दीपावली की कहानी : जीत का महोत्सव...

- विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी


 
किरण दीपावली की छुट्टियों में छात्रावास से घर लौटी। अब घर का हाल बेहाल था। सब तरफ सामान बिखरा था। घर में सफाई तथा रंग-रोगन का महाअभियान चल रहा था। एक बार तो उसे यह भी समझ नहीं आया कि वह अपना सामान कहां रखे? दीपावली पर घर की सफाई वाली बात किरण के लिए नई नहीं थी। किरण कई वर्षों से शहर में रहकर पढ़ाई कर रही थी। पढ़ाई की हानि नहीं हो, इस कारण किरण दिवाली के दिन ही घर पहुंचती थी। उसे घर सजा-धजा मिलता। खाने को कई पकवान भी बने होते थे। इस बार वह दीपावली से कुछ दिन पूर्व घर पहुंच गई थी।
 
आ गई किरण? दादी ने कहा और अपने काम में जुट गईं। दादी का ऐसा रूखा व्यवहार देखकर किरण का मन कुछ उखड़ गया। वह एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गई। 
 
तभी दादाजी आ गए। उनके हाथ में सामान के थैले थे। उन्होंने किरण को देखा तो खुश होकर बोले- किरण तो यहां बैठी है, मैं इसे बस पर देखकर आया हूं। लगता है यह पहले वाले बस स्टैंड पर उतरकर जल्दी से घर आ गई। 
 
दादाजी की बात सुनकर किरण उठकर उनके पास गई। पैर छूकर आशीर्वाद लिया। तभी दादी किरण के लिए चाय-पराठा ले आई। किरण को चाय के साथ दादी के हाथ का मसाला पराठा बहुत पसंद था। दादाजी की बातों ने किरण की मन:स्थिति को ठीक कर दिया था। पराठे की खुशबू ने किरण को पुलकित कर दिया था।
 
'वा...ह... मजा आ गया' कहते हुए किरण ने एक हाथ में परांठे की पुंगी (रोल) तथा दूसरे हाथ में चाय का मग पकड़ लिया। किरण इधर-उधर घूमती हुई नाश्ता करने लगी।
 
चलो मेरा भार हल्का हुआ, मेरा कुछ काम किरण संभाल लेगी। किरण की दादी ने कहा।
 
तुम्हारा नहीं, भार तो मेरा कम हुआ। किरण मेरा काम कर दिया करेगी। बार-बार बाजार जाना मुझे अच्‍छा नहीं लगता। किरण मैंने तेरी दादी को कितनी बार समझाया कि एक बार में सारे सामान बता दिया करो, मगर इसकी समझ में यह बात आती ही नहीं। किरण के दादा ने कहा।
 
क्यों चिंता करते हैं? मैं आप दोनों का ही काम कर दूंगी। इस बार मैं परीक्षा देकर आई हुं। फिलहाल मुझे कोई पढ़ाई नहीं करनी है। आप बताओ, मुझे क्या काम करना है? किरण बोली। 
 
नाश्ता समाप्त कर किरण घर के काम में जुट गई। दिनभर दादा-दादी के साथ मिलकर काम करवाती। शाम को मां-पिताजी के कार्यालय से लौट आने पर उनके साथ भी घर-बाजार आदि के काम में मदद करती रही।
 
एक दिन किरण पुताई के लिए एक कमरा खाली कर रही थी। किरण ने देखा कि कमरे की एक दीवार कुछ गीली-सी है। किरण ने अनुमान लगाया कि कहीं से पानी रिसकर दीवार को भिगो रहा है। किरण ने पानी रिसने के स्थान का पता लगाने का प्रयास किया। किरण ने देखा कि छत की टंकी तक जाने वाली पाइप लाइन जंग लगने के का‍रण से लीक करने लगी थी। किरण ने दादाजी को यह बात बताई। पिताजी को फोन कर नल ठीक करने वाले को बुलवा लिया। पिताजी की बताई दुकान से आवश्यक सामान भी ले आई थी। कुछ समय में पाइप लाइन ठीक हो गई।
 
सब लोग पूरी ताकत से काम में लगे थे। दिवाली के पहले सभी काम पूरे जो करने थे। धनतेरस को शेष रही खरीदारी भी कर ली गई। रूप चौदस पर सभी ने ठीक से नहा-धोकर नए कपड़े पहने तथा दीपावली के पकवान बनाने शुरू कर दिए। किरण सभी कार्यों में सहयोग कर रही थी। किरण के मन में एक विचार घुमड़ रहा था कि कहीं वह भी अंधविश्वास के जाल में तो नहीं उलझती जा रही? लक्ष्मी पूजा के बाद तो उसके मन की बात होंठों पर आ गई थी। 
 
'क्या लक्ष्मी पूजने से धन आता है पिताजी?' उसने पिताजी से प्रश्न किया। किरण को अपने पिताजी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर पूरा विश्वास था। 
 
क्या दीपावली पर हमने केवल लक्ष्मी ही पूजी है? पिताजी ने किरण से प्रतिप्रश्न किया। 
 
नहीं, बहुत सारे काम किए हैं। घर की पूरी सफाई की। टूट-फूट की मरम्मत कराई। घर का सभी सामान सलीके से जमाया। किरण ने कहा। 
 
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिंदगी को सही रूप से जीने के लिए जरूरी है कि जीवन में उल्लास बना रहे, जीने की इच्छा बनी रहे। दिवाली यही कार्य करती है। बिना किसी आदेश या दबाव के सभी लोग दिवाली के पूर्व काम करने में जुट जाते हैं। इससे घर, व्यवसाय आदि सभी व्यवस्थित हो जाते हैं। इसका लाभ तो मिलता ही है। किरण के पिताजी ने कहा। 
 
यह बात तो है। किरण बोली। 
 
भारत कृषि प्रधान देश है। दीपावली पर किसान फसल काटकर घर लाते हैं। फसलरूपी लक्ष्मी को घर लाने के लिए किसानों को खेतों में निरंतर जंग लड़नी होती है। जीत का प्रश्न मनाना जरूरी है कि नहीं? पास बैठे किरण के दादाजी ने कहा। 
 
ऐसी जीत जिसका लाभ पूरे समाज को मिलता है। जय हो दीपावली की, इस बात पर मुंह मीठा हो जाए। किरण बोली तथा सामने रखी थाली में बेसन की चक्की का एक टुकड़ा मुंह में रख लिया। 

साभार - देवपुत्र

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