कलम की ताकत क्या हेाती और निडर और निष्पक्ष पत्रकारिता क्या होती है इसकी प्रेरणा गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन से मिलती हैं। वह ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने सत्ता की राह तक बदल दी थी। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। वह एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जो महात्मा गंधी के समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी के लिए लड़ने में सक्रिय योगदान प्रदान करते थे। उनके जोश भरे लेखन से क्रांतिकारी आंदोलन से जन आंदोलन से जोड़ने वाले योगदान को कभी नहीं भूल सकते हैं।
गणेश शंकर विद्यार्थी निडर और निष्पक्ष पत्रकार समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी थे। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में उनका नाम अजमर अमर हैं। उन्होंने अपनी लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान दिया है जिसे हमेशा याद रखा जाएगा। महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ने अपनी कलम और वाणी से संपूर्ण सहयोग दिया। अन्याय और शोषण के खिलाफ हमेशा आवाज बुलंद की।
26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद में गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। वह धार्मिक प्रवृत्ति के थे और अपने उसूलों के एकदम पक्के। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू और अंग्रेजी में हुई थी। उन्हें शुरू से ही लेखनी का शौक रहा है। ख्यात लेखक पंडित सुंंदर लाल के साथ वे हिंदी साप्ताहिक 'कर्मयोगी' के संपादन में उनकी मदद करने लगे। इस दौरान सरस्वती, स्वराज्य, हितवार्ता जैसे प्रकाशनों में लेख लिखना प्रारंभ किया। आगे बढ़ते हुए पत्रकारिता, सामाजिक कार्य और स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ने के बाद उन्होंने उपनाम 'विद्यार्थी' अपनाया।
1911 में साहित्यिक पत्रिका 'सरस्वती' में उप-संपादक के पद पर गणेश शंकर विद्यार्थी को काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। लेकिन विद्यार्थी को राजनीति में रूचि अधिक थी। तो उन्होंने अभ्युदय में नौकरी कर ली।
1913 में वह कानपुर पहुंचे। जहां उन्होंने बेहद अहम रोल अदा किया। कानपुर में क्रांतिकारी पत्रकार के तौर पर 'प्रताप' पत्रिका निकाली। इसके माध्यम से अन्याय, उत्पीड़न लोगों के खिलाफ आवाज बुलंद करने लगे। प्रताप के माध्यम से वह मजदूरों, किसानों, पीडि़तों का दुख उजागर करने लगे। लेकिन अंग्रेज सरकार को जब यह बर्दाश्त नहीं हुआ तो विद्यार्थी पर कई मुकदमें दर्ज किए, जुर्माना लगाया और गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया।
1916 में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई थी। इसके बाद पूर्ण रूप से स्वाधीनता आंदोलन में अपने आपको झोक दिया। 1920 में उन्होंने प्रताप का दैनिक संस्करण निकालना शुरू किया। लेकिन रायबरेली में किसनों के लिए लड़ी लड़ाई में 2 साल कारावास की सजा हुई।1922 में रिहा हुए। लेकिन भड़काऊ भाषण के आरोप में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया। जितना अधिक रूप से वह सक्रिय होने लगे थे परेशानियों भी उनके साथ पूर्ण रूप से सक्रिय हो रही थी। 1924 में रिहा होने के बाद उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। 1925 में यूपी के विस के लिए चुनाव के लिए विद्यार्थी का नाम तय हुआ। और 1929 में पार्टी ने उनसे त्याग पत्र मांग लिया। और यूपी कांग्रेस समिति का अध्यक्ष बनाया गया।
1930 में उन्हें एक बार फिर से जेल की रोटी खाना पड़ी। 9 मार्च 1931 को वह जेल से छूटे। जहां एक और मजहब पर लड़ने वालों के खिलाफ विद्यार्थी लड़ते रहे। उन्हीं दंगाइयों के बीच फंसकर उन्हें मार डाला। कानपुर में हो रहे दंगों को विद्यार्थी कई जगह पर रोकने में कामयाब भी हुए। लेकिन कुछ लोग उन्हें नहीं जानते थे और उन दंगाइयों की बीच वह दबकर मर गए। देखते ही देखते इस कदर अदृश्य हुआ कि अस्पताल में जमें शवों के बीच उनका शव मिला। अपनी कलम से उन्होंने सुधार की आग उत्पन्न की थी।