ताऊजी का गांव बड़ा था। ताऊजी गांव के पास बन रही सड़क का काम देखते थे। गोपी का काम ताऊजी का छोटा-मोटा काम करना और ताऊजी के लिए घर से दोपहर का खाना लाना होता था। एक दिन जब गोपी खाना लेने आई तो पास के स्कुल से बच्चों के समवेत स्वर में गिनती दोहराई जा रही थी। गोपी के पैर स्कुल के गेट पर रुक गए। मास्टरजी ने आज बाहर ही कक्षा लगा रखी थी। काले बोर्ड पर लिखी गुलाबी, नीली चॉक से लिखी गिनती गोपी को खुब भाई।
अब तो गोपी रोज आकर स्कुल के गेट पर रुकने लगा। बोर्ड पर लिखे अक्षरों या गिनती को सीखने की कोशिश करता, पर उसे लिखता कहां? उसके पास न तो चॉक थी न स्लेट। उसे एक तरकीब सुझी। उसने अपनी उगंली से वहां पड़ी मिट्टी पर ही लिखना शुरु कर दिया। दूसरे दिन फिर देखता कि उसने सही लिखा या नहीं?
हफ्ते भर यह चला। फिर मास्टरजी कक्षा अंदर लगाने लगे। गोपी उदास हो गया। मगर पढ़ने की उसकी इच्छा जब बहुत बढ़ गई, तब एक दिन वो सबकी नजरें बचाकर कक्षा से सट कर खड़ा हो गया। पर डर तो था न, कि कोई उसे वहां खड़ा देख न ले। यहां जब वो मिट्टी में न लिख पाया, तो उसने बच्चो के सुर में सुर मिलाना शुरु कर दिया।
ताऊजी से मिल कर मास्टरजी ने गोपी को पढ़ा लेने की बात कही। यह भी यकीन दिलाया कि इसमें न ताऊजी को कोई खर्चा करना पड़ेगा और न ही काम का कोई हर्जा होगा। ताऊजी भी यह सोचकर की गोपी के पढ़ लेने से उन्हें भी हिसाब-किताब रखने में सुविधा होगी, मान गए। मास्टरजी की वजह से एक बच्चे का जीवन संवर गया।