घरों से घूम-घूमकर कपड़े इकट्ठा करने वाले और उसके बदले बर्तन या कोई अन्य सामान देने वाले आपको याद होंगे। कभी सोचा है कि वे कार्बन उत्सर्जन को घटाने और संसाधनों की बर्बादी को कम करने में अहम योगदान दे रहे हैं। लीला वनोदिया 30 साल से मुंबई में लोगों के घर-घर जाकर पुराने कपड़े जमा करती हैं।
लीला का संबंध उत्तरी गुजरात की घुमंतू जनजाति वाघरी से है, जो लंबे समय तक सामाजिक भेदभाव की शिकार रही है। इस समुदाय के लोगों की रोजी-रोटी का आधार पुराने कपड़े हैं। वे पुराने कपड़ों के बदले लोगों को नए बर्तन, प्लास्टिक का सामान या नकदी देते हैं और फिर इन कपड़ों को आगे बेच देते हैं। लीला बताती हैं कि वे इन कपड़ों को करीब 10 रुपए में खरीदती हैं और उसे धोकर और आयरन कर 20 से 30 रुपए में बेच देती हैं।
वाघरी लोग जमा किए गए कपड़ों को मुंबई के उपनगरीय बाजार में बेच आते हैं। यह एक फुटपाथ बाजार है। उन कपड़ों को खरीदकर व्यापारी उसे दूरदराज के गांवों में बेचते हैं। उन जगहों पर, जहां लोगों के पास नए कपड़े खरीदने को अक्सर पैसे नहीं होते। हर महीने इस तरह के एक बाजार से ही लगभग 40 टन कपड़े देहाती इलाकों में जाते हैं। जो माल बचता है, वो ज्यादातर फटे कपड़े और चीथड़े होते हैं। उन्हें वजन के हिसाब से रद्दीवालों को बेच दिया जाता है। फैक्टरियां वो माल खरीदकर कार की सीटों या गद्दियों की भराई के काम में लाती हैं।
सर्कुलर अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका
वाघरी जैसे समुदाय सर्कुलर इकॉनॉमी में अहम भूमिका निभा सकते हैं। इसीलिए एक सामाजिक उद्यम 'बॉम्बे रिसाइक्लिंग कंसर्न' उनकी मदद कर रहा है। कंपनी के संस्थापक विनोद निंद्रोजिया का कहना है कि एक बाजार में ही वाघरी लोग 5 से 6 टन कपड़ा लाते हैं और इस तरह कार्बन डाईऑक्साइड कम करने में मदद करते हैं। ये कपड़े यदि रद्दी में फेंक दिए जाएं तो उन्हें गलने में सालों लगेंगे। भारत में हर साल कपड़े का करीब 80 लाख टन कचरा निकलता है। अक्सर उन्हें कूड़ाघरों में या यूं ही कहीं भी फेंक दिया जाता है।
पिछले 15 सालों में दुनियाभर में कपड़ा उत्पादन दोगुना हुआ है। फास्ट फैशन अभी भी लोगों की 'इस्तेमाल करो और फेंको' की आदत को बढ़ावा दे रहा है इसीलिए कपड़े ज्यादा नहीं पहने जा रहे हैं। जल्दी फेंक दिए जाते हैं। कपड़ों को पहने जाने की दर पिछले 2 दशकों में करीब 40 फीसदी तक गिरी है। फैशन उद्योग बेशक आर्थिक वृद्धि के विकास में मददगार है लेकिन वो संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन कर रहा है।
'फैशन रिवॉल्यूशन इंडिया' की श्रुति सिंह का कहना है कि फैशन इंडस्ट्री में कल्पना से कहीं ज्यादा पानी इस्तेमाल होता है। 93 अरब मीट्रिक क्यूब। इतना पानी 1 साल में 50 लाख लोगों के पीने के काम आ सकता है। इतना सारा पानी फैशन के लिए बर्बाद किया जा रहा है।
वे कहती हैं कि इस बर्बादी को बचाने का एक रास्ता है कपड़ों का दोबारा इस्तेमाल। इसीलिए सेकंड हैंड कपड़ों का ग्लोबल बाजार फल-फूल रहा है। भारत में ये बाजार अभी शुरुआत में ही है। इसकी बड़ी वजह है पुराने सेकंड हैंड कपड़ों को पहनने से जुड़ी हिचक। लेकिन शहरों में युवा खरीदार, फास्ट फैशन के टिकाऊ विकल्पों पर जोर दे रहे हैं और उन्होंने पहने हुए कपड़ों को अपनाना शुरू कर दिया है।
गांवों में पहले भी ऐसा होता था कि बड़ी बहन के कपड़े छोटी बहन पहनती थी और बड़े भाइयों के कपड़े छोटे भाई। देश के शहरी इलाकों में भी किफायत की नई संस्कृति पैदा हो रही है। बढ़ती मांग ने दुकानों को सेकंड हैंड कपड़ों और दूसरे पुराने सामान से भर दिया है।
किफायती स्टोरों की बढ़ती मांग
स्टाइलिस्ट और फैशन डिजाइनर अमित दिवेकर बांद्रा के एक किफायती स्टोर में नियमित रूप से आते हैं। वे कहते हैं कि हम सब लोग सस्टेनेबिलिटी का रुख कर रहे हैं और फैशन में इस चीज की इस समय काफी मांग है इसीलिए माल को रिसाइकल करना सही है। अपने संसाधनों को बर्बाद कर हमेशा नया माल का उत्पादन सही नहीं है।
2019 में खुले बॉम्बे क्लोजेट क्लींस में लोग नकदी के बदले अपने कपड़े बेच सकते हैं। कंपनी की संस्थापक सना खान का कहना है कि जो लोग यहां आते हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं, जो नए कपड़े नहीं खरीद सकते। वे ऐसा इसलिए कर रहे है, क्योंकि ये लाइफस्टाइल चेंज है। अनुमान है कि रीसेल बाजार अगले कुछ बरसों में ई-कॉमर्स बाजार से आगे निकल सकता है।
भारत के फैशन ब्रांड्स को सेकंड हैंड सेगमेंट की ओर मोड़ने में मदद करने वालों में रीलव जैसे प्लेटफॉर्म हैं। ये एक सर्कुलर टेक प्लेटफॉर्म है जिसे कीर्ति पूनिया और प्रतीक गुप्ता ने बनाया है। इसकी मदद से ब्रांड अपनी ही वेबसाइटों पर अपने उत्पादों को फिर से बेच सकते हैं। कीर्ति पूनिया बहुत उत्साहित हैं कि अगर आप पिछले साल जनवरी में इंस्टाग्राम पर #thriftindia देखें तो 4 लाख पोस्टें थीं, अभी 7 लाख हैं। जनवरी से अब तक ग्रोथ ही हुई है।
कुछ किफायती स्टोर अपनी वैल्यू चेन में महिलाओं को लाने की कोशिश कर रहे हैं। वे सीधे महिलाओं से अपने ग्राहकों की पसंद का माल खरीद लेते हैं। महिलाओं के लाए पारंपरिक कपड़ों की बिक्री के लिए भी वो वन स्टॉप कलेक्शन पॉइंट की तरह हैं। इस मॉडल को अगर आगे बढ़ाया जाए तो यह वाघरी लोगों की एक बड़ी चुनौती से निपटने में काम आ सकता है।
फिर लीला जैसी महिलाओं को दिनभर सड़कों पर यूं भटकना नहीं पड़ेगा। उनके कारोबार को संगठित करने के कदम उठाए जाएं तो भारत 36 अरब डॉलर की कीमत वाले दुनिया के सेकंड हैंड मार्केट में अपनी भागीदारी बढ़ा सकता है और अर्बन रीसाइक्लिंग में कीमती योगदान करने वाले वाघरी समुदाय को भी मान्यता मिल सकती है।(फोटो सौजन्य : डॉयचे वैले)