सस्ती रोशनी स्वास्थ्य गिराए

बिजली बचतकारी कॉम्पैक्ट फ्लूरोसेंट बल्ब के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए यूरोपीय संघ में सौ वाट से अधिक के बल्बों पर रोक लग गई है। भारत भी ऐसा ही करने वाला है, पर सीएफएल बल्ब जेब की तरह क्या स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी हैं?

फिलामेंट वाले अब तक के सामान्य बल्बों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वे लगभग सौ वर्षों से बदले नहीं हैं, बहुत अधिक बिजली खाते हैं और रोशनी से अधिक गर्मी पैदा करते हैं। दावा किया जाता है कि नए कॉम्पैक्ट फ्लूरोसेंट बल्ब उसी उजाले के लिए करीब पाँच गुना कम बिजली खपाते हैं। उनका जीवनकाल भी कहीं लंबा होता है।

जर्मनी की कई प्रयोगशालाएँ और विशेषज्ञ इसे विज्ञापन अधिक, वास्तविकता कम बताते हैं। एक संस्था है एकोटेस्ट। वह बाजार में बिकने वाली तकनीकी वस्तुओं का इस दृष्टि से मूल्यांकन करती है कि वे कितने पर्यावरण-संगत हैं।

एकोटेस्ट की गब्रियेले अख्स्टेटर ने बताया एकोटेस्ट के विचार से ऊर्जा बचतकारी बल्ब कोई विकल्प नहीं हैं। बचत करने की उनकी क्षमता उससे कहीं कम होती है, जितना उन पर लिखा होता है या राजनैतिक बहसों में कहा जाता है।

वे मनुष्य और प्रकृति के लिए कई जोखिमों से भी भरे हैं। उनका ठंडा प्रकाश हमारे तंत्रिका-तंत्र और हॉर्मोन प्रणाली पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है, भले ही हमें यह महसूस नहीं होता।

जीवनकाल भी दावे से कम : निर्माता कहते हैं कि ये बल्ब कई-कई वर्ष चलते हैं, जबकि एकोटेस्ट की एक प्रयोगशाला ने पाया कि उसने जिन 16 बल्बों का दीर्घकालिक टेस्ट किया, केवल 15 महीने बाद उन में से 12 दम तोड़ चुके थे और केवल चार चालू थे। उनका औसत जीवनकाल सामान्य बल्ब से केवल दोगुना अधिक पाया गया।

बिजली बचाने वाले कॉम्पैक्ट फ्लूरोसेंट बल्बों की रोशनी में बहुत सी चीजों का रंग भी इतना अप्राकृतिक नजर आता है कि उन के निर्माताओं में से एक फिलिप्स कंपनी के टोमास मेर्टेस कहते हैं-जहाँ स्वाभाविक रंगों का होना जरूरी हो, जैसे खाने की मेज पर, वहाँ मैं इस बत्ती को लगाने की सलाह नहीं दूँगा।

स्वास्थ्य के लिए हानिकारक : बिजली बचाने वाले इन बल्बों को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि वे हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं।

एकोटेस्ट द्वारा कराए गए प्रयोगशाला परीक्षणों में पाया गया कि वे कम्प्यूटर के मॉनिटर से भी 12 गुना अधिक विद्युतचुंबकीय क्षेत्र पैदा करते हैं, जिसे इलेक्ट्रिकल स्मॉग या विद्युत विकिरण भी कहा जाता है। यानी, उनके बहुत पास नहीं बैठना चाहिए।

इन नए बल्बों को बनाने में मर्क्यूरी, यानी पारे का उपयोग किया जाता है। पारा स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक माना जाता है। इतना खतरनाक कि यूरोपीय संघ ने तापमापी थर्मामीटरों में पारे के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है।

प्रकाश तकनीक के विशेषज्ञ प्रो. पेटर आंद्रेस के मुताबिक पारे की जरूरत बल्ब को प्रज्ज्वलित करने के लिए पड़ती है। कोई निर्माता दो मिलिग्राम पारे से ही काम चला लेता है तो किसी को इससे अधिक चाहिए।

जिन देशों में उच्च कोटि की टेक्नालॉजी नहीं है या उत्पादन प्रक्रिया के समय केवल जरूरतभर का पारा डालना बहुत मुश्किल लगता है, उनके बल्बों में 5,10 या 15 मिलिग्राम पारा भी हो सकता है।

पारे पर रोक की जरूरत : पारे के कारण जर्मनी जैसे देशों में बिजली बचतकारी बल्बों के खराब हो जाने पर उन्हें सामान्य कचरे में नहीं डाला जा सकता।

यदि घर के फर्श पर गिर कर कोई बल्ब चूर-चूर हो जाता है तो जर्मनी में नियमानुसार पर्यावरण पुलिस को खबर दी जाना चाहिए, ताकि फर्श पर गिरे पारे को विशेष उपकरणों से उठाया जा सके।

पारे के घातक प्रभावों के जानकार प्रो. गारी त्स्यौर्नर कहते हैं पारे के उपयोग पर रोक लगना चाहिए। सभी जानते हैं कि पारा कितना बीमार कर सकता है। वह मस्तिष्क को, उसकी तंत्रिकाओं को नुकसान पहुँचाता है। गर्भवतियों के भ्रूण को भारी क्षति पहुँचा सकता है। ऐसे बच्चे पैदा हो सकते हैं, जिनका मस्तिष्क सामान्य आकार की तुलना में केवल एक तिहाई भर रह गया हो।

अनेक बीमारियाँ संभव : यही नहीं, बिजली बचतकारी बल्ब के अप्राकृतिक प्रकाश से मानसिक बीमारियाँ बढ़ सकती हैं और आँखें भी खराब हो सकती हैं।

वैज्ञानिक प्रयोगों से जाना जाता है कि दिन और रात के अनुसार हमारी शारीरिक लय को चलाने वाले सेरोटोनीन और मेलाटोनीन नाम के हॉर्मोन प्रकाश द्वारा नियंत्रित होते हैं।

सफेद प्रकाश में निहित अलग-अलग रंगों वाले स्पेक्ट्रम, अर्थात वर्णक्रम में घटबढ़ होने से तनाव सूचक हॉर्मोनों कोर्टिजोल और एड्रेनलीन की मात्रा बढ़ती है।

बर्लिन के सबसे बड़े और जाने माने अस्पताल शारिते के डॉ. डीटर कुन्त्स ने अपने अध्ययनों में पाया है कि बिजली बचाने वाले नए बल्बों और बत्तियों के प्रकाश में नीले रंग की प्रधानता होती है।

इस प्रकाश में 630 नैनोमीटर से अधिक वेवलेंग्थ की किरणें नहीं होतीं। इस कारण गाढ़े लाल रंग वाली और अवरक्त (इन्फ्रारेड) किरणें बिल्कुल नहीं होतीं। प्रकाश में नीले रंग की प्रधानता नींद से जगाने या नींद भगाने का असर पैदा करती है।

दृश्यमान वर्णक्रम का नीला प्रकाश दिन के समय हमारी भीतरी घड़ी को ताल देता है, हमें जगाए रखता है, लेकिन यदि वह रात में भी है तो यह हमारी भीतरी घड़ी के लिए गलत संकेत होता है और उसे भ्रमित करता है। हम जानते हैं कि इससे कैंसर, हृदयरोग और विषाद जैसी कई बीमारियों को बढ़ावा मिल सकता है।

अंधेपन का खतरा : बिजली बचतकारी बत्तियों के प्रकाश में नीले रंग की प्रधानता उनमें रखे पारे के भाप बनने से पैदा होती है। प्रयोगों में पाया गया है कि इन बत्तियों की रोशनी चूहों की आँख के रेटिना यानी दृष्टिपटल को क्षति पहुँचाती है और शायद उनके क्रोमोसोम भी क्षतिग्रस्त होते हैं।

डॉक्टरों को डर है कि इन बत्तियों के उपयोग से मनुष्यों में भी मैकुला डीजनरेशन अर्थात रेटिना के क्षतिग्रस्त होने से अंधापन बढ़ेगा। संसार में तीन करोड़ लोग इस समय इस बीमारी से पीड़ित हैं।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि बिजली की ऐसी बचत से फायदा ही क्या, जो महँगी बीमारियाँ लाए? भारत को भी पुनर्विचार करना चाहिए कि बिजली की बचतकारी बत्तियाँ अनिवार्य करने के यूरोपीय संघ के निर्णय का अनुसरण उसके लिए कितना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा।

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