पुरुषों पर भारी लेकिन समाज में बेचारी हैं पूर्वोत्तर की महिलाएं
शुक्रवार, 9 अगस्त 2019 (11:50 IST)
पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले काफी मजबूत है। हालांकि इसके बाद भी समाज में उनकी स्थिति बेचारी वाली ही है। तमाम अधिकार होते हुए उन्हें अत्याचार सहना पड़ता है।
वहां उनको पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हैं। मेघालय के अलावा, मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश के कई कबीलों और जनजातियों में तो महिलाएं ही परिवार की मुखिया होती हैं। बावजूद इसके ज्यादातर मामलों में वह अपने अधिकारों का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पातीं या उनको ऐसा करने नहीं दिया जाता। परिवार और समाज में अहम फैसलों में उनकी भूमिका काफी नगण्य है।
राजनीति में भी वह हाशिए पर हैं। यही वजह है कि अक्सर विधानसभा समेत दूसरे प्रशासनिक निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग उठती रही है। लेकिन हर बार पुरुष–प्रधान समाज की ओर से इनका विरोध किया जाता रहा है। नतीजतन अक्सर हिंसा होती रही है। अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड में हालिया घटनाएं इसकी मिसाल हैं। अब एक बार फिर महिला आयोग ने सरकारी नौकरियों और विधानसभा में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने की मांग उठाई है।
आरक्षण की मांग
उगते सूरज की धरती कहे जाने वाले अरुणाचल प्रदेश में लंबे अरसे से विधानसभा और सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग उठती रही है। अब राज्य महिला आयोग ने हाल में सरकार से इस पुरानी मांग पर गंभीरता से विचार करने की अपील की है।
आयोग की अध्यक्ष राधिलू चाई कहती हैं, "यहां महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हैं और उनकी आबादी भी ज्यादा है। बावजूद इसके आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होने के कारण उनको परिवार और समाज में उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।” वह कहती हैं कि सरकार को अपना व्यापार शुरू करने की इच्छुक महिलाओं को सस्ते ब्याज पर कर्ज मुहैया कराना चाहिए। आयोग ने सरकार से राज्य में तमाम विवाहों के पंजीकरण अनिवार्य करने की मांग भी की है। राधिलू कहती हैं, "विवाह का पंजीकरण नहीं होने की वजह से विवाद की स्थिति में महिलाओं व उनके बच्चों को सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और आर्थिक उत्पीड़न झेलना पड़ता है।”
राज्य में महिलाओं की आबादी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है। फिर भी राजनीति में उनकी कोई खास हैसियत नहीं है। 60-सदस्यीय विधानसभा के लिए हाल में हुए चुनावों में तमाम दलों ने महज 11 महिलाओं को ही टिकट दिया था। उनमें से भी महज तीन ही जीत सकीं।
नागालैंड में बवाल
बीते साल फरवरी में नागालैंड के स्थानीय निकायों के चुनावों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का एलान करने पर विभिन्न संगठनों ने सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू कर दिया था। इस बवाल की वजह से तत्कालीन मुख्यमंत्री टी।आर।जेलियांग को यह फैसला तो वापस लेना ही पड़ा, अपने पद से भी इस्तीफा देना पड़ा था।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक जेलियांग ने बीते साल पहली फरवरी को होने वाले शहरी निकाय चुनावों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण को मंजूरी दे दी थी। लेकिन तमाम नागा संगठन सरकार के इस पैसले के खिलाफ लामबंद हो गए। ज्वायंट एक्शन कमिटी (जेएसी) और नागालैंड ट्राइब्स एक्शन कमिटी (एनटीएसी) के बैनर तले तमाम जातीय संगठन इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए।
उन्होंने कई सरकारी भवनों में आग लगा दी और गाडियों की आवाजाही ठप्प कर दी। हालात पर काबू पाने के लिए सेना उतारनी पड़ी। हिंसक झड़पों में दो आरक्षण विरोधियों की मौत ने इस आंदोलन को और भड़का दिया। इन संगठनों ने पहले तो राज्य में बेमियादी बंद शुरू कर दिया और फिर मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग उठा दी। आंदोलन बढ़ता देख राज्यपाल ने इन चुनावों को रद्द कर दिया था। लेकिन तमाम संगठन इस बात पर अड़े थे कि जेलियांग के इस्तीफा नहीं देने तक वह अपना आंदोलन वापस नहीं लेंगे। दो सप्ताह तक राज्य में सरकार पूरी तरह ठप हो गई थी। आखिर में मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद ही मामला शांत हुआ।
पूर्वोत्तर का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले मेघालय में महिलाओं को सबसे ज्यादा अधिकार मिले हैं। वहां घर की छोटी बेटी ही परिवार की मुखिया होती है। उससे शादी करने वाले लड़के को घरजमाई बनना पड़ता है। लेकिन वहां भी महिलाएं अत्याचार की शिकार हैं। उनकी सामाजिक स्थिति के बारे में फैसला करने वाली ग्राम पंचायतों के तमाम सदस्य पुरुष हैं।
इसी तरह मिजोरम में महिलाओं को मामूली बात पर तलाक देने वाले पारंपरिक कानूनों में बदलाव के खिलाफ तमाम राजनीतिक दल एकजुट हैं। मिजोरम के आम जनजीवन में महिलाओं की भूमिका काफी अहम है। पहले सरकार ने वहां इस पारंपरिक कानून में बदलाव के लिए एक अध्यादेश पारित किया था। लेकिन राजनीतिक दलों की मिलगीभगत के चलते उस अध्यादेश ने कानून में बदलने से पहले ही दम तोड़ दिया था।
ईसाई बहुल राज्य मिजोरम की अर्थव्यवस्था, घरेलू और सामाजिक मामलों में महिलाओं का योगदान बेहद अहम है। राजधानी आइजल के किसी भी बाजार में ज्यादातर दुकानों पर महिलाएं ही नजर आती हैं। सरकारी दफ्तरों में भी उनकी तादाद ही ज्यादा है। बावजूद उसके परिवार या समाज में किसी अहम फैसले में उनकी राय नहीं ली जाती।
मणिपुर व नगालैंड में तो उग्रवादी गतिविधियों के चलते महिलाओं का जीवन नरक हो गया है। यह हालत तब है जबकि मणिपुर में दुनिया का इकलौता ऐसा बाजार (एम्मा मार्केट) है जहां तमाम दुकानदार महिलाएं ही हैं। सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) के विरोध में मणिपुरी महिलाओं का विरोध और आंदोलन देश ही नहीं पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरता रहा है। महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता ईरोम शर्मिला इसके विरोध में बरसों तक भूख हड़ताल पर रही थीं।
महिलाओं के एक संगठन नार्थ ईस्ट नेटवर्क की ओर से किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है कि तमाम अधिकारों के बावजूद पूर्वोत्तर की महिलाएं घर-परिवार में उत्पीड़न की शिकार हैं। संगठन की कार्यक्रम निदेशक मनीशा बहल का कहना है, "अब यहां घरेलू हिंसा का शिकार होने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ रही है। लेकिन ऐसे ज्यादातर मामले दबा दिए जाते हैं। पंचायतें भी इसे निजी मामला मानते हुए इनमें हस्तक्षेप नहीं करतीं। खासकर ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाओं में तेजी आई है।” वह कहती हैं कि जब भी महिलाओं पर अत्याचार का मुद्दा उठता है, सरकार और सामाजिक संगठन यह दलील देते हुए इसे दबाने का प्रयास करते हैं कि मातृसत्तात्मक समाज में यह संभव नहीं है।
मणिपुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता ओ। दोरेंद्र सिंह कहते हैं, "जब तक राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ेगी, तब तक समाज में उनकी बातों का कोई खास असर नहीं होगा। इसके लिए जागरुकता अभियान चलाना भी जरूरी है।” वह कहते हैं कि देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले ज्यादा अधिकार होने के बावजूद अत्याचार की शिकार महिलाओं की तादाद बढ़ना मातृसत्तात्मक समाज का एक स्याह पहलू है। इस तस्वीर को बदलने के लिए राजनीतिक दलों, राज्य सरकारों और सामाजिक संगठनों को मिल कर काम करना होगा। वह कहते हैं कि इस मातृसत्तात्मक समाज में भी पुरुष-प्रधान मानसिकता बुरी तरह हावी है। इस मानसिकता के नहीं बदलने तक महिलाओं की स्थिति में सुधार संभव नहीं है।