मोदी को फ़ासिस्ट बताने वाला मीडिया धर्मसंकट में, यूरोपीय संसद में भी होगा फ़ासिस्टों का ही बोलबाला

EU Parliament Election: भारत में चुनावों के बाद देश-विदेश का जो मीडिया भारत के प्रधानमंत्री को 'फ़ासिस्ट' और 'हिंदू राष्ट्रवादी' सिद्ध करने में जुटा हुआ था, उसे अब अपना ध्यान ज़रा यूरोप की तरफ़ भी मोडना चाहिए। किसी को भी 'फ़ासिस्ट' घोषित करने के अपने इस पवित्र काम के लिए उसके पास एक और सुअवसर हैः यूरोपीय संसद के लिए यूरोपीय संघ के 27 देशों में गुरुवार, 6 जून से रविवार, 9 जून तक चले चुनाव के परिणाम। 
 
यूरोपीय संघ की संसद के लिए हर 5 वर्ष पर होने वाले इस चुनाव के परिणाम इस बार इतने विस्फोटक रहे, कि रविवार की शाम उनके आते ही, फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने आव देखा न ताव, देश की संसद भंग कर दी। उस समय शाम के 9 बजे थे। रात नहीं हुई थी, क्योंकि जून में दिन बहुत लंबा होने से यूरोप में रात का अंधेरा 10 बजे के आस-पास शुरू होता है। हुआ यह था कि माक्रों की पार्टी 'रेनैसां' (पुनर्जिवन/ पुनरुत्थान) को करारी हार खानी पड़ी। लोक-लुभावन घोर दक्षिणपंथी मरीन लेपेन की पार्टी 'रासेम्ब्लेमां नस्योनाल' (राष्ट्रीय एकता) की तुलना में माक्रों की पार्टी को केवल आधे वोट मिले हैं। उन्हें लगा कि यदि अभी ही कुछ नहीं किया, तो 2027 में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव में उनकी लुटिया डूबना तय है।
माक्रों की छवि : राष्ट्रपति माक्रों ने अपनी छवि अब तक एक ऐसे नेता के रूप में बना रखी है, जो घोर दक्षिणपंथियों से बचाव के लिए किसी क़िलेबंदी की समान है। लेकिन, यूरोपीव संघ की संसद के चुनाव में इस्लाम विरोधी मरीन लेपेन की भारी सफलता ने उन्हें हिला दिया है। 'लोहे को लोहे से ही काटने' के लिए वे संभतः एक दूसरे दक्षिणपंथी, जोर्दां बार्देला को अगले 3 वर्षों के लिए अपना प्रधानमंत्री बनाने की सोच रहे हैं। किंतु, प्रेक्षकों का मानना है कि यह सोचना, कि बार्देला अगले 3 वर्षों में मारीन लेपेन की चमक-दमक फीकी कर देंगे और उनका यशगान करने वालों को अपने पाले में खींच लेंगे, एक मृगमरीचिका है। इतना ही नहीं,  बार्देला को अपना प्रधानमंत्री बना देने पर राष्ट्रति माक्रों, विशेषकर जर्मनी के नेताओं के लिए धर्मसंकट पैदा कर देंगे, क्योंकि जर्मन नेता अपने यहां पहले ही 'जर्मनी के लिए विकल्प (AfD)' नाम की तेज़ी से लोकप्रिय हो रही एक घोर दक्षिणपंथी पार्टी का सामना कर रहे हैं। 
 
यूरोपीय संघ की संसद के लिए जर्मनी में हुए मतदान में 16 प्रतिशत वोट पाने वाली AfD की लोकप्रियता दूसरे नंबर पर है। 29 प्रतिशत वोटों के साथ जर्मनी की दोनों क्रिश्चियन पर्टियों CDU-CSU की पारंपरिक जोड़ी पहले नंबर पर है। तीन पार्टियों के इस समय सत्तारूढ़ गठबंधन की सबसे प्रमुख पार्टी, चांसलर (प्रधानमंत्री) ओलाफ़ शोल्त्स की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी SPD को केवल 14 प्रतिशत मतदाताओं का और गठबंधन की बाकी दोनों पार्टियों को इससे भी कम मतदाताओं का समर्थन मिला है। जर्मनी में मतदान का अनुपात 64 प्रतिशत से अधिक रहा। 
 
यूरोपीय संसद में 720 सीटें : मतदान करने के लिए न्यूनतम आयु पूरे यूरोपीय संघ में पहली बार 16 वर्ष थी। इससे पहले 18 वर्ष हुआ करती थी। युवा मतदाओं ने भी अधिकतर घोर दक्षिणपंथी पार्टियों को ही पसंद किया। बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में स्थित यूरोपीय संघ की संसद में कुल 720 सीटें हैं। संघ के सभी देशों की कुल करीब 36 करोड़ जनसंख्या की तुलना में, किसी सदस्य देश की अपनी जनसंख्या का अनुपात क्या है, इसे देखते हुए उसे संसद में सीटें मिलती हैं। जर्मनी की जनसंख्या सबसे अधिक है। उसे 96 सीटें मिली हुई हैं।
 
जर्मनी के उस पूर्वी हिस्से के राज्यों में, जहां 1990 तक सोवियत रूस की सेनाएं हुआ करती थीं और रूस की बैठाई कम्युनिस्ट सरकार का राज था, लगता है कि वहां के लोग अब मार्क्सवादी क्रांतिकारी से फासीवाद समर्थक प्रतिक्रियावादी बन गए हैं। वहां की जनता ने, अपने आप को 'जर्मनी का विकल्प' बताने वाली घोर दक्षिणपंथी AfD  के पक्ष में सबसे अधिक उत्साह के साथ मतदान किया है। मार्क्सवादी से फ़ासीवादी बनने के इस मतपरिवर्तन में केवल ढाई दशक का समय लगा।
 
जर्मन अपने ही देश में विदेशी : AfD के इन समर्थकों का कहना है कि शरणार्थियों के प्रति सहानुभूति के नाम पर जर्मनी की सरकारें हर वर्ष जिन विदेशियों को शरण देती हैं, वे लगभग सब के सब 'मुफ्तख़ोर हैं और मुस्लिम देशों से आते हैं।' उनके कारण देश में हिंसा और अपराध बुरी तरह बढ़ रहा है। मूल जर्मन अपने ही देश में विदेशी होते जा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि शरणार्थियों की बाढ़ रोकने के सारे कथित प्रयासों के बावजूद 2023 में 351,915 नए शरणार्थी जर्मनी पहुंचे। दो लाख से अधिक विदेशियों को जर्मनी की नागरिकता मिली।
 
मतदान से कुछ ही दिन पहले की दो बहुचर्चित घटनाओं ने मतदाताओं की नाराजगी और अधिक बढ़ा दी। हैम्बर्ग शहर में जर्मनी को एक 'इस्लामी ख़लीफ़त' बनाने के लिए कम से कम दो बार हज़ारों मुसलमानों ने प्रदर्शन किए। 31 मई को दक्षिणी जर्मनी के मानहाइम शहर के बाज़ार चौक पर, दिनदहाड़े, 25 साल के एक अफ़ग़ानी युवक ने चाकू से कई लोगों और एक पुलिसकर्मी को घायल कर दिया। पुलिसकर्मी की तीन दिन बाद मृत्यु हो गई। एक दूसरे पुलिसकर्मी की गोली से घायल यह अफ़ग़ानी युवक अस्पताल में है। उससे पूछताछ अभी नहीं हो पाई है।
 
15 साल की आयु में जर्मनी पहुंचा : यह युवक 15 साल की आयु में 2014 की शरणार्थियों वाली भीड़ के साथ जर्मनी आया था। इस बीच वह शादीशुदा है और उसके दो बच्चे हैं। ऐसे शरणार्थियों द्वारा, जो लगभग सभी मुस्लिम देशों से आए हैं, बलात्कारों अथवा ट्रेनों, बसों, ट्रामों या खुले आम सड़कों पर चाकू मारकर घायल कर देने या मार डालने की घटनाएं इतनी बढ़ गई हैं कि लोग अपना गुस्सा उतारने के लिए पूर्वी ही नहीं, पश्चिमी जर्मनी में भी AfD जैसी पार्टियों का समर्थन करने लगे हैं। हिटलर-कालीन सोच वाली यह पार्टी कट्टर इस्लाम विरोधी है और यथासंभव सभी विदेशियों को जर्मनी से निकाल बाहर करना चाहती है। उसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता का यही सबसे बड़ा कारण है। 
 
जर्मनी ही नहीं, यूरोप के सभी देशों में शरणार्थी और इस्लाम बुरी तरह बदनाम हैं, सरकारें भले ही ऐसा कभी नहीं कहतीं। इसी कारण, जर्मनी ही नहीं, बेल्जियम, फ्रांस, नीदरलैंड, स्पेन, स्वीडन, इटली, ग्रीस इत्यादि अधिकतर देशों में यूरोपीय संसद के लिए हुए चुनाव में उन पार्टियों का पलड़ा भारी रहा, जिनके देशों ने शरणार्थियों को उदारतापूर्वक शरण दे रखी है और अब समझ नहीं पा रही हैं कि उनसे छुटकारा कैसे मिलेगा। पूर्वी यूरोप के भूतपूर्व कम्युनिस्ट देश ग़ैर यूरोपियों को शरण नहीं देते, इसलिए वहां यह समस्या नहीं है।
 
संसद की सुचारुता बनेगी समस्या : शरणार्थी समस्या की ही बलिहारी से, नीदरलैंड के लोक-लुभावन घोर दक्षिणपंथी कहे जाने वाले गेर्ट विल्डर्स की पार्टी को, 5 वर्ष पहले की तुलना में, इस बार के चुनाव से अब 7 सीटें अधिक मिलेंगी। यूरोपीय संसद में घोर दक्षिणपंथी पार्टियों की सीटें बढ़ने का साफ अर्थ यह भी है, कि वे भारत में विपक्षियों द्वारा संसदीय बैठकों के बहिष्कारों की तरह, अपने विरोधों और बहिष्कारों से नवगठित यूरोपीय संसद के कामों में रोड़े अटकाया करेंगी। 
 
यूरोपीय संसद के लिए मतदान के परिणाम जिन दक्षिणपंथी यूरोपीय नेताओं के लिए अनुकूल रहे, उनमें सबसे प्रमुख नाम इटली की प्रधानमंत्री जिओर्जिया मेलोनी का बताया जा रहा है। उनकी पार्टी 'फ्रातेली इतालिया' को इटली में हुए मतदान के लगभग 30 प्रतिशत वोट मिले, जो 5 वर्ष पूर्व की अपेक्षा 20 प्रतिशत से कुछ अधिक हैं। इटली में मतदान का अनुपात 50 प्रतिशत से भी कम रहा। मेलोनी अपनी पार्टी की मुख्य प्रत्याशी थीं, पर वे प्रधानमंत्री बनी रहेंगी, ब्रसेल्स नहीं जाएंगी।
मेलोनी बनेंगी 'किंग मेकर' : 47 वर्षीय मेलोनी अपने देश की तीन पार्टियों के एक गठबंधन की प्रधानमंत्री हैं। यूरोपीय संसद की वर्तमान अध्यक्ष, जर्मनी की उर्ज़ुला फ़ॉन देयर लाइन पुनः अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहती हैं और चाहती हैं कि जिओर्जिया मेलोनी और उनकी सहयोगी पार्टियां उन्हें अपना समर्थन दें। नए चुनावों के बाद यूरोपीय संसद में पहुंचने वाली विभिन्न यूरोपीय पार्टियों के बीच का समीकरण कुछ ऐसा दिख रहा बताया जाता है कि मेलोनी और उनकी सहयोगी इतालवी पार्टियों के समर्थन के बिना जर्मनी की फ़ॉन देयर लाइन दुबारा अध्यक्ष नहीं बन पाएंगी। इस कारण, मेलोनी के प्रशंसक अब उन्हें 'किंग मेकर' भी कहने लगे हैं।
 
भारत में संसदीय चुनावों के दौरान और उनके तुरंत बाद यूरोपीय ही नहीं, पूरा पश्चिमी मीडिया ऐसी सहजता और गर्व के साथ भारत के प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को अल्पसंख्यकों का शत्रु और जर्मन नाज़ियों जैसा फ़ासिस्ट बता रहा था, मानो यूरोप या अमेरिका में हिटलर के नाज़ियों जैसे फ़ासिस्ट अब हैं ही नहीं। मानो फ़ासीवाद यूरोप की नहीं, भारत के वेद-पुराणों की देन है। बेहतर है कि जो अपनी गिरेबां में नहीं झांकते, वे दूसरों को उपदेश भी न दिया करें।  

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