भारत और नेपाल के लोगों के बीच सदियों से रोटी और बेटी का रिश्ता रहा है। लेकिन दोनों देशों के राजनैतिक रिश्ते कटुता से भरे रहते हैं। नेपाल में वामपंथी सरकार का बनना भारत के साथ नेपाल के संबंधों में नई चुनौती होगी।
नेपाल में आम चुनाव के नतीजों से स्पष्ट हो चुका है कि देश में वाम सरकार बनेगी। वाम दलों का गठबंधन प्रचंड जीत की ओर बढ़ चुका है। 2015 में नया संविधान चुनने के बाद ये देश का पहला संसदीय चुनाव है। नेपाल में राजशाही से सदा सदा के लिए मुक्ति, लोकतांत्रिक व्यवस्था के गठन और संवैधानिकता के स्थायित्व के लिए भी ये चुनाव अहम माना जा रहा था। भारत और चीन समेत दक्षिण एशियाई देशों के साथ नेपाल के आगामी रिश्तों के लिहाज से भी इन चुनावी नतीजों को तौला जा रहा है।
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल- एकीकृत मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट (सीपीएन-यूएमएल) और द नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी- माओइस्ट सेंटर ने चुनाव पूर्व गठबंधन कर लिया था। संसद में इस गठबंधन ने 100 से ज्यादा सीटें जीत ली हैं। नेपाली कांग्रेस को चुनावों में गहरा झटका लगा है। और उसकी महज 14 सीटें आ पाई हैं। संसद की 165 सीटों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव होता है और 110 सीटों का फैसला दलों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर किया जाता है। वाम दलों की भारी जीत से भारत के साथ उसके रिश्ते आने वाले दिनों में कैसे रहेंगे इसे लेकर अटकलें भी शुरू हो चुकी हैं।
वाम नेता केपी ओली अगर वापस प्रधानमंत्री पद पर आते हैं तो भारत को रिश्तों की सहजता के लिए अपने प्रयत्न और कड़े करने होंगे। कथित तौर पर ओली का झुकाव चीन की ओर माना जाता है। वैसे देखा जाए तो इस समय दक्षिण एशिया के छोटे देश चाहे वो श्रीलंका हो या मालदीव, वे चीन के असर से मुक्त नहीं हैं।
श्रीलंका और मालदीव, चीन की समुद्री सिल्करूट परियोजना के अहम पड़ाव हैं तो नेपाल, चीन के महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड अभियान का एक अहम बिंदु है। बांग्लादेश भी रोहिंग्या संकट से उत्पन्न दबाव से छुटकारा पाने में चीन के हाल के फॉर्मूले का स्वागत कर चुका है। और पाकिस्तान तो चीन का घोषित मित्र और ‘छोटा भाई' माना ही जाता है। ऐसे में एक नया शक्ति संतुलन चीन की ओर झुकने के रुझान दिख रहे हैं और चीन की ओर से भारत की अघोषित ‘घेरेबंदी' सी दिख जाती है। इसीलिए भारत के लिए अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों में सुधार की तीव्रता महसूस की जाने की लगी है।
चीन से ज्यादा ये भारत के हित में है कि वो नेपाल की आगामी सरकार का दिल खोलकर स्वागत करे। उसके साथ अपने रिश्ते फुर्ती से सामान्य बनाए और उसे हर संभव मदद का एक पक्का भरोसा दिलाए। अन्यथा इस संवादहीनता का फायदा उठाने में चीन देरी नहीं करेगा।
भारत को नेपाल के प्रति अपने बड़े भाई जैसी दबंगई से परहेज करना होगा और ये दिखाने की कोशिश करनी होगी कि वो वास्तव में नेपाल की लोकतांत्रिक महत्वाकांक्षाओं और राजनीतिक गरिमा का हितैषी है। इसके लिए भारत को चाहिए कि नेपाल के हर छोटे बड़े अंदरूनी मामले में दखल देने की प्रवृत्ति से बाज आए जैसा पिछले दिनों संविधान के कुछ प्रावधानों पर मधेसियों के गुस्से और उसे भारत के समर्थन के मामले में देखा गया था।
नेपाल के लिए भी भारत के साथ दोस्ताना संबंध बनाए रखना हर हाल में जरूरी हैं। अपनी ईंधन आपूर्तियों और अन्य जरूरतों के लिए नेपाल पूरी तरह से भारत पर निर्भर है। दोनों देशों की सरकारों की तल्खी का असर आम नागरिकों पर नहीं पड़ना चाहिए। भारत को ये भी ध्यान रखना चाहिए कि नेपाल के साथ उसका रिश्ता किसी मजबूरी या स्वार्थ के वशीभूत न हो बल्कि उसमें स्वाभाविकता हो।
चीन तो यही चाहेगा कि नेपाल उससे मदद मांगने की स्थिति में रहे लेकिन भारत को चीनी सामरिकता की इस चालाकी को समझते हुए नेपाल के साथ अपने संबंधों को नयी दिशा देनी चाहिए। नेपाल को भी ये सोचना होगा कि उसका स्वाभाविक मित्र कौन हो सकता है। वो अपने भूगोल के सामरिक महत्त्व के आधार पर भारत पर अन्यथा दबाव नहीं बनाए रख सकता।
दोनों देशों को पारस्परिक सांस्कृतिक, आर्थिक और ऐतिहासिक जुड़ाव को नहीं भूलना चाहिए। रोटी-बेटी के संबंध से लेकर रोजमर्रा की इकोनोमी, आवाजाही और सामाजिक आंदोलनों और पर्यटन तक भारत-नेपाल मैत्री के सूत्र बिखरे हुए हैं। दोनों देशों के बीच बीच खुली सीमा है और लाखों की संख्या में नेपाली भारत में काम करने के लिए आते हैं। इस लिहाज से नेपाली नागरिकों की रोजी रोटी और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर नहीं पड़ने दिया जा सकता है। नेपाल को भी इसकी चिंता करनी होगी। बदले में भारत को ये ध्यान रखना होगा कि नेपाल एक नवजात लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है, वहां कट्टर हिंदूवादी और राजशाही समर्थक शक्तियां, निर्माणाधीन लोकतांत्रिक स्पेस को न हड़पें, इसका ख्याल रखना चाहिए।
चीन भले ही आर्थिक या सैन्य मदद के लिहाज से लुभाने की कोशिश करे लेकिन नेपाल को भूलना नहीं चाहिए कि चीन के साथ दोस्ती घाटे का सौदा भी हो सकता है- एक सबसे स्पष्ट वजह तो भूगोल है। दोनों देशों के बीच विकट पहाड़ है। कनेक्टिविटी कमजोर है और परिवहन की बड़ी लागत नेपाल को दीर्घ अवधि में कमजोर ही करेगी। नेपाल को भी एक संतुलन की राजनीति विकसित करनी होगी। यही बात भारत पर भी लागू होती है। नेपाल में सरकार का गठन जब हो तब हो लेकिन भारत को कूटनीति के निचले पायदानों से सौहार्द के रास्ते का निर्माण शुरू कर देना चाहिए। नेपाल में राजनीतिक स्थिरता जितना खुद उसके लिए जरूरी है, उतना ही भारत के लिए भी है। छोटे से हिमालयी देश नेपाल की भू-सामरिक अवस्थिति ही उसे दक्षिण एशियाई परिदृश्य में महत्त्वपूर्ण बना देती है। अपने कई फायदों की कीमत पर ही भारत उसकी अनदेखी करने का जोखिम उठा सकता है।