(20-5-57 को डॉ. राजेंद्रप्रसाद ने अपनी पुत्रीतुल्य डॉ. ज्ञानवती दरबार को लिखा गया पत्र)
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प्रिय ज्ञान,
1857 की महान क्रांति के बारे में मैंने इधर कई किताबें पढ़ी हैं। मेरे खयाल में यह घटना अपने आप में बहुत बड़ी नहीं थी। इतिहास की और बड़ी घटनाओं की तरह ऐसा हुआ कि यह घटना भी कुछ पहले होने वाली और बाद में होने वाली परिस्थितियों के कारण उस समय देश की जो स्थिति थी, उसके कारण 1857 का आंदोलन महत्वपूर्ण बन गया। कुछ दूरदर्शी अँग्रेजों ने भी इस बात को भाँप लिया था कि कुछ होने जा रहा है। पर मैं नहीं समझता कि कोई भी अँग्रेज यह अनुमान लगा सका होगा कि असंतोष की लहर एक विस्फोट का रूप ले लेगी और सारे देश में इस तरह से फैल जाएगी।
इस आंदोलन का अध्ययन दो प्रकार से मूल्यवान है। एक तो सभी देशभक्तों को राष्ट्र के लिए बलिदान करने की इससे प्रेरणा मिल सकती है, किंतु इसके अच्छे-बुरे दोनों ही पहलू हैं। इसका कारण यह है कि जहाँ हम एक तरफ देखते हैं कि देशभक्तों ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ कीं, दूसरी तरफ यह भी पाते हैं कि जिन्होंने इसमें जी-जान से मदद दी, उनका उद्देश्य पूरी तरह से देशभक्तिपूर्ण नहीं था, बल्कि उनके कार्यक्रम पर निजी स्वार्थ और निजी हितों की छाया थी। लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि ऐसे भी बहुत से दल और लोग थे, जिन्होंने अँग्रेजों की खुल्लम-खुल्ला सहायता की। और जैसा भारत के लंबे इतिहास में कई बार पहले हुआ है, दमन के काम में भी ये लोग हिस्सेदार हो गए।
इस अध्ययन का दूसरा लाभ यह है कि हम आज की स्थिति में इससे लाभ उठा सकते हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि हमें आंदोलन से पहले हुई घटनाओं से सबक सीखना चाहिए और अपने देश के वर्तमान और भविष्य के हित में और स्वाधीन भारत की संपन्नता और विकास की दृष्टि से उनसे हमें सावधान होना चाहिए। उस समय की परिस्थितियों और आज के हालात में कुछ सादृश्य हैं।
मिसाल के तौर पर उस समय अँग्रेज सिखों के साथ भयंकर युद्धों से मुश्किल से निवृत्त हो पाए थे, किंतु देशभर में कोई उनकी सत्ता को चुनौती देने वाला नहीं रह गया था। एक-एक करके उन्होंने देश के सभी भागों पर अपना कब्जा कर लिया था और ईस्ट इंडिया कंपनी के आधिपत्य में वे सभी भाग आ गए, जो बाद में ब्रिटिश प्रांत कहलाए और 1947 तक वे उसी तरह बने रहे।
1857 की महान क्रांति के बारे में मैंने इधर कई किताबें पढ़ी हैं। इतिहास की और बड़ी घटनाओं की तरह ऐसा हुआ कि यह घटना भी कुछ पहले होने वाली और बाद में होने वाली परिस्थितियों के कारण उस समय देश की जो स्थिति थी।
ब्रिटिश सत्ता के हितों को ध्यान में रखते हुए उस समय प्रशासन की जो कार्यविधि निर्धारित की गई, वह भी अच्छी कामचलाऊ थी। विश्वविद्यालयों की स्थापना, रेलों के निर्माण आदि जैसे जनता की सुख-सुविधा के काम भी हाथ में लिए गए। अब हमारी आज की हालत को लीजिए। भयंकर ध्वंसकारी लड़ाई के बाद हम अँग्रेजों के पंजे से निकले हैं। आजादी हमे मिल गई है लेकिन उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व में दो बड़े-बड़े भू-भाग हमसे अलग कर दिए गए हैं। हम पूरे देश को एक गणतंत्र का रूप दे सके हैं और इसके लिए लोकतांत्रिक संविधान की व्यवस्था भी कर पाए हैं।
ऊपर सतह पर मालूम होता है कि सरकार के अधिकारों को चुनौती देने वाली अब और कोई शक्ति देश में नहीं रही, ठीक उसी तरह जैसे 1857 के बाद भारत में अँग्रेजों की शक्ति को ललकारने वाला कोई और नहीं रह गया था। किंतु इस सादृश्य को हमें अधिक नहीं खींचना चाहिए। दस वर्ष के स्वराज्य के बाद भारत के जनसाधारण के हित में बहुत-कुछ रचनात्मक कार्य कर चुकने के बाद भी हम देश के सभी लोगों का विश्वास प्राप्त करने में अभी तक सफल नहीं हुए हैं। इसके विपरीत राजनीतिक दलों में इतना आपसी खिंचाव है, जितना पहले कभी नहीं था। आम चुनावों से यह सिद्ध हो गया है कि यद्यपि शासक दल (काँग्रेस) ने बहुमत प्राप्त किया है फिर भी यह जाहिर है कि देशभर के लिए अथवा शासक दल के लिए सभी लक्षण शुभ नहीं हैं।
हो सकता है कि हमें साफ दिखाई नहीं देता हो, किंतु यह निर्विवाद है कि देश में असंतोष की जड़ें फैल चुकी हैं और गहरी जा चुकी हैं। कारण चाहे कुछ भी हो, विभिन्न दलों और वर्गों को सरकार विरोधी पक्ष की ओर धकेल रही है। यह स्वाभाविक है कि इसके फलस्वरूप असंतोष और भी व्यापक होता जाए। असल में हमें देश के सभी लोगों के पूर्ण समर्थन और दृढ़तापूर्ण सहायता की आवश्यकता है। लेकिन दुर्भाग्य से हम उन्हें प्रेरित नहीं कर पाए हैं।
यदि यह असंतोष अभी तक रंग नहीं लाया है, इसका एकमात्र कारण यह है कि लोग निस्पृह और असहाय बन गए हैं। यह स्थिति शुभ नहीं है। हमें चाहिए कि हम उन सभी गलतियों से सबक लें, जो अँग्रजों ने 1857 से पहले की थीं। निराश होने की जरूरत नहीं है, आवश्यकता इस बात कीहै कि हम परिस्थितियों को समझें और उनके लिए अपने-आपको तैयार करें।