क्या भारत को वाकई जीएम फूड की जरूरत है?

गुरुवार, 2 अगस्त 2018 (10:50 IST)
यूरोपीय अदालत ने खाद्यान्नों पर जेनेटिक इंजीनियरिंग को खतरनाक बताकर इसे लोगों से दूर रखने की हिदायत दी है। ऐसे फूड प्रोडक्ट के डिब्बों पर जानकारी देने का आदेश दिया है। भारत में इसके बारे में कितनी जागरूकता है?
 
 
जेनेटिक इंजीनियरिंग का आसान भाषा में मतलब है कि किसी पेड़-पौधे या जीव की आनुवांशिक या प्राकृतिक गुण को बदलना। इसके तहत डीएनए या जीनोम कोड को बदला जाता है। इससे हो सकता है कि जिस जुगनू को हम रात में चमकता हुआ देखते हैं, उसके इस गुण को अगर किसी खरगोश में डाल दिया जाए तो वह भी रात में चमकने लगे। बायोटेक्नोलॉजी के अंतर्गत जेनेटिक इंजीनियरिंग एक महत्वपूर्ण शाखा है।
 
 
जेनेटिक इंजीनियरिंग या जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फूड का मुख्य मकसद आनुवांशिक गुणों को बदलकर ऐसे गुण लाना है जिससे मानव सभ्यता को फायदा हो। क्या यह वाकई फायदा पहुंचा रहा है? क्या आने वाले वक्त में इसकी जरूरत बढ़ती जाएगी? ऐसे कई सवालों के जवाब दुनिया भर के वैज्ञानिक ढूंढ रहे हैं। भारत में इसके प्रयोग हो रहे हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से इसे फायदों नुकसान की चर्चा कम होती है।
 
 
क्या है जीएम फूड?
जेनेटिक इंजीनियरिंग या जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फूड के जरिए फसलों के गुणों में बदलाव किया जाता है। मसलन, अगर राजस्थान में धान की खेती करनी है और पानी कम है तो ऐसे बीज तैयार किए जाए जो कम पानी में ही लहलहाती फसल उगा सकें। अगर सब्जियों को कीड़ों से बचाना है तो उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जाए।
 
 
पहली नजर में यह इंजीनियरिंग किसानों के लिए वरदान साबित होती लगती है और है भी। वर्षों पहले जब देश में खाद्यान की कमी पड़ी तो इसी इंजीनियरिंग के जरिए बंपर पैदावार को संभव बनाया गया। लेकिन बहुत जल्द इसके दुष्प्रभाव सामने आ गए, जो चौंकाने वाले थे।
 
 
किसानों की आत्महत्या के बाद शुरू हुई बहस
कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने डॉयचे वेले से बातचीत में बीटी कॉटन और बीटी बैंगन का उदाहरण देते हुए बताया कि इन फसलों के बीजों को जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए तैयार किया गया था। इनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक थी और कीड़े लगने का खतरा नहीं था। बंपर फसल हुई और किसानों की चांदी हो गई। लेकिन कुछ ही हफ्तों में देखा गया कि बीटी कॉटन की फसलों के पत्ते खाकर करीब 1600 भेड़ें मर गईं और कई दूसरे जानवर अंधे हो गए। अगर जानवरों पर ऐसा बुरा प्रभाव पड़ा तो क्या इसमें शक है कि इंसानों पर इसका गलत असर नहीं पड़ेगा?
 
 
सन् 2002 में 55 हजार किसानों ने देश के चार मध्य और दक्षिणी राज्यों में कपास फसल उगाई थी। फसल रोपने के चार माह बाद कपास के ऊपर उगने वाली रुई ने बढ़ना बंद कर दिया था। इसके बाद पत्तियां गिरने लगीं। बॉलवर्म भी फसलों को नुकसान पहुंचाने लगा था। अकेले आंध्र प्रदेश में ही कपास की 79 प्रतिशत फसल को नुकसान पहुंचा। नतीजा यह हुआ कि कई राज्यों के किसानों ने नुकसान की वजह से आत्महत्या कर ली।
 
 
क्या वाकई भारत की पैदावार बढ़ाने की जरूरत है?
साल 2002 में विश्व खाद्य सम्मेलन में गरीबी-भुखमरी पर चर्चा हुई। विकसित देशों ने कहा कि भूमंडलीकरण से ही भुखमरी मिट सकती है और बायोटेक्नोलॉजी के जरिए ही संकट को हल किया जा सकता है। बहुराष्ट्रीय बीज निर्माता कम्पनी मॉनसेंटो पर फर्जी अध्ययन करने का आरोप लगा जिसमें उसने दावा किया था कि कीटों और बीमारियों के कारण हर वर्ष 22.1 करोड़ डॉलर का बैंगन उत्पादन बेकार हो जाता है। बाद में मालूम चला कि इतनी राशि का तो कुल बैंगन उत्पादन ही नहीं होता है। फसलों की पैदावार और उपभोग के अनुपात पर दिए गए आंकड़ों पर बहस जारी है।
 
 
देवेंद्र शर्मा का कहना है, ''भारत या दुनिया भर में फसलों की पर्याप्त पैदावार हो रही है। दिक्कत फसलों के प्रबंधन की है। मसलन, भारत में जिस तरह बंदरगाहों पर फसलें बर्बाद हो जाती है, उसके रखरखाव का कोई सिस्टम नहीं है। हर साल औसतन 30 फीसदी फसल बर्बाद होती है। भारत में भुखमरी मिटी नहीं है, लेकिन इसका हल जीएम फूड की बंपर पैदावार नहीं बल्कि फसलों का मैनेजमेंट है।''
 
 
यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस की ओर से गैर जरूरी जेनेटिक इंजीनियरिंग पर लगाम लगाने को शर्मा आधा अधूरा न्याय मानते हैं। वह कहते हैं कि अगर डिब्बे पर लिखा रहे कि फूड प्रोडक्ट जीएम फूड से बना है तो आम लोगों को आप कब तक जागरूक करेंगे कि वे इसे न खाएं। फूड प्रोडक्ट सस्ता मिल रहा है तो लोग खाएंगे ही। जरूरत प्राकृतिक फूड चेन को बचाने की है। ऐसे बीच-बचाव के रास्ते बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रॉफिट को बरकरार रखने के लिए हैं।  
 
 
जीएम फूड के सस्ता होने का तर्क कितना सही?
जीएम फूड बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तर्क है कि वे सस्ता और गुणकारी प्रोडक्ट आम लोगों तक पहुंचा रही है। अगर कम समय में ज्यादा पैदावार वाला खाद्यान्न 12 महीने बाजार में मिल रहा है तो दिक्कत क्या है? इस पर शर्मा कहते हैं, ''आज हमारा खाना किलर बन चुका है। भारत में जीएम फूड और खाद को इस्तेमाल करने के कोई नियम नहीं है। हम प्राकृतिक गुण वाले अनाज के बजाए मशीन जैसा सटीक अनाज खाना चाह रहे हैं। फसलों के गुणों में बदलाव ने प्रकृति के फूड चेन सिस्टम को बदला है। मिट्टी को उपजाऊ बनाने वाला केंचुआ मर चुका है। खाने का गलत प्रभाव हमारे शरीर पर दिखना शुरू हो चुका है।"
 
 
देवेंद्र शर्मा इसे कैंसर जैसी बीमारियों के फैलने की वजह मानते हैं। वे कहते हैं, "बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना सामान बेचने के लिए उसे सस्ता करने पर तुली है, लेकिन वह यह नहीं देख रही कि यह मानव सभ्यता के साथ खिलवाड़ है। प्रयोगशालाओं में आर्टिफिशियल मांस तैयार किया जा रहा है जिसे लोग खा सकें। इसकी क्या वाकई हमें जरूरत है? औसतन हर साल 420 अरब डॉलर की सब्सिडी कृषि क्षेत्र को दी जाती है जिसका 80 फीसदी हिस्सा ब़ड़े कॉरपोरेट घरानों को जाता है। इतनी सब्सिडी मिलने के बाद भी हमें जहरीला खाद्यान्न दिया जा रहा है, जो शर्मनाक है।''
 
रिपोर्ट विनम्रता चतुर्वेदी
 
 

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