आप भगवान के आश्रय में ही हैं, लेकिन भूल गए हैं। सामने वाला दृश्य खराब नहीं है, तुम्हारी आंखें कमजोर हो गई हैं। दृश्य मलीन नहीं है, आंख मलीन है।
गले में खराश हो जाए तो तुम्हारा स्वर और शब्द ठीक से नहीं निकल सकता। खराश हो जाए तो तुम्हारा स्वर और शब्द ठीक से नहीं निकल सकता। खराश मिटते ही पुनः शब्द अपने रूप में निकल जाएगा। इसी तरह ब्रह्म सदैव परोक्ष रूप से सभी के आस-पास खड़ा है। प्रत्यक्ष रूप से तो कभी-कभी राम और कृष्ण बनकर आते हैं।
आप शांति से सोचिए कि श्वास कौन ले रहा है? तुम कैसे मना कर सकते हो कि ईश्वर नहीं है। श्वास लेना तुम्हारा काम है? तुम तो रात में सो जाते हो। सब क्रिया तुम्हारी बंद हो जाती है। फिर कौन श्वास लेता है?
कहीं से शब्द आया तो आपके कान में बैठकर कौन सुनता है। तुम सुनते हो? कोई दृश्य तुम्हारे सामने आया तो तुम्हारी आंखों से कौन देखता है? वो ही तो देखता है। किसी को आपने स्पर्श किया तो स्वर्श को वो ही ..। चारों और इस संसार में।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। परमात्मा सबमें व्याप्त है। कोई अपनी बुद्धि से, गले में खराश हो और शब्द ठीक से नहीं निकले, आंखें मलीन हो और ठीक से दिखाई न दे तो। हम एक शेर अक्सर कहा करते हैं कि-
काबू में अपना मन नहीं तो ध्यान क्या करें। तेरी आंखें न करे दीदार तो उसमें भगवान क्या करें। तेरी आंख न देख पाए तो इसमें भगवान का क्या दोष। कहीं न कहीं आश्रय तो लेना ही होता है। उनके आश्रय के बिना जीवन चल ही नहीं सकता। कहने का मतलब यह है कि भक्ति जहां भी आई वहां द्वेष नहीं, दुख तो रहेगा ही। रोना पड़ेगा। इसलिए सोच समझकर इस मार्ग में आना। यह मार्ग आंसुओं का है।
तो भक्ति व्याधि का शास्त्र है। पीड़ा और कसक का शास्त्र है। ऐसा कहा जाता है कि जो व्यक्ति कभी रोए ही नहीं, वो तंदुरुस्त नहीं माना जाता।