मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देकर भारत सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद्य उत्पादन में एक बड़े बदलाव की कोशिश कर रहा है। लेकिन इस अभियान की राह में कई रोड़े हैं।
संयुक्त राष्ट्र 2023 को मिलेट्स (मोटे अनाज) के अंतरराष्ट्रीय साल के रूप में मना रहा है। आने वाले महीनों में इस अभियान के तहत संयुक्त राष्ट्र कई कार्यक्रमों और गतिविधियों का आयोजन करेगा। भारत इस अभियान की अगुवाई कर रहा है।
संयुक्त राष्ट्र में इस अभियान के प्रस्ताव को भारत ही लेकर आया था। प्रस्ताव को 72 देशों का समर्थन मिला और संयुक्त राष्ट्र ने इसे अपना लिया। इसके लिए भारत को कूटनीतिक स्तर पर भी काफी मेहनत करनी पड़ी, लेकिन यह पड़ाव एक ऐसी लंबी यात्रा के बाद आया है जिसकी शुरुआत भारत में करीब 10 साल पहले हुई थी।
प्राचीन फसलें
मोटे अनाज यानी छोटे दानों वाले अनाज, जैसे ज्वार, बाजरा, रागी इत्यादि। ये प्राचीन फसलें हैं, यानी माना जाता है कि करीब 7,000 सालों से इन्हें उगाया और खाया जा रहा है। बल्कि एक तरह से मानव सभ्यता के इतिहास में खेती की शुरुआत ही इन्हीं फसलों से हुई थी।
भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों द्वारा भी मोटे अनाजों को उगाने और खाने के पुरातत्व संबंधी सबूत मिले हैं। आधुनिक युग में जब धीर-धीरे चावल और गेहूं ज्यादा लोकप्रिय हो गए तो मोटे अनाज हाशिए पर धकेल दिए गए, लेकिन आज भी इन्हें दुनिया भर में कम से कम 130 देशों में उगाया जाता है।
चावल और गेहूं के मुकाबले मोटे अनाजों के कई फायदे हैं। संयुक्त राष्ट्र की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन (एफएओ) के मुताबिक मोटे अनाज सूखी जमीन में न्यूनतम इनपुट लगा कर भी उगाए जा सकते हैं। ये जलवायु परिवर्तन का भी प्रभावशाली रूप से सामना कर सकते हैं। एफएओ का कहना है, "इसलिए ये उन देशों के एक आदर्श समाधान हैं जो आत्मनिर्भरता बढ़ाना चाहते हैं और आयातित अन्न पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहते हैं।"
इसके अलावा पोषण की दृष्टि से भी मोटे अनाजों को बेहद लाभकारी माना जाता है। एफएओ का कहना है कि ये प्राकृतिक रूप से ग्लूटेन-फ्री होते हैं और इनमें प्रचुर मात्रा में फाइबर, एंटीऑक्सीडेंट, मिनरल, प्रोटीन और आयरन होता है। संस्था के मुताबिक ये विशेष रूप से "उन लोगों के एक बहुत अच्छा विकल्प हो सकते हैं जिन्हें सीलिएक बीमारी, ग्लूटेन इनटॉलेरेंस, उच्च ब्लड शुगर या मधुमेह है।
संभावनाओं के साथ चुनौतियां भी
मोटे अनाज मुख्य रूप से एशिया और अफ्रीका में उगाए जाते हैं और भारत इनका सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत के बाद उत्पादन में अफ्रीकी देश नाइजर, फिर चीन और फिर नाइजीरिया का स्थान है। अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में पूरी दुनिया में मोटे अनाजों के उत्पादन में भारत की 39 प्रतिशत हिस्सेदारी थी, नाइजर की 11 प्रतिशत, चीन की नौ प्रतिशत और नाइजीरिया की सात प्रतिशत।
जलवायु परिवर्तन का पोषण पर असर
लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तरपर भले भारत का उत्पादन विशाल लगता हो, भारत के अंदर धान और गेहूं के मुकाबले मोटे अनाज का उत्पादन बहुत ही कम होता है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में देश में सिर्फ 1.7 करोड़ टन मोटे अनाज का उत्पादन हुआ। इसके मुकाबले 23 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और गेहूं का उत्पादन हुआ।
ये आंकड़े दिखाते हैं कि मोटे अनाजों को गेहूं और चावल का विकल्प बनाना कितनी बड़ी चुनौती है। सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं लेकिन कई जानकारों का कहना है कि ये कदम काफी नहीं हैं। कृषि मामलों के जानकार और रूरल वॉयस वेबसाइट के संपादक हरवीर सिंह का मानना है कि सरकार के इस अभियान के पीछे कोई केंद्रित कोशिश नहीं है।
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "जब सरकार को कोई लक्ष्य हासिल करना होता है तो वो उसके लिए एक मिशन की शुरुआत करती है। मिशन का मतलब होता है ठोस लक्ष्य, उन्हें हासिल करने की समय सीमा और बजटीय आवंटन। लेकिन मोटे अनाज को लेकर आज तक ऐसे किसी भी मिशन की घोषणा नहीं की गई है।"
कीमतेंभी इस अभियान का एक बड़ा पहलु हैं। महाराष्ट्र के कमोडिटी बाजार में रागी इस समय करीब 3,800 रुपए प्रति क्विंटल के भाव बिक रही है, जबकि गेहूं करीब 2,500 रुपए है। खुदरा बाजार में यानी आम उपभोक्ता के लिए रागी का आटा गेहूं के आटे से करीब ढाई गुना ज्यादा दाम पर मिल रहा है। दाम में इतने बड़े अंतर की वजह से विशेष रूप से गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए मोटे अनाज को चावल और गेहूं का विकल्प बनाने की चुनौती और बड़ी लगने लगती है।
मोटे अनाज के दामों को नीचे लाने के लिए उनकी पैदावार बढ़ानी पड़ेगी और गेहूं और धान को छोड़ कर मोटे अनाज उगाने के लिए उन लाखों किसानों को मनाना पड़ेगा जो पहले से ही कम आय के बोझ के तले दबे हुए हैं। इस पर काम तो करीब एक दशक पहले ही शुरू हो गया था, लेकिन अभी तक उत्साहवर्धक नतीजे सामने नहीं आए हैं।
यूपीए से शुरू हुई मुहिम
मोटे अनाज के उत्पादन को प्रोत्साहन देने की शुरुआत यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2012-13 में ही हो गई थी। उसी साल पहली बार विशेष मोटे अनाजों के लिए धान और गेहूं से ज्यादा एमएसपी दी गई थी। 2011-12 में सबसे अच्छे किस्म के धान, गेहूं और देश में सबसे ज्यादा उगाए जाने वाले मोटे अनाज रागी की एमएसपी थी 1,110, 1,285 और 1,050 रुपए प्रति क्विंटल।
लेकिन 2012-13 में पहली बार रागी के लिए एमएसपी को इतना बढ़ा दिया गया कि वो गेहूं और धान की एमएसपी से भी ज्यादा हो गया। उस साल सबसे अच्छे किस्म के धान, गेहूं और रागी की एमएसपी हो गई थी 1,280, 1,350 और 1,500 रुपए प्रति क्विंटल। सरकारी खरीद भी किसानों को मोटे अनाज उगाने के लिए प्रोत्साहित करने का एक जरिया हो सकता है लेकिन उसके आंकड़े भी प्रोत्साहक नहीं हैं।
भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के आंकड़ों के मुताबिक इस समय निगम के भंडार में जहां सिर्फ 11.9 लाख टन मोटा अनाज पड़ा हुआ है वहीं 1.6 करोड़ टन से भी ज्यादा धान और 1.5 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं पड़ा हुआ है।
हालांकि मोटे अनाजों के फायदे इतने हैं कि उन्हें देखते हुए कई जानकार उन्हें लेकर बहुत उत्साहित हैं और चाहते हैं कि उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए केंद्र सरकार और भी कदम उठाए। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि वो कई राज्यों में मोटे अनाज उगाने वाले किसानों से मिले हैं और देखा है कि बढ़ी हुई एमएसपीभी उनकी आय को बढ़ा नहीं पाई है।
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मौजूदा एमएसपी बहुत कम है। मोटे अनाज उगाने में बहुत ही कम पानी खर्च होता है, उनको उगाने से फसलों में विविधता भी आएगी और स्वास्थ्य के लिए तो वो काफी लाभकारी हैं ही। सरकार को इतने फायदों को ध्यान में रख कर एमसएसपी को और बढ़ाना चाहिए।"
शर्मा मोटे अनाजों के महंगे होने की दलील को भी ठुकराते हैं और कहते हैं कि जो लोग रेस्तरां में एक कप कॉफी पीने के लिए 300 रुपए खर्च कर सकते हैं वो एक किलो रागी के आटे के लिए 100 रुपए आसानी से खर्च कर सकते हैं। उनका मानना है कि मोटे अनाज में कई लोगों की रुचि जग चुकी है और अगर अच्छी मार्केटिंग की जाए तो मोटे अनाज को निश्चित रूप से लोकप्रिय बनाया जा सकता है।