कोरोना के दौरान घरों में घुटता रहा भारतीय महिलाओं का दम

DW

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021 (08:42 IST)
रिपोर्ट : अविनाश द्विवेदी
 
नीति सलाहकार कंपनी डलबर्ग ने एक रिपोर्ट में बताया है कि महामारी के दौरान भारत में महिलाओं को बेरोजगारी का सामना करना पड़ा। बिना पैसा दिए उनसे काम कराया गया। यहां तक कि वे भरपेट खाना भी नहीं खा सकीं।
 
भारत की केंद्र सरकार ने मंत्रिमंडल में में हुए बदलाव के बाद केंद्र सरकार में महिला मंत्रियों की संख्या बढ़कर 11 हो गई। स्थानीय मीडिया में इसकी काफी चर्चा हुई और सोशल मीडिया पर भी सभी महिला मंत्रियों की एक-साथ ली गई तस्वीर शेयर की जाती रही। इस तस्वीर के जरिए भारत में महिलाओं की स्थिति मजबूत होने का दावा किया जा रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि कोरोना काल में भारत में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब हुई है। नीति सलाहकार कंपनी डलबर्ग ने एक रिपोर्ट में बताया है कि महामारी के दौरान भारत में महिलाओं को बेरोजगारी का सामना करना पड़ा। बिना पैसा दिए उनसे काम कराया गया। यहां तक कि वे भरपेट खाना भी नहीं खा सकीं।
 
यह रिपोर्ट पिछले साल मार्च से अक्टूबर के बीच 15 हजार महिलाओं से बात कर तैयार की गई है। इसमें कहा गया है कि कम कमाई वाले घरों में महिलाओं के लिए संसाधनों और सुविधाओं तक पहुंच में कमी आई है। रिपोर्ट के मुताबिक हर 10 में से 1 महिला को इस दौरान भूखा रहना पड़ा है। जबकि 16 फीसदी के लिए सैनिटरी नैपकिन और जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच मुश्किल हो गई। हालात खराब होने का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि 2019 में ही राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों में बताया जा चुका था कि भारत में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले 10 गुना ज्यादा ऐसा घरेलू काम करती हैं, जिसके लिए उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता है।
 
हिंसा, शोषण और मैरिटल रेप की घटनाएं बढ़ीं
 
इस दौरान महिलाओं पर हिंसा और शोषण में भी बढ़ोतरी हुई है और मैरिटल रेप की शिकायतें बढ़ी हैं। प्रताड़ना और शोषण के खिलाफ महिलाओं की मदद के लिए लखनऊ में 'सुरक्षा' नाम की संस्था चलाने वाली डॉ स्वर्णिमा सिंह बताती हैं कि कोरोना काल में महिलाओं के प्रति हिंसा के दोगुने से ज्यादा मामले हमारे पास आ रहे हैं। इनमें आर्थिक वजह सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन एक महत्वपूर्ण वजह पुरुषों के गैरकानूनी संबंध भी हैं। कई पुरुष जिनके अपनी पत्नी के अलावा किसी अन्य महिला से संबंध थे, उनका खुलासा इस दौरान हुआ, क्योंकि वे लगातार घर पर रहे।
 
महिलाएं छोटी नौकरियां या ब्यूटी पार्लर जैसे छोटे बिजनेस करके घर का खर्च चलाने में मदद करती थीं लेकिन कोरोना काल में वे बेरोजगार हो गईं। ऐसे हालात में अगर पति की भी नौकरी छूटी तो बच्चों की फीस का इंतजाम मुश्किल हो गया। डॉ स्वर्णिमा सिंह बताती हैं कि ऐसे ही एक मामले में फीस न भरने पर बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया। इसके बाद पति ने पत्नी के साथ मारपीट शुरू कर दी। हाल ही में यह मामला हमारे पास आया है। कोरोना काल में कमाई न होने के चलते मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसे मामले ज्यादा आ रहे हैं।
 
वे कहती हैं कि दरअसल, गरीब परिवारों को मुफ्त राशन, सीधी आर्थिक मदद और कुछ अन्य तरीकों से सहायता दी गई है लेकिन मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई है। मध्यम वर्गीय लोगों का आत्मसम्मान बहुत जल्दी आहत होता है और अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहते हैं। ऐसी हालत में कई परिवार कर्ज के बोझ तले भी दबते गए हैं, जिससे हिंसा और शोषण के मामले और बढ़े हैं।
 
घरेलू काम के दबाव में महिलाओं ने छोड़ी नौकरी
 
'नो नेशन फॉर वुमन' किताब की लेखिका प्रियंका दुबे महिलाओं पर भारी दबाव की बात कहती हैं। उनके मुताबिक कि कोरोना काल में कई वजहों से लोगों ने घरेलू सहायकों को हटाया। जिसके चलते घर के काम का सारा बोझ महिलाओं पर आ गया। बच्चों की स्कूलिंग भी एक बड़ा मसला रही। भारत में घर पर स्कूलिंग की ट्रेनिंग नहीं होती। फिर भी बच्चों को घर में स्कूलिंग देने का सारा बोझ महिलाओं पर ही आया। साथ ही सारा दिन घर पर रहने के चलते उनकी माता-पिता या सास-ससुर की देखभाल की जिम्मेदारी भी बढ़ी। सामाजिक संरचना के चलते किचन के सारे काम महिलाओं के ही माने जाते हैं। ऐसे में महिलाओं का अपना जीवन खत्म हो गया और उनके पास आराम के घंटे नहीं बचे।
 
महिलाओं पर महामारी के प्रभाव की जानकारी देने वाली डेलॉयट की 'विमेन एट वर्क' रिपोर्ट से यह बात साबित होती है। इसमें भारत की 78 प्रतिशत महिलाओं ने नौकरी छोड़ने की वजह घर में बढ़े काम को बताया है। जबकि 61 प्रतिशत महिलाओं ने अपने करियर को लेकर उत्साह खत्म होने और 42 प्रतिशत ने मानसिक स्वास्थ्य को काम छोड़ने की वजह बताया है। प्रियंका दुबे इसके लिए समाज की पुरुषवादी मानसिकता को जिम्मेदार मानती हैं। उनके मुताबिक अगर किसी महिला के लिए नौकरी की परिस्थितियां मुश्किल हैं तो उसे सुविधाएं उपलब्ध कराने के बजाए, नौकरी छोड़ देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसे में कोरोना काल में महिलाओं के नौकरी छोड़ने के लिए सुरक्षा की चिंता और यातायात सुविधाओं की कमी भी जिम्मेदार रही है।
 
कोरोना के दौरान महिलाओं ने खोई सालों की प्रगति
 
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना 'जेंडर गैप इंडेक्स 2021' रिपोर्ट में भारत 28 पायदान लुढ़क गया है। अब यह 156 देशों के बीच 140वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिलाओं के अर्थव्यवस्था में योगदान और उनके लिए मौजूद अवसरों में पिछले साल के मुकाबले 3 प्रतिशत की कमी आई है और कुल लेबर फोर्स में उनका योगदान सिर्फ 22 फीसदी रह गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक भारत में महिलाओं की बेरोजगारी दर पुरुषों के मुकाबले दोगुनी (17 प्रतिशत) है। यानी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा महिलाओं ने कोरोना काल में नौकरियां खोई हैं। आंकड़ों के मुताबिक पहले जहां महिलाएं प्रति सप्ताह 770 रुपये कमा रही थीं, वहीं अब उनकी कमाई घटकर 180 रूपये प्रति सप्ताह रह गई है। इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि जिन महिलाओं की नौकरियां गई हैं, उनमें से ज्यादातर ने नौकरियों की तलाश ही छोड़ दी है।
 
प्रियंका दुबे कहती हैं कि महिलाएं अगर बाहर जाकर काम करती हैं तो उन्हें सामाजिकता का अहसास होता है और वे अपनी बातें दोस्तों से शेयर कर पाती हैं। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है। डॉ स्वर्णिमा सिंह भी कहती हैं कि इस दौरान महिलाओं में डिप्रेशन, एंजायटी और स्ट्रेस के मामले तेजी से बढ़े हैं। आर्थिक आजादी के छिनने से भविष्य को लेकर उनमें असुरक्षा का भाव भी बढ़ा है। एक बार नौकरी छोड़ने के बाद आप आत्मविश्वास भी खो देते हैं। ऐसे में इन महिलाओं को फिर से घरों से बाहर निकलकर काम करने का आत्मविश्वास दे पाना मुश्किल होगा।
 
जानकारों के मुताबिक कोरोना काल में पिछले कई सालों में महिलाओं को लेकर हुई प्रगति एक झटके में खत्म हो गई है। वे महिलाओं से जुड़ी समस्याओं को चक्रीय और एक पुरुषवादी समाज का नतीजा मानते हैं और इसके समाधान के तौर पर शिक्षा की बात कहते हैं। लेकिन कोरोना काल के आंकड़े जानकारों को और डरा रहे हैं। पिछले साल के अंत में एक स्टडी में 37 प्रतिशत स्कूली बच्चियों ने कहा था कि वे निश्चित तौर पर नहीं कह सकती कि वे स्कूल लौट पाएंगीं। ऐसे में जानकारों को लड़कियों के बाल विवाह के मामले बढ़ने का भी डर है। जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (NFHS) के अब तक आए आंकड़े पहले ही दिखा रहे हैं कि 2015 के बाद से भारत में बाल विवाह के मामलों में बढ़ोतरी हुई है।

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