दीपावली की कहानी : दीप जल उठे

- नरेन्द्र देवांगन
 
पूरे मोहल्ले में दीपावली की धूम मची थी। बच्चों ने नए-नए कपड़े पहन रखे थे। उनके गुलगपाड़े और शोर-शराबे से पूरा मोहल्ला गूंज रहा था। हर घर दीपों की रोशनी से झिलमिला रहा था। कहीं-कहीं बिजली के बल्ब भी शान से‍ टिमटिमा रहे थे। लेकिन इन सब रंगीनियों से बहुत दूर कमला काकी का मकान लगभग अंधेरे में डूबा हुआ था। यद्यपि उनके मकान पर भी दो दीपक जल रहे थे, लेकिन इस जगमगाहट में वे निस्तेज से लग रहे थे।
 
दूसरे, किसी को इसकी खबर हो या न हो, लेकिन नन्हें आदित्य को यह बहुत अजीब लग रहा था। वह सोच रहा था- आखिर कमला काकी दिवाली क्यों नहीं मनाती हैं?
 
उसे अच्छी तरह से याद था कि कमला काकी ने पिछले साल भी दीये नहीं जलाए थे और शायद उससे पिछले साल भी नहीं।
 
आदित्य को यह अच्छा नहीं लग रहा था कि आज के दिन कोई दुखी और उदास रहे। वह अच्‍छी तरह समझता था क‍ि जब कोई दुखी व उदास होता है, तभी त्योहार नहीं मनाता है। लेकिन काकी को क्या दुख है, यह बात वह नहीं जानता था।
 
आज मैं काकी का दु:ख जानकर ही रहूंगा। यह निर्णय करके वह जा पहुंचा अपनी मां के पास।
 
मां उस समय रसोईघर में मिठाई तैयार कर रही थीं। आदित्य को कुछ चिंतित देखकर व्यग्रता से पूछा- क्या सोच रहा है बेटा।
 
मां, कमला काकी हमारी तरह बहुत सारे ‍दीपक क्यों नहीं जलाती हैं? आदित्य ने पूछा।
 
वे बहुत दुखी हैं, बेटा। उन्हें दिवाली का त्योहार अच्‍छा नहीं लगता, क्योंकि इस दिन उनका इकलौता बेटा पटाखे चलाते समय दुर्घटनाग्रस्त होकर मर गया था। उनके पति भी नहीं हैं। बेचारी मेहनत-मजदूरी करके गुजारा करती हैं', मां ने समझाया।
 
आप मुझे हमेशा कहती हो कि दीन-दुखी की सेवा करनी चाहिए। तब क्या मैं काकी का बेटा बन जाऊं? आदित्य ने आज्ञा लेने की दृष्टि से पूछा।
 
किसी अच्‍छे काम के लिए मैं भला क्यों मना करूंगी, मां ने मुस्कुराते हुए कहा।

मां की स्वीकृति मिलते ही आदित्य का चेहरा खिल उठा। वह सरपट कमला काकी के घर की ओर भागा, लेकिन मां की आवाज सुनकर उसे वापस लौटना पड़ा। 


 
बेटा, यह मिठाई तो लेते जा। कहते हुए जब मां ने मिठाई का डिब्बा आदित्य के हाथों में थमाया तो उसे अपनी मां पर गर्व हुआ।
 
मिठाई का डिब्बा लेकर वह काकी के घर की ओर दौड़ा। प्रसन्नता के मारे उसके कदम धरती पर नहीं पड़ रहे थे। आज वह किसी बेसहारा का सहारा बनने जा रहा था।
 
शीघ्र ही वह कमला काकी के घर पहुंच गया। काकी घर के एक कोने में बैठी रो रही थी। शायद उन्हें अपना बेटा याद आ रहा था।
 
काकी आप रो रही हो? आदित्य ने पूछा। 
 
पर काकी चुप बैठी रहीं, जैसे कुछ सुना ही न हो। 
 
आदित्य ने काकी को हाथ से झकझोरकर पूछा- बताइए काकी, आपको क्या दुख है?
 
लेकिन काकी ने आदित्य के प्रश्न का कोई जवाब नहीं दिया। अपने आंसू पोंछते हुए उन्होंने आदित्य को बैठने के लिए कहा।
 
पर 
आदित्य तो जैसे घर से दृढ़ निश्चय करके आया था। बोला- मैं जानना चाहता हूं कि आप दीपावली के दिन बहुत सारे दीपक क्यों नहीं जलातीं और आप अभी रो क्यों रही हो?
 
आदित्य की जिद के आगे कमला काकी को झुकना पड़ा। उन्होंने भरे गले से इतना ही कहा- जरा अपने बेटे की याद आ गई थी। आज अगर वह जीवित होता, तो वह भी तुम्हारे जितना ही होता। 
 
काकी, अगर बेटा नहीं रहा, तो क्या मैं आपका बेटा नहीं बन सकता? मुझे अपना बेटा बना लो काकी। आज से मैं तुम्हारा बेटा हूं? आदित्य ने भोलेपन के साथ कहा।

कमला काकी ने 'बेटा' कहकर आदित्य को गले लगा दिया। आज वर्षों बाद कमला काकी के घर में दीप झिलमिला उठे थे।

साभार- देवपुत्र

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