जो तार दे, वही तीर्थ...!

ND
तीर्थ दो प्रकार के होते हैं- स्थावर और जंगम। जंगम तीर्थ का महत्व भी स्थावर के बराबर ही होता है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका- ये चारों जंगम तीर्थ में आते हैं। जो तार दे, वही तीर्थ है। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना कर समाज को उन्नति की ओर अग्रसर किया। साध्वी सूर्यकांताश्रीजी ने ये उद्गार व्यक्त किए।

दान का महत्व रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि पिछले जन्मों की पुण्याई से इस भव में वैभव प्राप्त होता है। यदि इस जन्म में भी हम दान नहीं करेंगे तो अगले भव में पुण्य और धन कहाँ से प्राप्त होगा। श्रावक-श्राविकाओं को प्रतिदिन आत्महित में स्नात्र पूजन, सामायिक, प्रतिक्रमण और पोसे का पालन करना चाहिए।

उन्होंने ब‍ताया कि चातुर्मास में हम जितना अधिक से अधिक धर्म लाभ उठा सकें, उतना ही उत्तम है। अनादिकाल से आत्मा कर्म के मैल से मलिन बनी हुई है। कर्म रज और सुखों के प्रति लालसा के कारण ही आत्मा के गुणों को पहचानना दुष्कर हो जाता है। इस अवसर पर उन्होंने मोह व तृष्णा पर प्रेरक उद्गार व्यक्त किए।
  मकान को हम अपने व्यवहार से आदर्श घर बनाएँ। यदि सास-बहू, माँ-बेटी, पिता-पुत्र व मालिक-नौकर के परस्पर व्यवहार में प्रेम, करुणा व वात्सल्य नहीं है तो धर्म की चर्चा मात्र प्रदर्शन है। धर्म चर्चा में नहीं, हमारे आचरण में होना चाहिए।      


व्रतों का पालन करने से जीवन में कषाय भावों का आना रुक जाता है। बारह व्रतों को अंगीकार कर जीवन को निर्मल बनाया जा सकता है। व्रतों में भी महाव्रतों का महत्व बड़ा है। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि संस्कार निर्माण के लिए बाल्यावस्था ही श्रेष्ठ है। स्वाध्याय, व्यसनमुक्ति, माता-पिता व गुरुजनों का सम्मान आदि संकल्प न केवल बच्चों के विकास में सहयोगी होते हैं, वरन एक आदर्श परिवार और स्वस्थ समाज की रचना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

धर्म बहुत ही व्यापक है। इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता, बल्कि आचार से अनुभूत किया जा सकता है। यदि धर्म को अंगीकार करना है तो भोगों को भूलकर जीवन के सारतत्वों को ग्रहण करना होगा। शुभ भावों से धर्म के मार्ग पर चलना सुगम होता है। गुलाब का फूल हमेशा काँटों में ही खिलता है। जो गुणों को जीवन में उतरेगा, वही मानव से महामानव बन सकेगा। यह भी कहा कि यदि आत्मा को पवित्र बनाना है तो कर्मों का क्षय करें।

माँ जब तक सक्षम है, वह बेटे से कभी अपेक्षा नहीं करती, लेकिन वृद्धावस्था एक ऐसी स्थिति है जब माता-पिता को अपने बच्चों की सबसे ज्यादा जरूरत है, तब उनकी उपेक्षा करना कैसा न्याय है। माँ हिमालय से शीतल, सागर-सी गंभीर, आकाश-सी विशाल और धरती-सी सहनशील होती है। फिर भी बेटे की नजरों में वह छोटी-सी है। यही बेटों की सबसे बड़ी भूल है।

आज स्थिति यह है कि जिस माँ ने रक्त का दूध बनाकर पिलाया, वही बेटा उसे खून के आँसू दे रहा है। मंदिर में घर की चर्चा और घर में अशांति का प्रभाव जीवन को तनाव से भर देता है। तनावमुक्त जीवन ही धर्म है। मकान को हम अपने व्यवहार से आदर्श घर बनाएँ। यदि सास-बहू, माँ-बेटी, पिता-पुत्र व मालिक-नौकर के परस्पर व्यवहार में प्रेम, करुणा व वात्सल्य नहीं है तो धर्म की चर्चा मात्र प्रदर्शन है। धर्म चर्चा में नहीं, हमारे आचरण में होना चाहिए।

उन्होंने कहा कि चार्तुमास के दौरान संपूर्ण धार्मिक स्थानों पर जहाँ भी संत व गुरुजन विराजमान हैं, वर्षायोग स्थापना कलश के साथ ही बादल भी अपने अमृत कलश से अमृतवर्षा कर अपारता का संदेश देते हैं। हम अमृत की बूँद-बूँद को अपने हृदय में समाहित कर मेघ बनकर आए गुरुओं की सेवा-पूजा कर जीवन को सुखमय बनाएँ।

वेबदुनिया पर पढ़ें