करीब दो साल पहले एक शॉर्ट फिल्म अगल-अलग चैनलों पर दिखाई जाती थी। फिल्म में किसी महानगर की एक सड़क है, जिसके इर्द-गिर्द फुटपाथ पर गोलगप्पे, अखबार वाले सभी जमे हुए हैं। स्कूल से माँ के साथ लौटती बच्ची गोल-गप्पे खाने के लिए मचल उठती है। इसी बीच हल्की-सी आँधी उठती है। अखबार वाला अपना अखबार समेटने के लिए दौड़ता है। फुटपाथ पर बैठे घड़ी वाले के सिर पर पानी की कुछ बूँदें पड़ती हैं। वह भी अपना सामान समेटने लगता है। जमीन पर लेटा भिखारी अपने उड़ते नोट के पीछे दौड़ रहा है। इस दौरान रेडियो पर जन-गण-मन... बजने लगता है। लोग इस बात से बेफिक्र अपना बचाव करते रहते हैं, लेकिन फुटपाथ पर बैठा विकलांग मोची बारिश-आँधी में अपने दुकान की परवाह किए बिना बैसाखी के सहारे खड़ा हो जाता है।
उसके पास ही बूट पॉलिश की दुकान लगाए तीन और बच्चे राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े हो जाते हैं। पटाक्षेप में अमिताभ बच्चन की आवाज आती है- ‘‘राष्ट्रगान के सम्मान में शर्म कैसी, राष्ट्रगान का सम्मान यानी देश का सम्मान।’’
गजानन राव और सुब्रत राय की इस फिल्म को जितनी बार दिखाया जाता था, तो कम ही सही दो-चार मिनट की बहस हो ही जाती थी कि हम अपने राष्ट्रीय प्रतीकों और इससे जुड़ी चीजों को लेकर कितने सजग हैं। अपने देश के सम्मान की हमारे अंदर कितनी उत्कंठा है। लेकिन बात महज बात करने का माध्यम थीं। इसके पीछे कोई गंभीर सोच नहीं होती थी।
हर साल स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गाँधी जयंती आते हैं और बीत जाते हैं, लेकिन हमारे लिए यह सभी कुछ ‘एक और छुटटी’ में तब्दील हो जाता है।
हर साल स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गाँधी जयंती आते हैं और बीत जाते हैं, लेकिन हमारे लिए यह सभी कुछ ‘एक और छुटटी’ में तब्दील हो जाता है। देश के सम्मान के प्रति हमारी संवेदनाएँ इतनी कमजारे हो गईं हैं कि हमें इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि हम 52 सेकेंड के राष्ट्रगीत के सम्मान में खड़े हो सकें।
याद कीजिए - पुराने जमाने की जितनी भी फिल्में सिनेमा हॉल में दिखाई जाती थीं, उनकी न्यूज रील के साथ ही फिल्म खत्म होने पर राष्ट्रगीत भी बजता था और सभी दर्शक सम्मान में खड़े भी होते थे। लेकिन वक्त के साथ इसमें भी बदलाव आया। राष्ट्रगीत के सम्मान में खड़ा होना किसी को मुनासिब नहीं लगने लगा और फिल्म के प्रदर्शन के दौरान जन-गण का मन राष्ट्रगीत में नहीं लगने के कारण इसे हटा लिया गया।
इसका नतीजा यह निकला कि वर्ष 1994 में विधु विनोद चोपड़ा ने ‘1942- ए लव स्टोरी’ बनाई तो उसमें जन-गण-मन रखने के दौरान उन्हें इस बात के लिए कैप्शन भी लिखना पड़ा कि ‘कृपया राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े हो जाएँ।’
राष्ट्रीय पर्व का महत्व हमारे धर्म और मान्यताओं से कहीं अधिक है। इसमें किसी संप्रदाय या वर्ग का बँटवारा नहीं है। इस पर सभी का बराबर अधिकार है
एक वाकया और याद आ रहा है। हाल ही में मुंबई के एक थिएटर में किसी फिल्म का शो हो रहा था। फिल्म शुरू होने के पहले राष्ट्रगीत के सम्मान में कुछ युवकों को छोड़कर सभी लोग खड़े हो गए। यह बात एक बुजुर्ग दंपती को अच्छी नहीं लगी और इसके लिए उन्होंने युवकों को फटकार लगाई। युवकों ने अपनी गलती मानने के बजाय बुजुर्ग दंपती के साथ बुरा बर्ताव किया और मारपीट भी की।
बात सिर्फ जन-गण-मन की नहीं है। बात है, हमारी मानसिकता की। हम हर उस बात से वास्ता रखना छोड़ते जा रहे हैं, जो हमारे फायदे की नहीं है। 15 अगस्त और 26 जनवरी से हमारा वास्ता भी महज इसलिए है कि उस दिन सभी कार्यालयों में कामकाज नहीं होता है। हम यहाँ ये भूल रहे होते हैं कि कार्यालय बंद नहीं होते हैं, बल्कि एक उत्सव मनाने के लिए अपने बाकी काम स्थगित कर देते हैं। कुछ वर्षों पहले चैनलों पर नेताओं में राष्ट्रीय प्रतीकों की जानकारी और राष्ट्रगान याद होने, न होने के बारे में काफी मसालेदार रिपोर्ट दी। रिपोर्ट के बाद रोजमर्रा की चर्चा में उन लोगों ने भी भाग लिया, जिन्हें इन सबकुछ के बारे में रत्ती भर भी ज्ञान नहीं था। दरअसल हमारी सोच बहुत सिमट गई है। सूचना संचार का दायरा तो बढ़ा, लेकिन हमने अपनी सोच की परिधि छोटी कर ली।
कभी गौर कीजिए कि नवीन जिंदल को उस वक्त कैसा लगा होगा, जब उन्हें राष्ट्र-ध्वज फहराने से रोक दिया गया था। इस बात के लिए उन्होंने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी है, तब जाकर हम सभी को यह अधिकार मिल पाया है कि आज हम सभी अपने घरों, दुकानों, कार्यालयों और जहाँ भी जी चाहे गर्व से तिरंगा फहरा सकते हैं। राष्ट्रीय पर्व का महत्व हमारे धर्म और मान्यताओं से कहीं अधिक है। इसमें किसी संप्रदाय या वर्ग का बँटवारा नहीं है। इस पर सभी का बराबर अधिकार है और सबसे ऊपर राष्ट्रीय पर्व, प्रतीक, गीत और गान हमें राष्ट्र के प्रति गर्व करना सिखाते हैं। ये हमें अपने ऊपर गर्व करने की प्रेरणा देते हैं।