भारतीय रेल देश के लोगों के लिए भले ही लाइफलाइन की तरह हो और रेलयात्री रेलवे की आमदनी का भले ही बड़ा जरिया हों लेकिन रेल कर्मचारियों और रेल यात्रियों के बीच ऐसा लगता है जैसे हमेशा छत्तीस का आंकड़ा हो।
आए दिन या तो ट्रेन के भीतर या फिर बाहर रेल यात्रियों और कर्मचारियों के बीच विवाद की ख़बरें आएंगी या कई जगह यात्रियों के साथ बदसलूकी की। इसका ताजा उदाहरण सहारनपुर में मिला जब एक यात्री के साथ बदसलूकी के लिए उपभोक्ता फोरम ने दस हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया। इस मामले में गलती भी रेलकर्मियों की थी और रेल के ही टिकट चेक करने वाले कर्मचारी ने यात्री के साथ उसी गलती के लिए बदसलूकी की थी।
सहारनपुर के रहने वाले विष्णु कांत शुक्ला ने पांच साल पहले ट्रेन का टिकट लिया। उनकी टिकट पर यात्रा की तारीख के साथ वर्ष 2013 की बजाय 3013 लिखा था। यानी उनका टिकट एक हजार साल बाद का काट दिया गया था। ये गलती रेलवे विभाग की थी लेकिन टिकट चेकर ने उन्हें गलत टिकट रखने के आरोप में ट्रेन से उतार दिया। भारतीय रेल का गुमान देखिए कि ग्राहक के साथ बदसलूकी को दूर करने का उसके पास कोई उपाय भी नहीं है।
शुक्ला को इसके खिलाफ उपभोक्ता फोरम जाना पड़ा और फिर वहां से उन्हें न्याय मिला। उपभोक्ता फोरम ने इसे रेलवे की गलती बताया और शुक्ला को दस हजार रुपये जुर्माना देने का आदेश दिया। विष्णु कांत शुक्ला रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और 19 नवंबर 2013 को वह हिमगिरि एक्सप्रेस में सहारनपुर से जौनपुर की यात्रा कर रहे थे। शुक्ला ने टीटीई को बताया कि वो खुद एक जिम्मेदार व्यक्ति हैं और ऐसा नहीं कर सकते कि जाली टिकट से यात्रा करें, लेकिन टीटीई ने उनकी कोई बात नहीं सुनी। विष्णुकांत शुक्ला को अपने एक मित्र की पत्नी के मृतक संस्कार में शामिल होना था और रेलवे कर्मियों के इस गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण वो वहां नहीं पहुंच सके।
दरअसल, रेलवे विभाग यात्रियों से अक्सर इस तरह का सलूक करता है। रेलवे काउंटरों पर लगी लाइनें हों या फिर ट्रेन के भीतर तमाम तरह की परेशानियों को झेलते यात्री। ऐसा लगता है जैसे रेलवे विभाग की जिम्मेदारी सिर्फ यही है कि उसने टिकट लेकर लोगों को ट्रेन में जगह दे दी, अब उन्हें कोई सुविधा मिले या न मिले। गर्मी के मौसम में एसी खराब होने की शिकायत आम है और कई बार यात्री इसे लेकर हंगामा भी करते हैं।
दिल्ली में लंबे समय से रेलवे विभाग को कवर रहे वरिष्ठ पत्रकार वीवी त्रिपाठी कहते हैं, "रेलवे विभाग की कार्यप्रणाली में ऐसा दिखता ही नहीं है कि यात्रियों की सुविधा उसके एजेंडे में है। हालांकि दावे तो बहुत होते हैं लेकिन जमीन पर ये कम ही दिखता है। उपभोक्ता फोरम अदालतों की वजह से जागरूक और पढ़े-लिखे लोग जरूर वहां तक पहुंच जाते हैं और अक्सर इसमें यात्रियों की ही जीत होती है लेकिन ये अनुपात हजारों क्या लाखों में एक वाला होता है।”
तीन साल पहले पुणे में भी एक बुजुर्ग यात्री को कुछ इसी तरह अदालत ने रेलवे विभाग से बीस हजार रुपये का मुआवजा देने का निर्देश दिया था। पूरन सिंह मेहरा पुणे से बरेली आ रहे थे। उनका रिजर्वेशन जिस कोच में था, अचानक उसे रद्द कर दिया गया। पूरन सिंह को ये जानकारी नहीं हो पाई और वो किसी अन्य कोच में बैठ गए। टीटीई ने उन्हें सही टिकट होने के बावजूद उतार दिया। पूरन सिंह को भी उपभोक्ता फोरम से न्याय मिला।
ट्रेनों को अचानक कैंसिल कर देना, ट्रेनों की लेट-लतीफी और ट्रेनों के प्लेटफॉर्म का अचानक बदल जाना तो बहुत आम बात है। रेलकर्मी इसकी सही सूचना तक अक्सर यात्रियों को नहीं देते। हालांकि बड़े रेलवे स्टेशनों पर उद्घोषणा के जरिए ये सूचना दी जाती है लेकिन छोटे स्टेशनों पर तो स्थिति और भी बदतर है।
जानकारों के मुताबिक रेलकर्मी और अधिकारी ये नहीं समझते हैं कि ट्रेन में यात्रा करने वाले उनके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं और उन्हें इन यात्रियों की सेवा के लिए तैनात किया गया है। एक रिटायर्ड रेल अधिकारी जीके श्रीवास्तव कहते हैं, "सेवा की भावना तो छोड़िए, रेलकर्मी तो अपनी जिम्मेदारी तक नहीं समझते हैं। उनको लगता है कि यात्री कोई मजबूर लोग हैं और वो इन यात्रियों के लिए भगवान हैं। उन्हें इस बात का इल्म नहीं रहता कि इन्हीं यात्रियों की बदौलत रेलकर्मियों की नौकरी चल रही है।''
अभी कुछ महीने पहले तो एक बेहद दिलचस्प वाक्या सामने आया जिसमें एक यात्री को खर्राटे आने के कारण रेलकर्मियों की बदसलूकी का शिकार होना पड़ा। 16 फरवरी को पवन एक्सप्रेस नामक ट्रेन के थर्ड एसी कोच में उस समय अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई जब एक व्यक्ति के खर्राटों से सहयात्री परेशान हो गए। यात्रियों ने उन्हें जबरन जगाए रखा और जब उन्होंने इसकी शिकायत चीफ टिकट इंस्पेक्टर से की तो उन्होंने भी उस यात्री की कोई मदद नहीं की। हालांकि खर्राटा लेने वाले यात्री ने इस बदसलूकी की शिकायत कहीं नहीं की।