विदिशा (वीएनआई)। 'चांद को देखूं, परिवार से घिरा, सूर्य संत है' यह है एक हायकू कविता। मात्र 17 शब्दों में सारगर्भित संदेश देने वाली और अनकहे को पाठक के विचार मंथन के लिए छोड़ देने वाली यह कविता एक तपस्वी संत ने लिखी है।
तपस्वी संत आचार्य श्री विद्यासागरजी तथा उनके संघ के कुछ संत बरसों बरस से केवल 17 शब्दों में समेटकर जीवन के बारे में ऐसे ही संदेश देने वाली सारगर्भित हायकू (छोटी कविता) कविताएं रच रहे हैं। दिगंबर जैन परंपरा के घोर तपस्वी संत आचार्य श्री विद्यासागरजी पिछले कुछ वर्षों से समूचे जीवन दर्शन को मात्र 17 शब्दों में समेटकर उसे परिभाषित करने के लिए जापानी हायकू की रचना कर रहे हैं।
हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर हैं। हायकू कविताओं से जुड़े एक नव लेखक के अनुसार 'यह संक्षेप में सारगर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली होती है, दरअसल हायकू कविताओं में जितना कहा जाता है, उतना ही अनकहा छोड़ दिया जाता है और इसी अनकहे को पाठक के विचार मंथन के लिए छोड़ दिया जाता है।'
घोर तपस्वी, चिंतक तथा समाज सुधारक संत आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अब तक लगभग 450 हायकू लिखे हैं। उनके एक कवि ह्रदय श्रद्धालु के अनुसार 'चांद को देखूं, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है', यह ब्रह्मांड से ध्वनित जीवन सार है, चांद अपने तारामंडल परिवार से घिरा है, वह शीतलता भी दे रहा, मद्धम प्रकाश भी दे रहा है, लेकिन सूर्य संत है, एक आदर्श है, वह अकेला है, लेकिन यही एकाकीपन उसे पूरी ऊर्जा दे रहा है, जन कल्याण करवा रहा है। अपने संपूर्ण तेज से पृथ्वी पर जीवन को सींच रहा है।
संत और आदर्शजनों की यही परंपरा है। स्वंय तप कर कल्याण करना, आदर्श जीवन जीने का संदेश देना, एक ऐसे समाज की रचना जहां प्रेम है, सौहार्द है। संत व आदर्श पुरुष सूर्य की तरह निज स्वार्थ की बजाय पर कल्याण का प्रतीक है। अचार्यश्री के अनुसार शब्द सयंम के साथ भाव संयम का संगम हायकू है। हायकू अनकहे की समर्थ भूमिका स्पष्ट करता है, सहज अभिव्यक्ति व सहज अनूभूति का माधयम है।
एक श्रद्धालु के अनुसार, शायद इसीलिये आचार्यश्री की हायकू मे श्रद्धालु को आचार्यश्री के प्रवचनों में छिपा सार नज़र आता है। इसी तरह दुनिया में रहते हुए भी विरक्त भाव और आदर्श जीवन व्यवस्था का संदेश देने वाली कुछ अन्य हायकू रचनाएं-
जुड़ो ना जोड़ो, जोड़ो बेजोड़ जोड़ो, जोड़ा तो छोड़ा।
संदेह होगा, देह है तो देहाती! विदेह हो जा।
ज्ञान प्राण है, संयत हो तो त्राण, अन्यथा स्वान।
छोटी दुनिया, काया में सुख दुःख, मोक्ष नरक।
द्वेष से बचो, लवण दूर रहे, दूध ना फटे।
किसी भी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं।
तेरी दो आंखें, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा।
उन्हीं के संघ के कुछ और तपस्वी संत भी पिछले काफी समय से जीवन सार की व्याख्या करने वाले हायकू लिख रहे हैं। मुनि श्री योगसागर जी ने 200 से ज्यादा हायकू लिखे हैं। इसी तरह मुनि क्षमासागर जी भी काफी हायकू लिखते रहे हैं। आचार्य योगसागर की संदेश भरी ऐसी ही कुछ हायकू-
अहंकार की झंकार, ममकार झंकार, की प्रतिध्वनि।
कांटो के बीच, गुलाब का जीवन, कैसी गुलामी।
अमल करो, समल विमल हो, ज्यों कमल सा।
कुछ विद्वानों का कहना है कि हायकू कविता को भारत में लाने का श्रेय कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर को जाता है। ठाकुर ने जापान-यात्रा से लौटने के पश्चात 1919 में 'जापानी-यात्री' में हायकू की चर्चा करते हुए बांग्ला में दो हायकू कविताओं का अनुवाद भी किया। उनका कहना था कि जो कहा जाता है वह संकेत मात्र है, शेष पाठक की ग्रहण शक्ति पर छोड़ देना चाहिए। जाने माने साहित्यकार प्रोफेसर नामवर सिंह ने कहा है की हायकू एक संस्कृति है, एक जीवन पद्धति है।
तीन पंक्तियों के लघु गीत अपनी सहजता, सरलता और संक्षिप्तता के लिए जापानी साहित्य में विशेष स्थान रखते हैं। इसमें एक भावचित्र बिना किसी टिप्पणी के, बिना किसी अलंकार के प्रस्तुत किया जाता है, यह भावचित्र अपने आप में पूर्ण होता है।
हायकू रचने वाले एक संत के अनुसार, हायकू कविता आज विश्व की अनेक भाषाओं में लिखी जा रही हैं तथा चर्चित हो रही हैं। हायकू के लिए हिंदी बहुत ही उपयुक्त भाषा है। जापानी कवि बाशो के अनुसार हायकू पल की अभिव्यक्ति होते हुए भी किसी शाश्वत जीवन-सत्य की अभिव्यक्ति है, शायद इसीलिए इन संतों के लिए यह जन जन तक जीवन दर्शन को पहुंचाने का एक स्वाभाविक माध्यम है।
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