पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख, मार्शल ला प्रशासक और राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक को इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने सेना, धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों और तानाशाही का एक ऐसा खतरनाक मिश्रण तैयार किया था कि इसके बाद से पाकिस्तान न केवल कट्टरपंथी ताकतों वरन, सुन्नी कट्टरपंथियों, मुल्ला मौलवियों की ऐशगाह बन गया था। तुर्की के पहले निर्वाचित राष्ट्रपति रेसीप ताइप एर्दोगन भी एक इस्लामवादी, लोकप्रिय नेता हैं जो कि अपने देश में इस्लामी विचारधारा को लोगों के जीवन से ठीक उसी तरह से जोड़ना चाहते हैं जैसे कि पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में इस्लाम का असर लोगों के जीवन पर साफ-साफ दिखाई देता है।
यह बात भी सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की स्थापना से पहले इसके संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना का कहना था कि उनके पाकिस्तान में सभी धर्मों के लोगों को स्वतंत्रता होगी और धर्म का सरकार या प्रशासन से कोई लेना-देना नहीं होगा। लेकिन वही देश आज का पाकिस्तान है जहां संस्थापक जिन्ना के धर्मभाई, शिया मुस्लिमों, को बड़ी संख्या में मारा जा रहा है। लगभग इसी तरह से आधुनिक तुर्की के निर्माता मुस्तफा कमाल अता तुर्क ने 1923 ने देश की नींव डाली थी।
हालांकि मुस्तका अता तुर्क एक पूर्व सैन्य अधिकारी थे लेकिन वे लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के कट्टर हिमायती थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता भी चट्टान की तरह मजबूत थी। उनके विचारों को आज 'कमालवाद' के नाम से जाना जाता है और तुर्की की सेना को इन विचारों का रक्षक माना जाता रहा है। सेना ने तुर्की को अराजकता और इस्लामीकरण से बचाने के लिए देश की चार सरकारों को उखाड़ फेंका था। प्रत्येक संकट के समय तुर्की की सेना ने देश को लोकतंत्र के रास्ते पर आगे बढ़ाया है।
शायद इसीलिए धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और प्रगतिशील युवा नेताओं को यंग टर्क या युवा तर्क कहा जाता है। एक समय पर कांग्रेस में मोहन धारिया, चंद्रशेखर जैसे युवातुर्क नेता थे जो कि सिद्धांतों के लिए, आदर्श के लिए परिणामों की चिंता नहीं करते थे। लेकिन जिस तरह पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक ने देश को सुन्नी कट्टरतावाद की गोद में सौंप दिया था, ठीक उसी तरह रेसीप ताइप एर्दोगन और उनकी पार्टी एकेपी को अब तक नरमपंथी इस्लामी दल माना जाता रहा है लेकिन एर्दोगन के विरोधियों को लगता है कि वे देश की धर्मनिरपेक्षता को समाप्त करने की कोशिशें कर रहे हैं।
वास्तव में, उन्हें ऐसा नेता माना जाता है जो कि अपने हाथों में अधिक से अधिक ताकत इकट्ठा करते जा रहे हैं। उन्होंने तुर्की की प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी और संविधान में ऐसे सुधार किए हैं जिससे अतातुर्क के परम्परागत विचारों को समाप्त किया जा रहा है। ट्विटर और सोशल मीडिया के कटु आलोचक एर्दोगन ने इसे 'हत्यारे का चाकू' बताया था, लेकिन सेना के एक धड़े के विद्रोह के बाद उन्होंने लोगों को ट्विटर, फेसटाइम वीडियो से ही संबोधित किया था। इनके सहारे एक अज्ञात ठिकाने से उन्होंने लोगों को सड़कों पर बाहर आकर एकजुट होने का आह्वान किया था।
राष्ट्रपति के विरोधियों का मानना है कि यह विद्रोह या बगावत एर्दोगान का ही ड्रामा है जिसकी आड़ में उन्होंने जनता के बीच सहानुभूति बटोर ली। इससे वे अपने हाथों में अधिकाधिक ताकत एकत्र कर सकते हैं और अपने विरोधियों को ठिकाने लगा सकते हैं। उनके विरोधियों में राजनीतिक दलों के नेता, शिक्षक, सेना अधिकारी, न्यायाधीश, पत्रकार और वे सभी लोग हैं जोकि उनके विचारों का विरोध करते हैं। तख्तापलट की कोशिश में जहां हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया है, धरपकड़ की जा रही है और एर्दोगन समर्थकों द्वारा इन्हें फांसी दिए जाने की मांग की जा रही है, वह साबित करती है कि एर्दोगन भी सद्दाम हुसैन, बशर अल असाद, मुअम्मर गद्दाफी जैसे तानाशाहों से अलग नहीं हैं।
तुर्की में राष्ट्रपति रेसीप तायप एर्दोगन की एके पार्टी को कट्टरपंथी मुस्लिम समुदाय में व्यापक समर्थन प्राप्त है। विदेशों में उनकी इस बात के लिए आलोचना होती है कि वह अपने विरोधियों को ताकत के बल पर खामोश कर देते हैं। उनके आलोचक तुर्क पत्रकारों के खिलाफ जांच होती है, उनके खिलाफ मुकदमे चलाए जाते हैं जबकि विदेशी पत्रकारों का उत्पीड़न होता है और उन्हें तुर्की से निकाल दिया जाता है। तुर्की एक ओर ईयू में शामिल होने की कोशिश कर रहा है लेकिन वहां मृत्युदंड दिए जाने की मांग की जा रही है। इतना ही नहीं, ईयू के अधिकारियों का कहना है कि राष्ट्रपति के इशारे पर उन लोगों की सूचियां पहले ही बना ली गई हैं जिन्हें जेलों में डाला जाना है या फिर समाप्त किया जाना है।
कुछ समय पहले ही तुर्की के सबसे बड़े अखबार 'जमान' पर पुलिस ने छापा मारा था, जिसके बाद अखबार के कर्मचारियों को झुकना पड़ा। एर्दोगन की यह ताकत सिर्फ तुर्की की सीमाओं के भीतर ही नहीं चलती बल्कि उनके बॉडीगार्ड्स ने अमेरिका में भी पत्रकारों का उत्पीड़न किया है। उनका अपमान करने के आरोप में एक जर्मन कॉमेडियन के खिलाफ भी जांच चल रही है।
61 साल के एर्दोगन 2002 में सत्ता में आए थे जबकि 2001 में उन्होंने एके पार्टी का गठन किया था। 2014 में राष्ट्रपति बनने से पहले वह 11 साल तक तुर्की के प्रधानमंत्री भी रहे। सत्ता तक पहुंचने के लिए वे 1970-1980 के दशक में कट्टरपंथी इस्लामी हल्कों में सक्रिय रहे और नेकमातिन एरबाकन वेलफेयर पार्टी में रहे। वे 1994-1998 के दौरान इस्तांबुल के मेयर रहे। वर्ष 1998 उनकी वेलफेयर पार्टी पर प्रतिबंध लगा और अगस्त 2001 में उन्होंने अपने सहयोगी अब्दुल्ला ग्यूल के साथ मिलकर एके पार्टी बनाई। 2002-2003 के दौरान एकेपी ने संसदीय चुनावों में जोरदार जीत दर्ज की और उन्हें प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला। जबकि अगस्त 2014 में एर्दोगन पहली बार सीधे जनता के द्वारा चुने पहले राष्ट्रपति बने।
एकेपी के सत्ता में आने से पहले दशकों तक तुर्की की सेना ने राजनीति में कट्टरपंथी प्रभाव को रोकने के लिए चार बार हस्तक्षेप किया, लेकिन 2013 में एर्दोगन ने सेना ने वरिष्ठ जनरलों पर काबू कर लिया और 17 वरिष्ठ सैन्य अफसरों को जेल में डाल दिया। इन लोगों पर एकेपी पार्टी को सत्ता से हटाने की साजिश रचने का दोषी बताया गया था। सैकड़ों अन्य असफरों के अलावा कई पत्रकारों और धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं के खिलाफ भी मुकदमे चलाए गए।
अपने विरोधियों को दबाने के लिए उन्होंने न्यायपालिका का भी इस्तेमाल किया है। एर्दोगन ने जून 2013 में अपने खिलाफ हुए व्यापक प्रदर्शनों को कुचलने के लिए भी ताकत का इस्तेमाल किया। ये प्रदर्शन एक पार्क गेजडी को हटाकर वहां बड़ी व्यावसायिक इमारत बनाने के विरोध में हुए थे। दिसंबर 2013 में एर्दोगन की सरकार पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप लगे जिसमें तीन कैबिनेट मंत्रियों के बेटों समेत कई लोगों को गिरफ्तार किया गया।
एर्दोगन ने इस्तांबुल की मारमरा यूनिवर्सिटी से प्रबंधन में डिग्री हासिल करने से पहले उन्होंने एक इस्लामी स्कूल में शिक्षा पाई थी। यूनिवर्सिटी में उनकी मुलाकात नेकमातिन एरबाकन से हुई जो तुर्की के पहले इस्लामी कट्टरपंथी प्रधानमंत्री बने और इस तरह तुर्की का इस्लामी कट्टरपंथी आंदोलन शुरू हुआ। 1994 में एर्दोगन इस्तांबुल के मेयर बने और उनके आलोचक भी मानते हैं कि उन्होंने अच्छा काम किया। लेकिन 1999 में उन्हें चार महीने तक जेल में रहना पड़ा क्योंकि उन पर इस्लामी भावनाएं भड़काने का आरोप लगा था।
गौरतलब है कि तुर्की में एके पार्टी के सत्ता में आने से पहले ही चार बार सेना ने इस्लामिक प्रभाव वाली सरकारों को सत्ता में आने से रोका है। सैन्य टुकड़ियों ने अचानक देश को नियत्रंण में लेने की कोशिश की। खासबात यह है कि तुर्की की फौज ऐतिहासिक तौर पर 'कमालिस्ट आइडोलॉजी' की तरफ अधिक झुकाव रखती है। वरिष्ठ सैन्य अधिकारी मानते हैं कि इस्लाम को हुकूमत से दूर रखा जाए।
सेना और बहुत से लोगों का एक बड़ा हिस्सा तुर्की को एक नया, आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र समझता हैं और देश को इस ओर ले जाना चाहते हैं। इस बात को लेकर राष्ट्रपति एर्दोगन और उनकी स्थिति में काफी मतभेद हैं और इन्ही मतभेदों के कारण तख्तापलट की कोशिश की गई। सेना की टुकड़ियां 'सेक्युलर कमालिस्ट' की स्थिति चाहती हैं, इसलिए उन्होंने ये कार्रवाई की। उनकी पहली कार्रवाई इस्लामिक प्रतीकों को हटाने की रही है लेकिन इस मामले में जनता का समर्थन एर्दोगन सरकार के पक्ष में है।
एर्दोगन की पार्टी हमेशा चुनावों में जीती है। उनकी पार्टी को 50 से 55 फीसदी लोगों का समर्थन हासिल है। इसके चलते वह जनता के बीच काफी लोकप्रिय, ताकतवर हैं। इस कारण से यह तख्तापलट कामयाब नहीं हुआ क्योंकि सेना में इसे लेकर खतरनाक हद तक मतभेद रहे हैं। एर्दोगन सरकार, सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट की संरक्षक रही है और इसकी सऊदी अरब से गहरी साठगांठ रही है। इससे पहले तुर्की में जब तीन बार पहले तख्तापलट हुआ, तब सैनिकों और सेना अधिकारियों के बीच बहुत तालमेल के साथ ऐसा हुआ था।
तुर्की में मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में 1920 के दशक से धर्मनिरपेक्ष देश बनाने का प्रयास हुआ लेकिन आज तुर्की की इस्लामी पहचान बनाने की कोशिशें की जा रही है। दरअसल तुर्कों को एक नई पहचान देने वाला वैचारिक संघर्ष चल रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि राष्ट्रपति एर्दोगन के सत्ता में आने के बाद यह वैचारिक संघर्ष तेज शुरू हुआ है।
एर्दोगन का समर्थन करने वाले लोग तुर्की के दक्षिणी हिस्से एनातोलिया से आते हैं। जहां उन्हें रूढ़िवादी मुसलमानों का समर्थन मिला है जिसके कारण वह राष्ट्रपति बने थे। आज जहां तुर्की राज्य है, वह कभी ऑटोमन साम्राज्य का मध्य भाग हुआ करता था।
कमाल मुस्तफा अतातुर्क ने तुर्की को एक राष्ट्र के तौर पर पहचान दिलाई थी और वह मानते थे कि एनातोलिया में जो लोग रहते हैं वह तुर्क हैं और वह सब धर्मनिरपेक्ष हैं। इसके बाद इस्लाम से उनका नाता लगभग टूट गया था लेकिन हाल के समय में एर्दोगन के आने के साथ ही कहा जाने लगा कि कि ये धर्मनिरपेक्षता ठीक नहीं है। 'हम' अपनी पहचान इस्लाम के आधार पर बनाएंगे।
सेना, तुर्की की धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा आधार है और इसके साथ ही न्यायपालिका और उच्च शिक्षा को इस्लामीकरण से दूर रखा गया, लेकिन तुर्की के आसपास के देशों में इस्लामीकरण का असर इतना अधिक हो गया है कि अतातुर्क के देश की एक धर्मनिरपेक्ष छवि खतरे में पड़ गई है। इसके अलावा, देश में बसे कुर्द भी अपना अलग कुर्दिस्तान बनाना चाहते हैं और इसके लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं।
इस बीच तुर्की के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह यह है कि देश में वहां की धर्मनिरपेक्षता बचेगी या फिर इस्लामी कट्टरपंथ का दायरा बढ़ेगा। यदि वहां इस्लामी कट्टरपंथियों ने अपनी जड़ें जमा लीं तो तुर्की के पाकिस्तान बनते देर न लगेगी। इससे भी बड़ा खतरा वहां के गैर-सुन्नी अल्पसंख्यकों को होगा जिन्हें पाकिस्तान में गाजर मूली की तरह से काट दिया जाता है। बाकी अल्पसंख्यकों को वहां जीवित प्राणी भी नहीं समझा जाता है क्योंकि इस्लाम 'काफिरों' को लेकर बहुत अधिक क्रूर और बर्बर है।