पर्यावरण पर भारी पड़ रहे हैं अमीरों के ठाठबाट

DW

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021 (09:17 IST)
रिपोर्ट : शिवप्रसाद जोशी
 
अमीरों के रहन-सहन और खान-पान से अधिक प्रदूषण फैल रहा है। ये बात भारत पर भी लागू होती है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ा एक नया अध्ययन बताता है कि गरीबों के मुकाबले अमीर लोग 7 गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
 
जापान स्थित पर्यावरणीय अध्ययन के एक प्रमुख केंद्र 'रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ह्युमैनिटी एंड नेचर' ने अपने अध्ययन में भारत के संपन्न वर्ग की विलासितापूर्ण जीवनशैली और महंगे खान-पान को पर्यावरण के लिहाज से चिंताजनक पाया है। पूरी दुनिया में करीब 7 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन का जिम्मेदार भारत है और वैश्विक उत्सर्जन में उसका नंबर तीसरा है।
 
भारत में सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाली 2 प्रमुख गतिविधियां हैं- भोजन और बिजली की खपत। ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन दुनिया की सबसे प्रमुख चुनौती बनकर उभरा है, ऐसे अध्ययन समस्या को समझने और उनसे निपटने का एक रास्ता सुझाते हैं।
 
घरेलू खर्च पर सरकार के ही राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन से मिले डाटा के आधार पर हुए इस अध्ययन के मुताबिक बड़ी आय और बड़े खर्च वाले सबसे संपन्न 20 प्रतिशत परिवारों में, कम आय और कम खर्चों वाले यानी निर्धन घरों के मुकाबले 7 गुना अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है।
 
एक व्यक्ति का कार्बन फुटप्रिंट : आधा टन
 
भारत में हर व्यक्ति का औसत कार्बन फुटप्रिंट प्रतिवर्ष आधा टन से कुछ अधिक का पाया गया है। इसमें अमीरों की हिस्सेदारी 1.32 टन की है। किसी व्यक्ति के कार्बन फुटप्रिंट का मतलब है अपनी गतिविधियों से वो कितना कार्बन उत्सर्जित करता है यानी आम भाषा में कहें कि कितना प्रदूषण फैलाता है?
 
गरीब घरों और सीमित आय वाले घरों में डिटर्जेंट, साबुन और कपड़े-लत्तों से सबसे अधिक कार्बन फुटप्रिंट बनते हैं। अमीर घरों में निजी वाहनों और महंगे साजो-सामान से सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। अध्ययन के जरिए पहली बार देशव्यापी स्तर पर कार्बन फुटप्रिंट का क्षेत्र और वर्ग विशेष आकलन संभव हुआ है। इसके लिए 623 जिलों के 2 लाख से अधिक घरों का डाटा लिया गया है। लेकिन इसमें सरकारों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों का डाटा शामिल नहीं है।
 
अध्ययन का एक प्रखर संदेश यह भी है कि गरीबों के लिए बनने वाली विकास परियोजनाएं पर्यावरण का उतना नुकसान नहीं करती हैं जितना कि अमीरों को और अमीर बनाने वाली नीतियां। आंकड़ों के मुताबिक गरीबी निवारण की कोशिशों से कार्बन उत्सर्जन में सिर्फ करीब 2 फीसदी की बढ़ोतरी होती है यानी गरीबोन्मुख विकास से पर्यावरण का कम नुकसान होता है। लेकिन यही बात उन आर्थिक नीतियों पर लागू नहीं होती, जो समाज के अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की मदद करती हैं।
 
मध्य आय वाले परिवारों को उच्च वर्ग में ले जाने की कार्रवाई से कार्बन उत्सर्जन में 10 प्रतिशत की वृद्धि होती है। इंडिया स्पेंड वेबसाइट में जापानी अध्ययन केंद्र के आंकड़ों को प्रकाशित करते हुए बताया गया है कि अगर सभी भारतीय, अमीरों जितना ही उपभोग करने लगें तो कुल उत्सर्जन में करीब 50 प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी।
 
बिजली और खाना है जिम्मेदार
 
बिजली की खपत से सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित होती है। कुल बिजली उत्पादन का 74 प्रतिशत कोयले से ही आ रहा है। दूसरी ओर भोजन दूसरा सबसे प्रमुख उत्सर्जक है लेकिन उसकी खपत के पैटर्न बहुत अलग-अलग हैं। कम और मध्य आय वर्ग वाले घरों में अनाज पर निर्भरता है जबकि अमीर वर्ग सामान्य खाद्य सामग्री से अधिक महंगे भोजन पर खर्च करता है, जैसे मीट, अल्कोहल, अन्य पेय पदार्थ, फल, जूस, रेस्तरां आदि।
 
भोजन की उपलब्धता का संबंध कृषि और उससे जुड़े पशुपालन, सिंचाई और डेयरी जैसे उद्योगों से है। खाद्यान्न उत्पादन में भी बिजली की खपत होती है। कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने का अर्थ यह नहीं है कि इन गतिविधियों को रोक दिया जाए या उन्हें कम से कम किया जाए। अगर ऐसा करना पड़े तो सबसे बुरी मार एक बार फिर देश के गरीबों पर ही पड़ेगी।
 
आशय यह है कि सरकारें अपनी नीतियां इस तरह बनाएं, अपने उद्योगों को पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से इतनी उपयोगी और हिफाजती बनाएं कि गरीबों पर उसका गलत असर न पड़े, आर्थिक गतिविधि शिथिल न हो और जलवायु परिवर्तन की वजहें न्यूनतम हो सकें। जाहिर है खेती-किसानी और संबद्ध उद्योगों को और आधुनिक बनाना होगा लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि पारंपरिक खेती को अलविदा कह दिया जाए। उसके कुछ महत्वपूर्ण पक्ष हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती और देश के ग्राम्य परिवेश की स्वाभाविकता से छेड़छाड़ भी नहीं की जा सकती।
 
आधुनिकता की दौड़ में
 
अध्ययन में यह भी पाया गया कि हरित क्रांति के दौर में भारत में अधिक उत्पादन लेकिन कम पोषक तत्वों वाली गेहूं और चावल की नस्लें तैयार कीं जिनसे बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी हुआ। अधिक पोषक और कम उत्सर्जक देसी नस्लों की अनदेखी का खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। जानकारों का मानना है कि मोटे अनाज के उत्पादन पर और ध्यान देने की जरूरत है, जो पोषण के लिहाज से भी अधिक और सर्वथा उपयुक्त है। सबसे अधिक जरूरी है खान-पान में विलासिता और स्थानीय भोजन से अरुचि छोड़नी होगी।
 
अमीरों और गरीबों की जीवनशैलियों और उपभोग की क्षमताओं से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के बारे में ये पहली रिपोर्ट नहीं है। संयुक्त राष्ट्र और अन्य संस्थाओं के वैश्विक अध्ययनों में ऐसे तुलनात्मक अध्ययन हो चुके हैं जिनके मुताबिक दुनिया में सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोग दुनिया के 50 प्रतिशत सबसे गरीब लोगों के दोगुने से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं।
 
जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के तहत भारत, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2030 तक 33-35 प्रतिशत की कटौती कर उसे 2005 के स्तर से नीचे लाने और अक्षय ऊर्जा स्रोतों की क्षमता बढ़ाकर 40 फीसदी करने की अपनी 2 प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की राह पर है। सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करना भी जरूरी है। गरीबी उन्मूलन की दिशा में व्यावहारिक कदम उठाए जाएं तो विकास के लाभ बनाम पर्यावरणीय नुकसान के असंतुलन को ठीक किया जा सकता है।

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