- मनीष कुमार
Bridge accident case in bihar : बिहार में पुलों के टूटने का सिलसिला जारी है। पिछले दो हफ्ते में राज्य के 10 पुल टूट चुके हैं। ताजा घटना सारण की है, जहां पिछले 24 घंटे में तीन पुल टूट चुके हैं।
भारत के बिहार राज्य में पुल टूटने की ताजातरीन घटना सारण जिले में हुई। यहां गंडकी नदी पर बना एक डेढ़ दशक पुराना पुल गिर गया। पिछले 24 घंटे के दौरान सारण में पुल गिरने की यह तीसरी घटना है। इससे पहले 3 जुलाई को सिवान जिले में तीन पुल टूट गए थे। इसी दिन सारण जिले में भी दो और छोटे-छोटे पुल टूटे। ये सभी गंडक नदी की शाखा पर बने थे।
बताया जा रहा है कि ये पांचों पुल पानी का तेज बहाव नहीं झेल पाए और ध्वस्त हो गए। इनमें एक ब्रिटिश काल में बनाया गया पुल था, जिस पर अभी तक आवागमन हो रहा था। पुलों के टूटने की घटना अररिया, पूर्वी चंपारण, सिवान, मधुबनी व किशनगंज जिले में भी हुईं। सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि इनमें तीन निर्माणाधीन थे।
सुप्रीम कोर्ट से अपील, राज्य में सभी पुलों की जांच हो
इन घटनाओं को देखते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पुलों के रखरखाव से जुड़ी नीति बनाने का निर्देश दिया है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर हुई है, जिसमें कहा गया कि लगातार हो रही इन घटनाओं के कारण पूरे प्रदेश में पुलों की सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंता पैदा हो गई है, खासतौर पर बाढ़ प्रभावित इलाकों में।
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याचिकाकर्ता एडवोकेट ब्रजेश सिंह ने अदालत से अपील की है कि वह बिहार सरकार को ढांचागत ऑडिट करवाने का निर्देश दे। साथ ही एक उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति का गठन कर कमजोर पुलों की शिनाख्त की जाए। याचिका के मुताबिक, पुलों की जांच और लगातार निगरानी से यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि वे लोगों के इस्तेमाल के लिए सुरक्षित हैं या नहीं।
पहले भी गिरते रहे हैं पुल
पिछली ऐसी कई घटनाओं की तरह इस बार भी सरकार ने जांच के आदेश दे दिए, आनन-फानन में प्रारंभिक कार्रवाई भी हुई और पक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो गया। इन घटनाओं की वजह क्या है, इस पर सब की अपनी-अपनी परिभाषा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही तरफ के लोग सरकार का हिस्सा रह चुके हैं।
पुराने पुल-पुलिया टूटने पर उनके रखरखाव पर सवालिया निशान लगता है। निर्माणाधीन पुल ध्वस्त होने पर भ्रष्टाचार में संलिप्तता से जुड़े गंभीर सवाल खड़े होते हैं। उदाहरण के तौर पर दिसंबर 2022 में बेगूसराय जिले में गंडक नदी पर 13.5 करोड़ की लागत से बनाया गया पुल औपचारिक उद्घाटन से पहले ही ध्वस्त हो गया था। जांच में पता चला कि खराब गुणवत्ता के कारण सेल्फ लोड की वजह से ही पुल टूट गया।
क्या भ्रष्टाचार के बोझ से टूट रहे हैं बिहार के पुल
दूसरा चर्चित उदाहरण भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में 1,711 करोड़ की लागत से गंगा नदी पर बनाए जा रहे पुल का है। दो साल पहले इसका एक हिस्सा तेज आंधी में गिर गया था। निर्माण के क्रम में ही पुल का ढहना या किसी स्पैन या फ्लैंक का टूटना, खराब गुणवत्ता वाली निर्माण साम्रगी के इस्तेमाल की ओर इशारा करता है।
लागत ज्यादा और उम्र कम
बीते 18 साल के दौरान बिहार में डेढ़ से दो लाख छोटे-बड़े पुलों का निर्माण हुआ है। भले ही इनकी लागत ज्यादा रही हो, लेकिन ये पुल-पुलिया अपनी निर्धारित अवधि कमोबेश पूरी नहीं कर पा रहे। आम कांक्रीट ढांचे की उम्र करीब 50-60 साल होती है, लेकिन यहां महज 30 साल पुराना पुल टूट रहा है, यहां तक कि कास्टिंग के चार-पांच घंटे बाद ही ढह रहा है। ऐसे में निर्माण सामग्रियों की मात्रा व गुणवत्ता में मानकों का पालन न किए जाने के आरोप लग रहे हैं।
पुल विशेषज्ञ हेमंत कुमार कहते हैं, अगर डिजाइन सही है और कांक्रीट, सीमेंट व स्टील मिक्स सही ढंग से डालें, तो पुल गिरेगा ही नहीं। अररिया में बकरा नदी पर बना जो पुल ध्वस्त हुआ, उसके वीडियो को देखिए। पुल इस तरह ट्विस्ट होकर गिर रहा है, जैसे उसमें छड़, सीमेंट और कांक्रीट हो ही नहीं। उसका मलबा भी आसानी से पानी के साथ बह गया।
बार-बार डिजाइन पर दोष क्यों?
विदित हो कि दिल्ली और हैदराबाद से आई तकनीकी टीम ने जब अररिया में बकरा नदी के ध्वस्त पुल की जांच की, तो पता चला कि खंभे की पाइलिंग 40 मीटर नीचे से की जानी थी, जो महज 20 मीटर नीचे ही की गई थी। 182 मीटर लंबा यह पुल बिहार सरकार के ग्रामीण कार्य विभाग द्वारा 7.79 करोड़ की लागत से बनाया जा रहा था।
रिटायर्ड इंजीनियर अशोक कुमार कहते हैं, इस पुल के बारे में अब कहा जा रहा कि इसके डिजाइन में ही दोष था, निर्माण में मानकों का पालन नहीं किया गया और बकरा नदी के धारा बदलने के स्वभाव का ध्यान नहीं रखा गया। अगर सच में ऐसा था, तो निर्माण की स्वीकृति क्यों दी गई। जानकार सवाल उठा रहे हैं कि अगर डिजाइन से जुड़ी दिक्कतें थीं, तो पुल निर्माण से पहले ही धारा में बदलाव को रोकने के लिए बोल्डर पिचिंग कर नदी को क्यों नहीं बांधा गया। क्या यह देखना भी निर्माण एजेंसी की जिम्मेदारी है या विभागीय इंजीनियरों को इस पर ध्यान देना चाहिए था।
जिम्मेदार की नहीं होती पहचान
नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर एक निर्माण कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, इससे पहले भी भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में गंगा नदी पर बन रहे पुल का हिस्सा ढहने में यह बात कही गई कि डिजाइन में दोष था। यह किस तरह का फॉल्ट था? और अगर यह सच है, तो सुपरविजन का काम देखने वाले कंसल्टिंग इंजीनियर ने उसमें बदलाव क्यों नहीं किया?
आखिर क्यों व्यंग्य का पर्याय बन गया है बिहार?
पुल के निर्माण के दौरान हर सेगमेंट की कास्टिंग के समय कंसल्टिंग इंजीनियर की उपस्थिति में डेट मार्क किया जाता है और उनके हस्ताक्षर करने पर ही एजेंसी को भुगतान किया जाता है। उन पर किसी तरह की कार्रवाई की बात तो दूर, आज तक इस घटना की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई। जब बड़े पुलों के गिरने पर मामले में लीपापोती हो जाती है, तो छोटे-छोटे ठेकेदारों का मनोबल बढ़ता है।
रखरखाव की पॉलिसी ही नहीं
जानकार बताते हैं कि पुल बन जाने के बाद रखरखाव के तहत उसके एक्सपेंशन जॉइंट की बार-बार सफाई जरूरी है। 10 साल बाद बियरिंग को बदलना होता है या उसकी मरम्मत करनी पड़ती है। ऐसा किया जाना तो दूर, पुलों के रखरखाव को लेकर बिहार सरकार की कोई नीति ही नहीं है। कई बार सरकार के स्तर पर इस संबंध में चर्चा तो हुई, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी।
इतना ही नहीं, 60 मीटर से अधिक लंबे 300 से अधिक पुलों के रखरखाव के लिए फंड भी आवंटित नहीं है। इन पुलों का निर्माण हुए 20 वर्ष से अधिक बीत चुके हैं। बताया गया कि पुल बनने के अगले दो-तीन साल तक मेंटेनेंस की जिम्मेदारी तो निर्माण एजेंसी की रहती है, लेकिन उसके बाद बंदोबस्त कैसे होगा और कौन करेगा, यह निर्धारित नहीं है।
चाहे पुल बिहार राज्य पुल निर्माण निगम ने बनाया हो या फिर ग्रामीण कार्य विभाग ने। हालांकि रोड मेंटनेंस पॉलिसी के तहत पथ निर्माण विभाग की सड़कों के साथ ही 60 मीटर तक की लंबाई वाले पुल-पुलिया का रखरखाव किया जाता है। अब राज्य सरकार ने ग्रामीण कार्य विभाग के पुलों के गिरने की जांच के लिए एक समिति का गठन किया है। समिति यह उपाय भी सुझाएगी कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए क्या उपाय किए जाएं।
पुल लोगों की दिनचर्या से जुड़ा बेहद उपयोगी ढांचा है। बिहार के कई बाढ़ प्रभावित इलाकों में तो पुल की इतनी सख्त जरूरत है कि लोग खुद ही चंदा जमा कर बांस-बल्ली से कामचलाऊ पुल बना लेते हैं। ऐसे में जब भी कहीं कोई पुल बन रहा होता है, तो इलाके के लोग अपनी दुश्वारियां कम होने की उम्मीद करते हैं। पुल ढहने के साथ ही उनका सपना तो टूटता ही है, सरकार से विश्वास भी ढह जाता है।