन' ने अपनी पुस्तक 'दिया अमृत, पाया जहर' में अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार द्वारा ओशो को थेलियम नामक जहर दिए जाने की घटना का शोधपूर्ण व रोमांचक विवरण प्रस्तुत किया है।
 
स्वास्थ्य संबंधी प्रतिकूलताओं के कारण ओशो ने 19 जनवरी 1990 को पूना स्थित अपने आश्रम में सायं 5 बजे के लगभग अपनी देह त्याग दी। इस अवसर पर ओशो के पूर्व निर्देशानुसार उनके संन्यासियों द्वारा नाच-गाकर एवं समूह ध्यान कर उनका मृत्यु-महोत्सव मनाया गया। पूना स्थित आश्रम में ही ओशो का अस्थिकलश स्थापित कर उनकी समाधि का निर्माण किया गया, जहां आज भी देश-विदेश के हजारों संन्यासी आकर ओशो के द्वारा प्रवाहित ध्यान की सरिता में अवगाहन कर अपना जीवन धन्य करते हैं।
 
-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: [email protected]

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