मानसून के समय में भारत के पहाड़ी राज्यों में अकसर बादल फटने की घटनाएं सुनने को आती हैं। साल 2013 में आई केदारनाथ त्रासदी के पीछे की मुख्य वजह भी बादल फटना थी जिसमें हजारों लोग मारे गए थे।
भारत में मानसून के दौरान पहाड़ों पर अकसर बादल फटने की खबरें आती हैं। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर से बादल फटने की खबरें आती रहती हैं। बादल फटने की हर घटना अपने साथ तबाही लाती है और अपने निशान छोड़ जाती है। लेकिन बादल फटने से होने वाली इस तबाही को रोका क्यों नहीं जा सकता है? बादल कोई गुब्बारा तो नहीं होता, ऐसे में यह फट कैसे सकता है?
पुराना शब्द है बादल फटना
बादल का "फटना" कोई वैज्ञानिक शब्द नहीं है। बादल फटने की घटना विज्ञान के विकास से पहले भी होती रही है। पहले के जमाने में माना जाता था कि बादल किसी गुब्बारे की तरह होते हैं। इनमें पानी भरा होता है। जहां बारिश होती है, इनमें से धीरे धीरे पानी रिसता है।
जब बादल फटता है, तो गुब्बारे की तरह फट जाता है और बहुत सारा पानी एक साथ जमीन पर गिर जाता है। लेकिन विज्ञान के विकसित होने के साथ ही पता चला कि बादल गुब्बारे के जैसे नहीं होते। ये भाप के बने होते हैं। इनमें मौजूद नमी इकट्ठा होकर बूंदों का रूप ले लेती है जो बारिश के रूप में जमीन पर गिरती है। बादलों को लेकर इंसानी धारणा तो बदल गई लेकिन शब्द नहीं बदला और इसे आज भी बादल फटना ही कहा जाता है।
होता क्या है बादल फटना?
बादल फटने का मतलब होता है एक जगह पर बड़ी मात्रा में बारिश एक साथ हो जाना। बादल फटने के साथ तूफान या ओले पड़ना भी सामान्य है। 100 मिलीमीटर प्रति घंटे यानी 4.94 इंच प्रति घंटे की रफ्तार से बारिश पड़े तो उसे बादल फटना कहा जाता है। ऐसी परिस्थिति में बूंदों का आकार भी सामान्य से बड़ा होता है। इसकी वजह होती है ऑरोग्राफिक लिफ्ट। यही वजह है की बादल फटने की घटनाएं अकसर पहाड़ों पर होती हैं।
पहाड़ की तलहटी में मौजूद गर्म हवा पहाड़ों से टकराकर ऊपर उठने लगती है। जब यह गर्म हवा ऊपर मौजूद बादलों से टकराती है, बादलों में मौजूद पानी के अणुओं के बीच लगने वाला अंतरआण्विक बल कमजोर हो जाता है। इस वजह से पानी की बूंदें भी हवा के साथ ऊपर उठने लगती हैं। ये बूंदे आपस में मिलकर बड़ी बूंदों में बदल जाती हैं। ये संघनित तो हो जाती हैं लेकिन इलेक्ट्रो बलों के चलते ये बादलों से बाहर नहीं निकल पाती। ज्यादा नमी वाले ऐसे बहुत सारे बादल एक साथ इकट्ठा होते जाते हैं।
जैसे-जैसे ये बूंदे इकट्ठी होती जाती हैं वैसे ही पानी की सघनता बढ़ने लगती है और पानी का वजन बढ़ने लगता है। इस बढ़ते बोझ को बादल सहन नहीं कर पाते हैं और एक साथ सारा पानी बरसा देते हैं। ऐसे बादलों को प्रैग्नेंट क्लाउड यानी गर्भवती बादल कहते हैं। ऐसे बादल अकसर कम ऊंचाई यानी 15 किलोमीटर के आसपास ही होते हैं। बादल फटने का इलाका ज्यादा नहीं होता है। लेकिन एक ही जगह पर इतनी ज्यादा बारिश होने से अव्यवस्था हो जाती है। पहाड़ों से यह पानी तेज बहाव से नीचे आता है। इस पानी के साथ कीचड़ और मलबा भी होता है जो ज्यादा घातक होता है।
ऐसा जरूरी नहीं है कि बादल फटने की घटनाएं सिर्फ पहाड़ों पर ही हों। 2005 में मुंबई में बादल फटने की घटना सामने आई थी। इसकी वजह बादलों के सामने पहाड़ की जगह गर्म हवा का अवरोध होना था। गर्म हवा के अवरोध की वजह से ज्यादा नमी वाले बादल वहां इकट्ठा होते गए और बहुत मात्रा में बारिश एक साथ हो गई। 2013 में हुई केदारनाथ त्रासदी के पीछे भी वजह बादल फटना ही थी।