दक्षिण चीन सागर में चीन के खिलाफ एकजुट होते आसियान देश

DW
शनिवार, 4 जुलाई 2020 (12:40 IST)
रिपोर्ट राहुल मिश्र
 
आसियान देश चीन की आक्रामता से निपटने के लिए लामबंद हो रहे हैं। दक्षिण चीन सागर को लेकर छिड़े विवाद को वे बातचीत से हल करना चाहते हैं। लेकिन उन्हें पता है कि यह इतना आसान नहीं है, तो फिर उनके सामने क्या विकल्प हैं, पढ़िए।
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वियतनाम की अध्यक्षता में हाल में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संगठन आसियान की 36वीं शिखर वार्ता में दक्षिण चीन सागर विवाद छाया रहा। शिखर वार्ता में वियतनाम के प्रधानमंत्री नयूयेन शुआन फुक ने अपने अध्यक्षीय भाषण में इस मुद्दे को मुखर होकर उठाया और कहा कि दक्षिण चीन सागर के विवाद को अंतरराष्ट्रीय कानूनों खासतौर पर संयुक्त राष्ट्र संघ के यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑफ लॉ ऑफ सी के माध्यम से शांतिपूर्वक ही सुलझाया जाना चाहिए।
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चीन की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि कुछ देश इस मामले को अनावश्यक ढंग से पेचीदा बना रहे हैं, जो गलत है। आसियान के तमाम देशों ने इस वक्तव्य का समर्थन किया और दक्षिण चीन सागर के विवाद को सुलझाने के लिए विचार-विमर्श के लिए चीन पर दबाव डाला। इस घटनाक्रम के बाद चीन ने एक बार फिर आसियान से विवाद सुलझाने के लिए बातचीत शुरू करने का वादा किया है। साथ ही साथ दक्षिण चीन सागर में चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने सैन्य अभ्यास कर यह भी जता दिया है कि चीन दक्षिण चीन सागर में अपने दावे से पीछे नहीं हटेगा।
 
दक्षिण चीन सागर में सैकड़ों द्वीप, चट्टान और एटोल हैं जिनमें से प्रमुख हैं- स्प्रेटली, पारासेल और स्कारबोराघ शोअल। चीन के अलावा ब्रूनेई, मलेशिया, फिलिपींस, ताईवान और वियतनाम इन द्वीप समूहों पर अपनी दावेदारी रखते हैं।
 
हालाकि इंडोनेशिया सीधे तो इस विवाद में नहीं उलझा है लेकिन चीन उसके नतुना द्वीप के तहत आने वाले एक्सक्लूसिव इकॉनॉमिक जोन पर भी कब्जा जमाना चाहता है। इन सभी देशों की सीमा दक्षिण चीन सागर से जुड़ी है और इसीलिए इन देशों के लिए इस क्षेत्र का महत्व बहुत ज्यादा है। दक्षिण चीन सागर वैश्विक व्यापार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। माना जाता है कि समुद्र तल के नीचे प्राकृतिक गैस, तेल और खनिज संसाधनों की प्रचुरता भी विवाद की एक बड़ी वजह है।
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चीन की दलील
 
दरअसल, चीन ने दक्षिण चीन सागर में अपनी दावेदारी की पुष्टि के लिए एक काल्पनिक सीमा रेखा बना रखी है जिसे वह नाइन डैश लाइन की संज्ञा देता है। चीन का कहना है कि शताब्दियों पहले यह क्षेत्र चीनी शासकों के अधीन था। चीन संयुक्त राष्ट्र संघ के यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑफ लॉ ऑफ सी को नहीं मानता है और इस मसौदे पर उसने हस्ताक्षर भी नहीं किए हैं। पिछले 30 वर्षों में नाइन डैश लाइन को लेकर चीन ने अपना रुख कड़ा किया है।
 
2013 से ही चीन ने स्प्रेटली और पारासेल द्वीप समूहों में अपनी लैंड रेकलेमेशन की गतिविधियां तेज कर दी थीं, हालांकि अमेरिका समेत कई देशों ने इसका विरोध किया लेकिन चीन की ये गतिविधियां बदस्तूर जारी रहीं और आज चीन ने इस क्षेत्र में हवाई पट्टी बना ली है और मिसाइलें भी तैनात कर दी हैं।
 
चीन की इन गतिविधियों के खिलाफ अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देश दक्षिण चीन सागर में फ्रीडम ऑफ नेविगेशन के तहत अपने युद्धपोत भेजते रहे हैं और चीन इसका विरोध भी करता रहा है लेकिन स्थिति जस-की-तस बनी हुई है। 
 
इन विरोधों के बीच कई वर्षों पहले फिलिपींस ने चीन के विरुद्ध इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में चीन के खिलाफ मुकदमा किया लेकिन चीन ने सुनवाई में भाग नहीं लिया और अपने खिलाफ आए नतीजे को भी मानने से मना कर दिया। चूंकि इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के निर्णय को किसी गैर-सदस्य पर लागू नहीं किया जा सकता इसलिए उस मोर्चे पर भी कोई बात नहीं बन पाई है।
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चीन के मंसूबे
 
माना जा रहा है कि पूर्वी चीन सागर, जहां चीन और जापान के बीच सीमा विवाद है, की तर्ज पर चीन दक्षिण-पूर्व सागर में भी एयर डिफेंस आइडेंटिफिकेशन जोन स्थापित करने की योजना बना रहा है। एयर डिफेंस आइडेंटिफिकेशन जोन के तहत चीन इस क्षेत्र में मिसाइलें तैनात करेगा और अपनी सीमा में अतिक्रमण पर जवाबी सैन्य कार्रवाई करेगा।
 
चीन की बढ़ती आक्रामक गतिविधियों और सैन्य अभ्यास के बीच अमेरिका ने घोषणा की है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में वह अपनी सेना को वापस तैनात करेगा। चीन और अमेरिका के बीच चल रही तनातनी के बीच यह मुद्दा और अहम हो जाता है।
 
आसियान के सदस्य देश चीन से युद्ध तो नहीं चाहते हैं लेकिन वे चाहते हैं कि अमेरिका इस क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति बनाए रखे। अपनी अमेरिकाविरोधी विदेश नीति के बावजूद फिलिपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो डुटैर्टे ने अमेरिका-फिलिपींस सैन्य समझौते की मियाद बढ़ा दी है जिसके पीछे चीन सबसे बड़ी वजह है।
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इंडोनेशिया से टकराव
 
जो भी हो, वियतनाम, फिलिपींस और मलेशिया के क्षेत्र में चीनी नौकाओं और जहाजों के लगातार अतिक्रमण ने इन देशों की परेशानी और अमेरिका के प्रति सकारात्मक रवैये में इजाफा किया है। पिछले दिनों इंडोनेशिया के नतुना द्वीप के एक्सक्लूसिव इकॉनॉमिक जोन में चीन के अतिक्रमण से इंडोनेशिया भी चीन के खिलाफ लामबंद होने को तैयार दिख रहा है।
 
हाल के दिनों में इंडोनेशिया ने इसे लेकर अपना रुख भी कड़ा किया है। चीन की बातचीत की पेशकश को भी इंडोनेशिया की जोको विडोडो सरकार ने यह कहकर ठुकरा दिया कि नतुना द्वीप के आसपास का क्षेत्र उसका है और चीन के साथ इस पर बातचीत का कोई सवाल ही नहीं उठता। अगर इंडोनेशिया का यह रुख बरकरार रहता है तो चीन की मुश्किलें निस्संदेह बढ़ेंगी। दक्षिण-पूर्व एशिया का सबसे बड़ा देश होने के नाते भी इंडोनेशिया की इस मामले में बड़ी भूमिका बनती है।
 
फिलहाल ऐसा लगता है कि चीन की बातचीत की पेशकश पर आसियान के सदस्य अपनी सहमति बनाएंगे और बातचीत का एक और सिलसिला आगे बढ़ेगा। लेकिन यह सिलसिला कब तक चल पाएगा और क्या इसका कोई सकारात्मक परिणाम आएगा, यह कहना मुश्किल है। जहां आसियान के देश चाहते हैं कि दक्षिण चीन सागर के विवाद को सुलझाने के लिए एक बाध्यकारी आचार संहिता बने तो वहीं चीन पिछले 2 दशकों से इससे कतराता रहा है।
 
बहरहाल, यह बात तय है कि चीन अपने कब्जे का कोई भी द्वीप, चट्टान और एटोल नहीं छोड़ेगा। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक इस तरह के विवाद बने रहेंगे और दक्षिण-पूर्व एशिया के इन दावेदार देशों की सरदर्दियां भी।
 
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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