पहले पाकिस्तानी नोबेल विजेता को अपने ही देश में मुसलमान मानने से इंकार किया

abdus salam
पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉ अब्दुस सलाम को 1979 में फिजिक्स के क्षेत्र में नोबेल पुरुष्कार से नवाज़ा गया था। सलाम ने पार्टिकल फिजिक्स में Higgs Boson की खोज की थी जो God Particle के नाम से भी प्रचलित है। सलाम पहले पाकिस्तानी नोबेल विजेता होने के साथ पहले मुस्लिम भी थे जिन्हें विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आपको जानकार हैरानी होगी कि इतनी बड़ी उपलब्धि के बाद भी सलाम को अपने ही देश में पहले मुस्लिम नोबेल विजेता मानने से इनकार कर दिया था। 
 
पाकिस्तान में धार्मिक पहचान के कारण गुमनामी
पाकिस्तानी होने के बाद भी उनके खुद के देश में ऐतिहासिक उपलब्धि का जश्न नहीं मनाया गया। साथ ही सलाम ने अपने ही देश में धार्मिक पहचान के लिए कई संघर्ष किए। अहमदी अल्पसंख्यक समुदाय से होने के कारण सलाम की इस उपलब्धि को पाकिस्तान में गुमनाम रखा गया। आपको बता दें कि अहमदिया इस्लाम की एक ऐसी कास्ट है जिसे पाकिस्तान व पूरी मुस्लिम देशों में प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। 
 
भारतीय प्रोफेसर को दिया अपना पुरस्कार
नेटफ्लिक्स पर हाल ही में एक डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ की है जिसका टाइटल 'सलाम, द फर्स्ट ****** नोबेल पुरस्कार विजेता' रखा गया है। इस डाक्यूमेंट्री में उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है। इस डाक्यूमेंट्री में एक सीन ऐसा है जो भारत पाकिस्तान के रिश्ते को दर्शाता है। जब दिसंबर 1979 में डॉ सलाम को नोबेल पुरस्कार मिला तो उन्होंने भारत सरकार को एक अनुरोध जारी किया। इस अनुरोध में उन्होंने अपने टीचर प्रोफेसर अनिलेंद्र गांगुली का पता लगाने की मांग की जिन्होंने उन्हें लाहौर के सनातन धर्म कॉलेज में गणित पढ़ाया था। 
 
भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद प्रोफेसर गांगुली भारत आ गए थे। सलाम नोबेल पुरस्कार जीतने के दो साल बाद यानी 19 जनवरी 1981 को प्रोफेसर गांगुली के दक्षिण कोलकाता स्थित आवास पर उन्हें श्रद्धांजलि देने गए। डॉ सलाम का मानना था कि गणित के प्रति उनका जुनून प्रोफेसर गांगुली ने ही पैदा किया था। 
 
सलाम अपने पदक को भारत में प्रोफेसर गांगुली के पास ले गए जो उस समय बहुत बूढ़े थे। प्रोफेसर गांगुली पीठ के बल लेटे हुए थे और बिस्तर से उठ नहीं पा रहे थे। सलाम ने उनका नोबेल पुरस्कार उनके हाथों में रखा और कहा कि 'यह आपका पुरस्कार है सर। यह मेरा नहीं है।' यह एक शिक्षक के प्रति सर्वोत्तम श्रद्धांजलि थी जो धर्म व राष्ट्र की सीमा को लांघ कर एक शिष्य और गुरु के रिश्ते को दर्शाती है। 
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