कैसे मिलेगी टीबी जैसी घातक बीमारी से निर्णायक मुक्ति
मंगलवार, 5 नवंबर 2019 (15:12 IST)
टीबी जैसी घातक बीमारी के खिलाफ लड़ाई को बेहतर बनाने और इलाज सस्ता करने की मांग को लेकर आंदोलनकारी दुनियाभर में एकजुट हो रहे हैं।
भारत में पिछले दिनों फेफड़ों के स्वास्थ्य के बारे में दवा निर्माता कंपनियों, रिसर्चरों, विशेषज्ञों, डॉक्टरों और फार्मासिस्टों के अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के दौरान एक्टिविस्टों ने टीबी की दवाएं सस्ती करने की मांग की। उनका आरोप था कि इस बड़ी बहस के केंद्र में मुनाफा है न कि टीबी के आम मरीजों की तकलीफ, जबकि दुनिया में टीबी के सबसे ज्यादा मरीज भारत में ही हैं।
विडंबना ये है कि देश में भी टीबी के उपचार को लेकर जरूरी संवेदनशीलता और सरकारी तत्परता का अभाव है, दवा और इलाज बेशुमार महंगे जो हैं, सो हैं। एक्टिविस्टों ने मांग की है कि टीबी को खत्म करने के लिए बन रही दवाओं पर मल्टीनेशनल दवा कंपनियों का पेटेंट और वर्चस्व खत्म किया जाना चाहिए और जीवनरक्षक दवाएं आसानी से उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
हैदराबाद में 30 अक्टूबर से 2 नवंबर तक हुई 'वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस ऑन लंग हेल्थ' में दुनिया के 125 देशों के प्रतिनिधि जमा हुए थे। टीबी के बारे में हर साल होने वाला ये सबसे बड़ा जमावड़ा माना जाता है जिसमें गरीब और कम आय वाले देशों में बीमारी से निपटने के उपायों और इलाज के तरीकों और दवाओं के वितरण व्यवस्था आदि पर मंथन किया जाता है। पिछली बैठक द हेग में हुई थी।
टीबी दुनिया के सबसे घातक संक्रामक रोगों में एक है। अनुमान है कि 2018 में ही इस बीमारी से करीब 1.50 करोड़ लोगों की मौत हुई है। पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा टीबी मरीज भारत में हैं। करीब 20 लाख 70 हजार मरीज यानी दुनिया के 27 प्रतिशत।
दवा कंपनियों के भारी मुनाफे के बीच एक बात यह भी ध्यान देने वाली और चिंताजनक है कि टीबी भले ही भारत जैसे विकासशील देशों और वहां रहने वाले गरीब नागरिकों को चपेट में लेने वाली बीमारी है लेकिन वैश्विक पटल पर टीबी निदान से जुड़े विज्ञान और उसके व्यापार में पश्चिमी देशों की कंपनियों का बोलबाला है।
सम्मेलन हैदराबाद में हो या हेग में, लगता यही है कि सारी गलियां उस विराट दवा साम्राज्य के फाटक पर खुलती हैं, जो दुनियाभर की बीमारियों के लिए उपचार की खोज का दावा करता है और महंगे दामों में उन्हें पेटेंट कराता और बेचता है।
पिछले दिनों 'लांसेट' पत्रिका में छपे संपादकीय में कहा गया था कि टीबी की वजह से मृत्युदर में कमी के टिकाऊ विकास लक्ष्य को हासिल करने में प्रभावित देश अभी पीछे हैं। भारत का दावा है कि वो 2025 तक अपने यहां टीबी को पूरी तरह खत्म कर देगा।
सरकार मानती है कि टीबी न सिर्फ एक खतरनाक रोग और मृत्युदर को बढ़ाने वाली बीमारी है बल्कि उसकी वजह से अर्थव्यवस्था को भी गहरा नुकसान पहुंचता है। 'लांसेट' के आकलन के मुताबिक टीबी से होने वाली मौतों से अर्थव्यवस्था को अगले 30 साल तक हर साल 32 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ेगा।
टीबी पर लांसेट आयोग में भारत के रिपोर्ट कार्ड के 12 पैरामीटरों में 1-2 को छोड़कर व्यापक सुधार लाने की बात कही गई है। ताज्जुब वाली बात यह है कि इस रिपोर्ट कार्ड में 'राजनीतिक इच्छाशक्ति' के मापदंड पर भारत को अव्वल बताया गया है।
लेकिन ये 'इच्छाशक्ति' 2030 के वैश्विक लक्ष्य से 5 साल आगे रहने के भारी-भरकम दावे के रूप में तो दिखती है लेकिन जमीनी स्तर पर वस्तुस्थिति तो कुछ और ही दिखाती है, वरना भारत अभी तक टीबी के रोग वाला देश न बना रहता। वैसे लांसेट की रिपोर्ट कहती है कि भारत अगर 'अधिकतम उपाय' करेगा तभी 2100 तक पूर्ण रूप से क्षय रोग मुक्त हो सकेगा।
'लांसेट' में प्रकाशित भारत सरकार के दावे की बात करें तो टीबी को लेकर गठित राष्ट्रीय सामरिक योजना को अरबों रुपयों का बजट दिया गया है। इसके अलावा हर साल टीबी मरीजों को करोड़ों रुपए आवंटित किए गए हैं।
अपनी कोशिशों के रूप में सरकार ने गरीबी मिटाने और गरीबों के कल्याण के लिए बनाई गईं सरकारी योजनाओं, आयुष्मान भारत उज्ज्वला योजना, सबके लिए आवास, कौशल विकास कार्यक्रम आदि का भी उल्लेख किया है। लेकिन इन योजनाओं की सफलता पर भी सवाल उठते रहे हैं।
सरकार के दावे आखिर किस आधार पर हैं? और क्यों मल्टीनेशनल दवा कंपनियों पर वो आवश्यक दबाव से परहेज कर रही हैं? और क्यों आखिर बीमारी कम नहीं होती? हर साल मौत के आंकड़ों में वृद्धि होती जाती है और दवा कंपनियों का विस्तार और दवाओं की कीमतों में बढोतरी होती जाती है?
इलाज महंगा हो रहा और स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण और प्राइवेट अस्पतालों का जाल फैलता ही जा रहा है? क्या इन सब तथ्यों और गतिविधियों का आपस में कोई संबंध है? अन्य बीमारियों की बात तो छोड़ ही दीजिए जिस टीबी से देश को मुक्त कराने का दावा किया जा रहा है, उसके बारे में यह भी बताया जाना चाहिए कि पहचान, उपचार और थैरेपी को लेकर उपाय कितने विविध और व्यापक हो पाए हैं?
टीबी की बीमारी विज्ञान की समस्या ही नहीं है। ये उन लोगों की जिंदगी का सवाल है, जो बीमारी से जूझ रहे हैं या मारे जा रहे हैं। ये उनके अधिकारों का भी सवाल है। लिहाजा जरूरी है कि चाहे कोई सरकारी कार्यक्रम हो या अभियान या कोई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन, वहां प्रशस्तियों, उपलब्धियों, प्रविधियों, आगामी योजनाओं और कथित आविष्कारों और नए पेटेंटों और दवाओं की कथित खूबियों या कमियों या सर्वेक्षणों की बात ही न हो, वास्तविक समाधानों की तलाश भी की जाए जिनमें सस्ता, प्रामाणिक और टिकाऊ इलाज भी एक है।
शोध और विज्ञान किसी बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली दवा की तलाश में जरूरी हैं लेकिन भूमंडलीय कारोबारी मुस्तैदी में ये भी देखा जाना चाहिए कि उनका हासिल क्या है? क्या वे दुनिया की गरीब प्रभावित आबादी के लिए सस्ती दवा और सुरक्षित इलाज के रूप में कारगर हैं या सिर्फ शेयर बाजार की छलांगों और ढलानों से ही उनकी चिंताएं जुड़ती हैं?